उत्तराधिकार का युद्ध इस बात की गवाही देता है कि मुगल काल की राजनीति में हिन्दु राजाओं ने गलत निर्णय लिए। अधिकांश हिन्दू राजा दारा शिकोह एवं औरंगजेब में अंतर नहीं कर सके। इस कारण व्यर्थ ही कट मरे।
तारागढ़ की तलहटी में खड़ा दारा शिकोह अभी बदली हुई स्थिति पर विचार कर ही रहा था कि कोकला पहाड़ी पर कोलाहल हुआ तथा वहाँ से घोषणा की गई कि शत्रु ने पहाड़ी के सबसे सुरक्षित स्थान को छीन लिया है। इस नये संकट ने दारा को तत्काल निर्णय लेने पर विवश कर दिया। दारा में औरंगजेब की तरह सर्वोच्च प्रयास करने का हौंसला नहीं था जो हारी हुई बाजी को पलट सके।
तीन दिन की लगातार लड़ाई के दबाव ने दारा को हतोत्साहित कर दिया था। वह अपनी सेना को उसके भाग्य पर छोड़कर युद्ध के मैदान से निकल गया। इसी के साथ दारा ने अपने दुर्भाग्य पर अपने ही हाथों से मोहर लगा दी। अब उसे हारने से कोई नहीं रोक सकता था! सत्य तो यह है कि जिस दिन से मारवाड़ नरेश जसवंतसिंह ने दारा की सहायता करने से मना कर दिया था, उसी दिन से दारा ने मन ही मन अपनी पराजय स्वीकार कर ली थी।
दारा इतना भयभीत हुआ कि वह युद्ध के मैदान से भागकर अजमेर नगर में नहीं गया, जहाँ उसका हरम तथा उसका खजाना किसी भी बुरी परिस्थिति में पलायन के लिये ऊंटों एवं हाथियों पर लदा हुआ तैयार खड़ा था। दारा तारागढ़ की पहाड़ी से ही पश्चिम दिशा में मेड़ता की पहाड़ियों की तरफ भाग गया। जब शहजादे दारा शिकोह के हरम और खजाने के अधिकारियों तक यह सूचना पहुंची तो वे भी दारा के भागने की दिशा में पीछे-पीछे भाग लिए। इसी बीच रात हो गई।
औरंगजेब के सेनापतियों को अचानक मिली इस जीत पर विश्वास नहीं हुआ। वे समझ ही नहीं पाए कि जीत इतनी जल्दी कैसे मिल गई! दिलेर खाँ यद्यपि दारा की सेना की घेराबंदी को तोड़ चुका था तथापि उसकी स्थिति नाजुक थी। श्ेाख मीर के सिपाहियों को शेख की मृत्यु के बारे में ज्ञात हो चुका था और वे सारा अनुशासन भंग करके लूटपाट करने में लगे हुए थे। उनका ध्यान युद्ध की तरफ बिल्कुल नहीं था।
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महाराजा जयसिंह की आगे बढ़ने की गति अब भी धीमी थी। उसके दाहिनी तरफ असद खाँ एवं होशदाद खाँ अब भी कुछ नहीं कर पाये थे। उनकी टुकड़ियां दर्शक बनकर व्यर्थ खड़ी थीं किंतु दारा के भाग जाने से इन सबकी कमजोरियों एवं गलतियों पर पर्दा पड़ गया। औरंगजेब की इस अप्रत्याशित जीत और दारा की कायरता पूर्ण पराजय का श्रेय यदि किसी एक व्यक्ति को जाता था तो वह केवल जम्मू का राजा रामरूप राय था जिसने औरंगजेब जैसे नराधम के लिए अपने प्राणों और सैनिकों की बलि दे दी थी।
जैसे ही औरंगजेब को ज्ञात हुआ कि दारा युद्ध का मैदान छोड़कर भाग गया तो उसने युद्ध रोक दिया। राजा जयसिंह ने आगे बढ़कर तंग घाटी का रास्ता रोक लिया ताकि दारा के सिपाही जान बचाकर न भाग सकें। अब औरंगजेब के मुस्लिम सेनापतियों ने मोर्चा संभाला और दारा के सिपाहियों का कत्लेआम शुरु कर दिया। यह कत्लेआम देर रात तक चलता रहा। इस प्रकार 11 मार्च की शाम को आरंभ हुआ अजमेर का युद्ध 13 मार्च की रात में थम गया।
दारा की सेना किसी भी तरह से औरंगजेब की सेना से कम नहीं थी किन्तु दारा का मनोबल बढ़ाने वाला कोई मित्र उसके साथ नहीं था जबकि औरंगजेब के मित्रों की कमी नहीं थी और उसे नित नई सहायता प्राप्त हो रही थी। उत्तराधिकार का युद्ध अब बड़ी तेजी से एक तरफ झुकता जा रहा था।
दुर्भाग्य से हिन्दू राजाओं ने गलत निर्णय लिये। उन्होंने अपने भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए, अच्छे दारा को छोड़कर बुरे औरंगजेब का साथ दिया। इसकी शुरुआत चम्पतराय ने की थी जिसने औरंगजेब को चुपके से चम्बल नदी पार करवाई थी। महाराजा जसवंतसिंह भी कभी औरंगजेब के विरुद्ध तो कभी औरंगजेब के साथ खड़े हुए दिखाई दिए। जम्मू नरेश रामरूप राय स्वयं भी नष्ट हो गया और उसने दारा को भी नष्ट कर दिया।
यदि आम्बेर नरेश जयसिंह औरंगजेब का साथ न देता तो दारा परास्त न हुआ होता। यदि जोधपुर नरेश जसवंतसिंह दारा के पक्ष में लड़ने के लिये आ गए होते, तो भी दारा परास्त न हुआ होता। यदि किशनगढ़ नरेश महाराजा रूपसिंह और बूंदी नरेश महाराजा छत्रसाल शामूगढ़ के मैदान में शहीद न हुए होते तो भी दारा परास्त नहीं होता।
मध्यकाल के हिन्दू नरेश लगभग हर मोर्चे पर इतने ही अदूरदर्शी एवं असफल सिद्ध हुए थे जितने वे धरमत, शामूगढ़, खजुआ और अजमेर युद्ध के दौरान थे। इस अदूरदर्शिता एवं असफलता का कारण स्पष्ट था। जहाँ सारे हिन्दू नरेश दारा की तरफ थे वहीं आम्बेर नरेश जयसिंह दुष्ट औरंगजेब की तरफ था और वह बार-बार महाराजा जसवंतसिंह को गलत निर्णय लेने पर उकसाता था।
इस युद्ध में अजमेर की वीसल झील नष्ट हो गई तथा तारागढ़ एवं अजमेर नगर के परकोटों को गंभीर क्षति पहुंची। प्राचीन इंदरगढ़ के अवशेष पूरी तरह नष्ट हो गए।
जब दारा मेड़ता की ओर भाग रहा था तब फ्रैंच यात्री बर्नियर भी दारा के साथ ही चल रहा था। उन दिनों दारा की एक बेगम के पैर में विसर्प लग जाने से वह बीमार थी तथा दारा उसकी सेवा कर रहा था। जब दारा को ज्ञात हुआ कि बर्नियर नामक एक फिरंगी चिकित्सक पास में ही है तो दारा ने बर्नियर को अपने तम्बू में बुलवा लिया।
बर्नियर दारा के तम्बू में गया और उसने बीमार बेगम की चिकित्सा की। बर्नियर तीन दिन तक दारा के साथ यात्रा करता रहा ताकि उसकी बेगम की देखभाल की जा सके। और भी कुछ विदेशियों ने शाहजहां के पुत्रों में हुए उत्तराधिकार का युद्ध के बारे में लिखा है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता