खानखाना की चेतना लौटी। उसने देखा हवेली पूरी तरह निस्तब्ध है। कहीं से कोई शब्द नहीं। बेटी जाना बाप के पलंग पर ही कंधा रखकर सो गयी है। शमां की रौशनी तेल खत्म हो जाने से अपने अंतिम क्षण गिन रही है जिससे कमरे में अंधेरा छाता जा रहा है।
पूरी रात खानखाना सुधि और बेसुधि के पारावार में हिचकोले खाता रहा है। जब होश आता है तो जाना, जाना चिल्लाता है और जब बेसुधि में हिचकोले खाता है तो हे मुरली मनोहर! हे गिरधारी! चिल्लाता है।
जब खानाखाना कुछ खाने को मांगकर फिर से बेसुध हो गया था, जाना उसी समय समझ गयी थी कि अब कुछ ही समय का खेल शेष है। रंगमंच का खिलाड़ी अपने हिस्से का अभिनय समाप्त करके फिर से नेपथ्य में जाने को उतावला है। जिस्मानी रौशनी फिर से आस्मानी रौशनी में शाया होना चाहती है।
– ‘हे मुरली मनोहर! हे गिरधारी! इस ओर निहारो बनवारी!’ खानखाना चिल्ला उठा।
जाना की नींद खुल गयी। उसने देखा, वृद्ध पिता के दोनों हाथ आकाश की ओर उठे हुए हैं- ‘हे देवकी नन्दन। माधव मुरारी! मैं आपका गुलाम हूँ। सम्पूर्ण जगत से ठुकराया गया, दीन, हीन, मलीन और राह का भिखारी हूँ। केशव! आपकी आज्ञा से मैंने जीवन के रंगमंच पर कौन-कौन भूमिकाएं नहीं कीं! मैंने कौन-कौन स्वांग नहीं धरे! हे वनमाली! हे मधूसूदन श्रीकृष्ण! अगर मेरे इस स्वांग और अभिनय से आपका कुछ भी मनोरंजन हुआ हो तो उसके पुरस्कार स्वरूप मुझे अब और अभिनय करने से मुक्ति दे दो। अगर आपको मेरा कोई स्वांग अच्छा नहीं लगा हो तो ऐसा आदेश दो कि मैं फिर कोई स्वांग न करूँ, मेरे स्वांग करने पर ही आप रोक लगा दें, मैं सहज हो जाऊँ।[1] मुझसे यह अदम्य पीड़ा सही नहीं जाती। आप अपने दासों की कठोर परीक्षा न लें प्रभु!’
– ‘मैं जानता हूँ प्रभु! एक न एक दिन आप मेरी सुनेंगे। आपने अंधे सूरदास की भी तो सुनी लेकिन उसे आपने कितना रुलाया! हे नाथ! मेरे मित्र तुलसीबाबा का तो पूरा जीवन ही मुसीबतों का घर बन कर रह गया।’
– ‘हे प्रभु! अब मैं भी खूब सारा रो तो लिया! और कितना रोऊँ! अधिक रो सकने की मेरी सामृथ्य नहीं है प्रभु! अपनी शरण में ले लो प्रभु। मैंने तेरे दासों को रोते हुए ही देखा प्रभु! वह तेरा गुलाम तुलसी! कितना रोया वह? उसकी पीड़ा देखी नहीं जाती थी।’
– ‘पायँपीर पेटपीर बाँहपीर मुँहपीर,
जर जर सकल सरीर पीर मई है।
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह,
मोहि पर दवरि दमानक सी दई है।
हौं तो बिन मोल के बिकानो बलि बारेही तें,
ओट रामनाम की ललाट लिख लई है।
कुंभज के किंकर बिकल बूड़े गोखुरनि,
हाय रामराय ऐसी हाल कहूँ भई है?[2]
– ‘मेरी यह पीड़ा दूर करो नाथ। बहुत हो चुका प्रभु! अब इस लीला को समेटो। क्यों बालकों की तरह दूर खड़े तमाशा देखते हो? मैं तो चींटी की तरह मर जाऊंगा। अपने नेत्र उघाड़ो नाथ! क्यों मेरा उपहास करवाते हो?’
जाना वृद्ध पिता के इस आत्मालाप को चुपचाप सुनती रही। उसने देखा कि पिता फिर से बेहोश हो गया। इस बार उसका सिर पलंग पर था और पैर फर्श पर थे। जाना ने पिता के पैर सीधे करके पलंग पर रख दिये और शमां में तेल डालने लगी।
थोड़ी ही देर में खानखाना की चेतना फिर से लौटी। वह चिल्लाता हुआ उठ बैठा- ‘मियाँ रसखान! अरे रस की खान! फिर से गाओ तो वह गान! कहाँ है तुम्हारी सुरीली तान!’ खानखाना गाने लगा-
सेस महेस, गनेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर ध्यावैं।
जाहि अनादि अनंत अखंड, अछेद, अभेद, सुबेद बतावैं।
नारद से सुक व्यास रहैं, पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।’[3]
खानखाना उठ कर नाचने लगा। उसकी आँखें लाल थीं और होठों पर सफेद पपड़ी जमी हुई थी।
पिता की यह दशा देखकर जाना की छाती भर आयी। खानखाना नाचते-नाचते क्षण भर के लिये रुका फिर अस्फुट स्वर में गाने लगा- ‘ हरि मुख किधौं मोहिनी माई। बोलत बचन मंत्र सो लागत गति मति जात भुलाई।[4] ……..अरी मोहे भवन भयानक लागे माई[5] ………छवि आवत मोहनलाल की……….।[6] मुखड़े छोटे होने लगे। श्वांस अवरुद्ध होने लगी। आँखें मुंदने लगीं। फिर अचानक खानखाना ने पूरे नेत्र खोले, स्वर पूर्णतः स्पष्ट हो गया। उसने भरपूर दृष्टि जाना पर डाली और फिर से गाने लगा-
‘कबहुँक खग मृग मीन कबहुँ मर्कटतनु धरि कै।
कबहुँक सुन-नर-असुर-नाग-मय आकृति करि कै।
नटवत् लख चौरासि स्वाँग धरि-धरि मैं आयो।
हे त्रिभुवन नाथ! रीझ को कछु न पायो।
जो हो प्रसन्न तो देहु अब मुकति दान माँगहु बिहँस
जो पै उदास तो कहहु इम मत धरु रे नर स्वाँग अस।’[7]
पद पूरा होते होते खानखाना धरती पर गिर गया। उसने एक लम्बी हिचकी ली और प्रेम का प्यासा हुमा पंछी सदैव के लिये प्रीतम मुरली मनोहर के पास खेलने के लिये चला गया। जाना चीख कर पिता की छाती पर गिर पड़ी।
[1] अनीता नटवन्मया तवपुरः श्रीकृष्ण। या भूमिका
व्योमाकाश खखाम्बराब्धिवसवस्त्वत्प्रीतयेद्यावधि।
प्रीतस्त्वं यदि चेन्निरीक्ष्य भगवन् स्वप्रार्थित देहि मे
नो चेद् ब्रूहि कदापि मानय पुनस्त्वेतादृशीं भूमिकाम्।।
– खानखाना कृत।
[2] यह पद गोस्वामी तुलसीदास रचित हनुमान बाहुक का है। जिसका अर्थ है- पाँव की पीड़ा, पेट की पीड़ा, बाहु की पीड़ा और मुख की पीड़ा- सारा शरीर पीड़ामय होकर जीर्ण-शीर्ण हो गया है। देवता, प्रेत, पितर, कर्म, काल और दुष्टग्रह, सब एक साथ ही आक्रमण करके तोप की सी बाड़ दे रहे हैं। बलि जाता हूँ। मैं तो लड़कपन से ही आपके हाथ बिना मोल बिका हुआ हूँ और अपने कपाल में रामनाम का आधार लिख लिया है। हाय राजा रामचंद्रजी! कहीं ऐसी दशा भी हुई है कि अगस्त्य मुनि का सेवक गाय के खुर में डूब गया हो?
[3] रसखानकृत।
[4] सूरदास कृत।
[5] सूरदास कृत।
[6] खानखाना कृत।
[7] खानखाना कृत।