गियासुद्दीन बलबन का एक गुलाम पृष्ठभूमि से ऊपर उठकर एक विशाल सल्तनत का स्वामी बन जाना एक अलग बात थी और सल्तनत में राजत्व के सिद्धांत रूपी प्राण फूंक देना बिल्कुल अलग बात थी किंतु बलबन ने ये दोनों कार्य सफलता-पूर्वक कर दिखाए थे।
बलबन का जन्म ई.1200 में तुर्किस्तान के उस क्षेत्र में हुआ था जो अब कजाकिस्तान कहलाता है। सैंकड़ों साल तक यह क्षेत्र चीन के अधीन था, उसके बाद रूस के अधीन हुआ तथा अब एक अलग स्वतंत्र मुस्लिम देश है। उस काल में एक योद्धा के लिए 87 वर्ष की आयु प्राप्त करना बहुत ही कठिन बात थी किंतु बलबन ने 87 वर्ष की आयु पाई। उसने अपनी इच्छा के अनुसार अपना जीवन जिया किंतु उसके उसके जीवन के कुछ हिस्से अच्छे नहीं निकले।
जब हम बलबन के जीवन का विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि वह एक ऐसा कुरूप किंतु भाग्यवान मनुष्य था जिसने परिस्थितियों के क्रूर हाथों से स्वयं को बचाकर परिस्थितियों को अपनी गुलाम बना लिया था। बलबन का शरीर मजबूत था किंतु उसकी कद काठी सुंदर नहीं थी। उसका कद छोटा और रंग काला था।
उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे। उसकी भद्दी सूरत के कारण इल्तुतमिश ने उसे खरीदने से मना कर दिया था। तब बलबन ने विनम्र भाव से कहा था- ‘जहाँपनाह जहाँ आपने इतने गुलाम अपने लिये खरीदे हैं, तो ईश्वर के लिये मुझे खरीद लीजिये।’ बलबन के शब्दों से प्रभावित होकर इल्तुतमिश ने बलबन को खरीदा था किंतु उसकी कुरूपता के कारण उसे भिश्ती का काम सौंपा गया।
इस रोचक इतिहास का वीडियो देखें-
बलबन का पिता खान था किंतु बलबन का बचपन गुलाम के रूप में बीता। उसे बुखारा, गजनी तथा दिल्ली जैसे शहरों में बेचा गया जहाँ भाग्य के उत्कर्ष के लिये अनेक मार्ग खुले हुए थे। यह बलबन के भाग्य का ही प्राबल्य था कि उसे ख्वाजा जमालुद्दीन तथा इल्तुतमिश जैसे योग्य मालिकों ने खरीदा। इससे बलबन के उत्कर्ष के मार्ग खुल गए। उसे शिक्षित होने तथा राजकृपा प्राप्त करने का अवसर मिला। भाग्य के बल पर वह निरंतर आगे बढ़ता चला गया।
सुल्तान इल्तुतमिश की कृपा से बलबन मलिक बना किंतु सुल्तान रुकुनुद्दीन फीरोजशाह का विरोध करने के कारण बलबन को जेल में बंद कर दिया गया। रजिया ने बलबन पर कृपा की किंतु बलबन ने रजिया के साथ विश्वासघात करके उसे मरवा दिया क्योंकि बलबन एक औरत का सुल्तान बनना अल्लाह के आदेश के खिलाफ मानता था। सुल्तान मसूदशाह के काल में बलबन पर पुनः शाही-कृपा हुई और उसे ‘अमीरे हाजिब’ के पद पर नियुक्त किया गया। बलबन ने मसूदशाह से भी विद्रोह किया तथा उसके स्थान पर नासिरुद्दीन महमूद को सुल्तान बनाने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इस प्रकार नैतिकता के स्तर पर बलबन भी उतना ही गिरा हुआ था जितना कि उस काल के अन्य तुर्की अमीर गिरे हुए थे।
बलबन में कूटनीति से काम लेने की क्षमता थी। जब सुल्तान नासिरुद्दीन ने बलबन को प्रधानमंत्री के पद से हटाकर हांसी भेज दिया तो बलबन ने विद्रोह का मार्ग न अपनाकर सुल्तान का आदेश स्वीकार कर लिया तथा भाग्य को अपने पक्ष में होने की प्रतीक्षा करने लगा।
जब भाग्यवश बलबन को पुनः दिल्ली में बुलाकर पुराने पद पर बहाल किया गया तो बलबन सुल्तान को पूरी तरह से अपने पक्ष में करने के लिये अपनी पुत्री का विवाह सुल्तान से कर दिया। इससे दरबार में अन्य कोई अमीर उसे चुनौती देने योग्य नहीं रहा। इस प्रकार सुल्तानों को बनाते-बिगाड़ते वह स्वयं भी सुल्तान बन गया। जीवन के इन अनुभवों ने उसे परिपक्व बना दिया।
जब हम बलबन के शासनकाल की समग्र समीक्षा करते हैं तो हम पाते हैं कि दिल्ली सल्तनत के समक्ष कुतुबुद्दीन ऐबक के समय से जो समस्याएँ चली आ रही थीं, वे समस्त समस्याएं बलबन के समय भी विद्यमान थीं। पश्चिमोत्तर सीमांत क्षेत्र में खोखरों का उपद्रव, पश्चिमोत्तर सीमा पर मंगोलों के आक्रमण, दिल्ली के निकट मेवातियों के उत्पात, गंगा-यमुना के दो-आब में हिन्दुओं के विद्रोह, राजपूताना, रूहेलखंड, बुंदेलखंड तथा बघेलखंड में हिन्दू सरदारों के विद्रोह, बंगाल के गवर्नरों के विद्रोह, तुर्की अमीरों के षड़यंत्र आदि बहुत सी ऐसी समस्याएँ थीं जो पूरे गुलामवंश के शासन के दौरान बनी रहीं।
बलबन इनमें से केवल षड़यंत्रकारी अमीरों की समस्या का स्थायी समाधान ढूंढ सका था, शेष समस्याएं कुछ समय के लिए दब अवश्य गईं किंतु बलबन के मरते ही फिर से उठ खड़ी हुईं।
बलबन ने राजपूत शासकों की तरफ से आँखें मूंदने की ठीक वैसी ही विचित्र नीति अपनाई थी जैसी कि इल्तुतमिश तथा रजिया ने मंगोलों के प्रति अपनाई थी। रजिया ने यही नीति राजपूतों के सम्बन्ध में भी अपनाई थी। संभवतः इसी कारण इल्तुतमिश और रजिया सल्तनत के भीतर की समस्याओं पर ध्यान दे पाए थे। बलबन ने मंगोलों पर तो कड़ी कार्यवाही की किंतु राजपूतों के सम्बन्ध में उसने रजिया की नीति का अनुसरण किया।
बलबन ने केवल एक बार चित्तौड़ पर आक्रमण करके पराजय का स्वाद चखा और समझ गया कि अभी दिल्ली सल्तनत ने इतनी शक्ति प्राप्त नहीं की है कि वह राजपूताना के राजपूतों से सीधे भिड़ सके। संभवतः बलबन इस बात को भी जानता था कि चौहान सम्राट पृथ्वीराज को मुहम्मद गौरी ने जिस धोखे से मारा था, वह धोखा हिन्दू राजाओं के साथ बार-बार नहीं दोहराया जा सकता। इस काल के हिन्दू राजा अधिक सतर्क थे।
इसीलिए यह कहा जाता है कि बलबन की सैनिक उपलब्धियाँ उतनी बड़ी नहीं थीं जितनी कि शासकीय उपलब्धियाँ हैं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता