मैं इस उपन्यास की भूमिका में लिख आया हूँ- ”उस युग में एक सिपाही का कवि हो जाना कितनी बड़ी बात थी इसका अनुमान लगा पाना आज की परिस्थितियों में संभव नहीं है।” उपन्यास के पूरा हो जाने पर मैं इस वक्तव्य में कुछ और भी जोड़ना चाहता हूँ।
उस युग में भारत में वैष्णवी संत परम्परा में अद्भुत संत प्रकट हुए जिनमें भक्त कुल शिरोमणी वल्लभाचार्य, संत सूरदास, गोस्वामी तुलसीदास, चैतन्य महाप्रभु, भक्त रैदास, भक्त मीरांबाई, स्वामी हरिदास आदि अनेकानेक नाम लिये जा सकते हैं। ये समस्त भक्त रहीमदास के समकालिक थे अथवा कुछ ही वर्ष आगे पीछे हुए थे। इन उत्कृष्ट संतो की इतनी बड़ी सूची देखकर आश्चर्य नहीं होता। आश्चर्य यह देखकर भी नहीं होता कि उस युग में बहुत से मुसलमानों का कृष्ण भक्ति की तरफ प्रवृत्त हो जाना असामान्य बात होकर भी सहज सुलभ थी। आश्चर्य तो इस बात को देखकर होता है कि आज के युग में वह बात उतनी सुलभ नहीं रही है। कारण श्री माधव ही जानें।
मैंने इस उपन्यास के लिये संदर्भ सामग्री जुटाने के प्रयास में मुसलमानों में कृष्णभक्ति परम्परा की पर्याप्त चौड़ी धारा के दर्शन किये हैं। उस धारा में रहीम, रसखान, रज्जब, दरियाशाह, दरियाबजी, लालदास, लतीफशाह, गरीबदास, वाजिन्द, वषनाजी, शेख भीखन, रसलीन, दाराशिकोह, सरमद साहब, साल बेग और कारे बेग से लेकर ताज बीबी, और चाँदबीबी जैसी सैंकड़ों नदियाँ आकर गिरती थीं। जलालुद्दीन वसाली तो रामभक्ति करने के लिये मुल्तान छोड़कर अयोध्या आ बसे थे। उस युग में रहीमदास की उपस्थिति सचमुच ही भारत वर्ष के लिये गर्व की बात थी। भारत भूमि पर कृष्ण भक्ति की यह निर्मल, शीतल और शांतिदायक धारा जीवित रहती तो निश्चय ही भारत भूमि का कण-कण प्रेम, विनय और पारस्परिक सद्भाव के सुवासित जल से गह-गह कर महक उठता, जिसकी सुगंध पड़ौसी देशों ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व को भी शांति का मार्ग दिखाती।
मौर्य काल में भगवान बुद्ध के संदेशों ने प्रेम और अहिंसा की बयार से पूरी दुनिया को शांति दी। भगवान श्रीकृष्ण की गौसेवा एवं महावीर स्वामी के उपदेशों ने भारत भूमि से पशुहिंसा का ताण्डव रोकने में जो अद्भुत काम किया, वह बिना धर्म के संभव ही नहीं था। किंतु हाय रे भारत भूमि! दुर्भाग्य हमारा पीछा क्यों नहीं छोड़ता! वर्तमान युग में श्री कृष्ण भक्ति के स्थान पर धर्म निरपेक्षता के नाम पर एक दूषित विचारधारा प्रवाहित हो रही है। रहीम तो धर्मनिरपेक्ष नहीं थे! रहीम के साथ ही सम्पूर्ण भूमण्डल पर कोटि-कोटि प्रातः स्मरणीय जन हुए हैं जो धर्मनिरपेक्ष नहीं थे। वास्तविकता तो यह है कि किसी भी युग में हमें धर्मनिरपेक्षता की नहीं अपितु धार्मिक सद्भाव की आवश्यता है। धर्मनिरपेक्षता ढिंढोरा पीटने वालों के लिए रहीम का एक दोहा स्मरण हो आता है-
”आप न काहू काम के, डार पात फल फूल।
औरन को रोकत फिरैं, रहिमन पेड़ बबूल।।”[1]
यदि भारत अपने आप को फिर से जगद्गुरू के पद पद प्रतिष्ठित देखना चाहता है तो उसे धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा से बाहर निकलकर, धार्मिक सद्भाव स्थापित करना होगा। धर्म का प्रकाश ही आज की अंतहीन समस्याओं का एकमात्र समाधान है। नैतिकता का बल ही समाज से अपराधों को कम और आदमी के लालच को नियंत्रत कर सकता है। धर्म के नाम पर होने वाली पोंगापंथी का विरोध होना चाहिए न कि स्वयं धर्म का। अपनी बात रहीम के ही एक दोहे से समाप्त करता हूँ-
”यह न रहीम सराहिये लेन-देन की प्रीत।
प्रानन बाजी राखिये, हारि होय के जीत।”[2]
[1] स्वयं तो बबूल के पेड़ की तरह किसी काम के हैं नहीं। न तो शाखायें अच्छी हैं, न पत्ते किसी काम के हैं और न ही पुष्प किसी काम के हैं। केवल कांटों के बल पर अपनी राह पर चलते पथिक को रोकने का ही काम करते हैं।
[2] लेन देन का प्रेम सराहने योग्य नहीं होता। प्रेम में तो प्राणों की बाजी लगानी पड़ती है, भले ही हार हो अथवा जीत।