खानखाना अब पूरी तरह दो हिस्सों में बंट गया। उसका बेटा दाराबखाँ, बेटे शाहनवाजखाँ की पुत्री और दाराबखाँ के बेटे खुर्रम के पास थे और पोता मनूंचहर तथा स्वयं खानखाना परवेज के पास थे।
ऐसी स्थिति में खानखाना के लिये कहीं ठौर न बची थी। जाये तो जाये कहाँ? उसने खुर्रम के निज मंत्री भीम सिसोदिया को पत्र लिखा कि यदि खुर्रम मेरे बेटों-पोतों को छोड़ दे तो मैं बादशाही लश्कर को दक्खिन से हटाकर आगरा भेज दूँ। नहीं तो बहुत मुश्किल पड़ेगी।
इस पर भीम सिसोदिया ने लिखा- ‘अभी तो पाँच-छः हजार लोग खुर्रम के लिये अपनी जान झौंकने के लिये शेष हैं। जब तू हमारे पास आयेगा तब तेरे बेटे को मारकर तेरा हिसाब किया जायेगा।’
खानखाना समझ गया कि मुगलिया सल्तनत की गंदी सियासत पूरी तरह से खानखाना के परिवार को खत्म करके ही दम लेगी। इधर परवेज खानखाना से पूरी सेवा लेगा और अंत में उसे नष्ट कर देगा। उधर खुर्रम दाराबखाँ से पूरी सेवा लेगा और जब दाराबखाँ उसके काम का न रहेगा तो खुर्रम उसे नष्ट कर देगा। खानखाना यह बात दाराब और मनूंचहर को समझाना चाहता था किंतु उन तक पहुँचने या उन तक अपना संदेश पहुँचाने का कोई उपाय न था।
कुछ दिनों बाद खबर आयी कि खुर्रम ने गोलकुण्डा होते हुए उड़ीसा के रास्ते बंगाल पर अमल जमा लिया है और दाराबखाँ को वहाँ का सूबेदार नियुक्त किया है। यह सुनकर परवेज ने बुरहानपुर से बंगाल जाने की तैयारी की और मनचूहर को खानपुर थाने का हाकिम बना दिया। यह देखकर खानखाना ने अपना माथा पीट लिया।
खुर्रम को उदयपुर के राणा अमरसिंह के पुत्र भीमसिंह की सेवाएं मिल जाने से खुर्रम के हौंसले बुलंद थे। वह बंगाल को जीतने के बाद बिहार की ओर बढ़ा और उसे दबाने के बाद निरंतर आगे बढ़ता हुआ इलाहाबाद तक चढ़ आया।
परवेज ने खानखाना के आधे परिवार को अपनी तरफ और आधे परिवार को खुर्रम की तरफ देखकर खानखाना का विश्वास नहीं किया। उसने खानखाना को कैद करने का निर्णय लिया।
जब परवेज के आदेश पर महावतखाँ के आदमी नंगी तलवारें लेकर खानखाना के डेरे की तरफ बढ़े तो फहीम ने तलवार खींच ली। फहीम को अकेले ही लड़ने के लिये आया देखकर महावतखाँ ने कहा- ‘तू अपनी जान व्यर्थ ही गंवाता है। तुझे क्या भय है?’
– ‘आप किस इरादे से नंगी तलवारें लेकर मेरे स्वामी के डेरे पर आये हैं, यह जाने बिना मैं आपको डेरे में प्रवेश नहीं करने दूंगा।’
– ‘शहजादे का हुक्म है कि बदकार खानखाना को गिरफ्तार करके हथकड़ी बेड़ी लगायी जाये।’
– ‘लेकिन क्यों? क्या गुनाह है मेरे स्वामी का?’
– ‘फहीम! महावतखाँ को अपना काम करने दो।’ खानखाना ने कहा। वह डेरे के बाहर शोर होता हुआ सुनकर निकल आया था।
– ‘मेरी देह में प्राणों के रहते यह बदजात मेरे स्वामी को छू भी नहीं सकता।’ फहीम ने ताल ठोकी।
– ‘गुस्ताख सिपाही! शहजादे की मंशा पूरी होने में रोड़ा बनता है। तेरा सिर कलम किया जायेगा।’ महावतखाँ ने चीख कर कहा।
– ‘तुम क्या मेरा सिर कलम करोगे, मैं स्वयं ही अपने स्वामी पर कुरबान हो जाऊंगा।’ इतना कहकर फहीम शेर की तरह उछला और अपनी तलवार का भरपूर वार महावतखाँ पर किया। महावतखाँ अचानक ही उसके वार कर देने से घोड़े से गिर पड़ा। तलवार उसकी भुजा पर निशान बनाती हुई निकल गयी। यदि वह जरा सा भी चूक जाता तो उसकी भुजा उसके शरीर से अलग हो जाती।
– ‘मारो नमक हराम को।’ महावतखाँ चिल्लाया। दसियों तलवारें फहीम पर छा गयीं। कुछ देर बाद फहीम का शव ही धरती पर पड़ा दिखायी दिया। फहीम ने अपने स्वामी पर न्यौछावर होकर उस कहावत को नया ही अर्थ दे दिया जो उन दिनों खानखाना के दूसरे चाकरों द्वारा फहीम से ईष्या रखे जाने के कारण कही जाती थी- ‘कमावे खानखाना उड़ावे मियाँ फहीम।’ सच ही तो था, खानखाना ने अब तक जो भी यश और पुण्य अर्जित किया था फहीम ने अपनी जान न्यौछावर करके खानखाना की कीर्ति को दूर-दूर तक फैला दिया।