वैष्णव संत रामानंद का जन्म ईसा की चौदहवीं शताब्दी में हुआ। उनके अवतरण से पहले हिन्दू धर्म में याज्ञिक कर्मकाण्ड के वैभवपूर्ण आयोजन होते थे। कर्मकाण्ड की जटिलता के कारण उस काल में वैदिक धर्म जनसामान्य की पहुँच से दूर होता जा रहा था। एक समय ऐसा भी आया जब वैदिक धर्म केवल राजाओं, पुरोहितों और श्रेष्ठियों के लिये सुलभ रह गया।
इस प्रवृत्ति के विरोध में ईसा पूर्व छठी शताब्दी में गौतम बुद्ध ने शून्यवाद का प्रतिपादन किया। दार्शनिक पक्ष की सरलता के कारण गौतम बुद्ध द्वारा प्रतिपादित धर्म सर्वसाधारण के लिये सुलभ हो गया। इस कारण गौतम बुद्ध के सिद्धांतों पर आधारित धर्म शीघ्र ही लोकप्रिय होकर जनमानस में गहरी पैठ बनाने में सफल हो गया तथा प्रजा वैदिक धर्म से दूर होने लगी।
लगभग डेढ़ हजार वर्षों तक बौद्धधर्म भारत भूमि तथा उससे बाहर दूर-दूर तक फैलकर अत्यंत मजबूत हो गया। बौद्धधर्म से महायान, हीनयान, मंत्रयान, वज्रयान एवं तंत्रयान प्रकट हुए जिनसे भारत भूमि पर अनेकानेक वाममार्गी संप्रदायों का बोलबाला हो गया।
बौद्ध धर्म की तरह हिन्दू धर्म के दो प्रमुख पंथ शैवमत तथा शाक्तमत भी वाममार्गियों की चपेट में आकर अपना प्राचीन स्वरूप खो बैठे तथा इन दोनों ही पंथों में पंच मकारों अर्थात् मांस, मदिरा, मैथुन, मीन तथा मुद्रा जैसी विकृत क्रियाओं का प्रचलन हो गया। जैन धर्म जिसका स्वरूप महावीर स्वामी द्वारा बताए गए सरल सिद्धांतों पर निर्धारित हुआ था, उसकी भी कुछ शाखाएं तंत्रमार्गियों की चपेट में आ गई।
तंत्र साधक शवों पर साधना करते थे, शमशान में निवास करते थे, चिताओं से शव खींचकर खाते थे। स्त्रियों की देह भोगकर अपने चक्रों को जगाने का प्रयास करते थे। बहुत से भोले-भाले गृहस्थ भी इनसे प्रभावित होकर वैदिक धर्म की पूजा-पद्धति को भूलकर तंत्र-मंत्र के चक्करों में बर्बाद होने लगे।
राष्ट्र में फैले इस घनघोर अनाचार का प्रतिकार करने के लिये गुप्त शासकों (तीसरी शताब्दी से छठी शताब्दी ईस्वी) ने वैदिक धर्म के भीतर विकसित हो रहे विष्णुधर्म के उत्थान का बीड़ा उठाया। इस काल में भगवान विष्णु एवं उनके अवतारों के विविध स्वरूपों का अंकन विग्रहों एवं चित्रों में किया गया। यह युग भारतीय इतिहास में ‘स्वर्ण युग’ के नाम से जाना जाता है।
छठी शताब्दी में हूणों के हाथों गुप्तों का पराभव हो गया। हूणों ने संपूर्ण उत्तरी भारत में भगवान विष्णु की मूर्तियों को भारी क्षति पहुंचायी। उन्होंने बौद्ध मठों पर भी आक्रमण किया। हजारों मठ, स्तूप और मंदिर नष्ट कर दिये गये। गुप्तों के पराभव के कारण भागवत धर्म अथवा वैष्णव धर्म को राजकीय संरक्षण मिलना कम हो गया जिसके कारण बौद्ध धर्म और जैन धर्म ने अपना प्रभाव बढ़ाया। उस समय देश के अधिकांश राजा या तो बौद्ध धर्म के अनुयायी थे या फिर जैन धर्म के।
इस समय तक भारत भूमि पर जितने भी बाह्य आक्रमण हुए थे उनसे राष्ट्र की राज्यशक्ति को तो हानि पहँुची थी किंतु उनके द्वारा राष्ट्र की जनता को अपना धर्म त्याग कर आक्रांताओं का धर्म अपनाने की बाध्यता उत्पन्न नहीं की गयी थी। आठवीं शताब्दी में देश की सीमाओं पर इस्लाम ने पहली दस्तक दी। अहिंसावादी दर्शन से प्रभावित राज्य शक्ति एवं सामान्य प्रजा इस चुनौती का सामना करने में समर्थ नहीं थी। ठीक इसी समय भारत भूमि पर आदिजगद्गुरु शंकराचार्य का आविर्भाव हुआ। उन्होंने बौद्ध धर्म के ‘शून्यवाद’ की प्रतिक्रिया में ‘अद्वैतवाद’ का सिद्धांत दिया तथा वेदविहित याज्ञिक कर्मकाण्ड की पुनर्स्थापना की। कुमारिल भट्ट ने भी स्थान-स्थान पर बौद्धों से शास्त्रार्थ कर शून्यवाद को ध्वस्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
बौद्ध धर्म के शून्यवाद की प्रतिक्रिया नाथों के आविर्भाव के रूप में भी हुई। नाथों और सिद्धों ने यौगिक क्रियाओं के माध्यम से निर्गुण भक्ति का मार्ग पकड़ा और बौद्धों के शून्यवाद को अपने अंदर समाहित कर लिया। शून्यवाद के विरोध में उठ खड़ी होने वाली ये समस्त धारायें शैवधर्म के अंतर्गत उत्पन्न होने वाली, एक दूसरे से भिन्न एवं परिष्कृत शाखायें थीं।
शंकराचार्य के अद्वैत, कुमारिल भट्ट के शास्त्रार्थ, नाथों के योग तथा सिद्धों की उलटबांसियों ने बौद्धधर्म को तो रसातल में पहुँचा दिया किंतु शैवधर्म की ये शाखायें न तो दार्शनिक स्तर पर, न मनोवैज्ञानिक स्तर पर और न ही राजनीतिक स्तर पर इस्लाम से टक्कर लेने में समर्थ थीं। शाक्तधर्म जैनधर्म की भी दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक एवं राजनीतिक स्तर पर यही स्थिति थी।
जिस समय इस्लाम भारत का द्वार खटखटा रहा था, उस समय दक्षिण भारत में 6ठी से 9वीं शताब्दी के बीच आलवार संतों का उदय हुआ। इन संतों की तीन सौ साल लम्बी एक सुदीर्घ परम्परा में 12 संद हुए। ये सभी तमिल भाषा के प्रसिद्ध कवि एवं सन्त थे।
आलवार संतों के पदों का संग्रह ‘दिव्य प्रबन्ध’ कहलाता है जिसे दक्षिण भारत में ‘वेदों’ के तुल्य माना जाता है। आलवार सन्त ही वस्तुतः भक्ति आन्दोलन के जन्मदाता माने जाते हैं। ये लोग भगवान विष्णु या नारायण की उपासना करते थे।
बाहर आलवार संत-कवियों के नाम इस प्रकार हैं- (1) पोय्गै आलवार, (2) भूतत्तालवार, (3) पेयालवार, (4) तिरुमालिसै आलवार, (5) नम्मालवार, (6) मधुरकवि आलवार, (7) कुलशेखरालवार, (8) पेरियालवार, (9) आण्डाल, (10) तोण्डरडिप्पोड़ियालवार, (11) तिरुप्पाणालवार तथा (12) तिरुमंगैयालवार।
आलवार संतों ने कहा कि प्रत्येक मनुष्य को भगवान की भक्ति करने का समान अधिकार है। इस बारह संतों में से कुछ निम्न कही जाने वाली जातियों में उत्पन्न हुए थे। ये लोग पूरे तमिल प्रदेश में पदयात्रा करके भगवान विष्णु की भक्ति का प्रचार करते थे। इनके भावपूर्ण लगभग 4000 गीत ‘मालायिर दिव्य प्रबन्ध’ नामक ग्रंथ में संग्रहित हैं। यह ग्रंथ भक्ति तथा ज्ञान का अद्भुत कोश है।
इस प्रकार जिस समय इस्लाम भारत भूमि पर चढ़कर आया, ठीक उसी समय दक्षिण भारत में भगवान ने आलवार संतों के रूप में विष्णुभक्तों के ऐसे शक्तिपुंज का बीजारोपण कर दिया जो आगे चलकर इस्लाम का सामना करने वाली थी किंतु विष्णुभक्ति की इस धारा को दक्षिण से चलकर उत्तर भारत में पहुंचने में कुछ समय की आवश्यकता थी।
जब मुस्लिम आक्रांता हिन्दुकुश पर्वत को रौंदते हुए और पंजाब को कुचलते हुए गंगा-यमुना के मैदानों में घुसने लगे तब उनका सामना करने के लिये चार क्षत्रियवंश सामने आये। इन्हें प्रतिहार, परमार, चाहमान तथा चौलुक्य के नाम से जाना गया। इन चारों राज्यवंशों ने आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक मुस्लिम आक्रमणकारियों का सामना किया एवं उन्हें भारतभूमि में राज्य स्थापित नहीं करने दिया।
दुर्भाग्य से इन चारों शक्तियों ने बाह्य आक्रमणों के विरुद्ध अपनी शक्ति लगाने के साथ-साथ आपस में भी एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति रखी। इस कारण ये तीन सौ वर्ष की अवधि में ये चारों शक्तियां इस्लाम के हाथों बुरी तरह पराजित हुईं।
ई.1001 मंे महमूद गजनवी ने पंजाब के राजा जयपाल को परास्त कर बुरी तरह अपमानित किया। अपमानित जयपाल जीवति ही अग्नि में प्रवेश कर गया। इस घटना से भारतवर्ष की आत्मा कांप उठी। ई.1008 में जयपाल के पुत्र आनंदपाल ने दिल्ली, अजमेर, कन्नौज, कालिंजर तथा ग्वालिअर आदि राजाओं से सहायता प्राप्त कर महमूद गजनवी का मार्ग रोका किंतु भारतीय राजाओं का यह समूह मुस्लिम आक्रांता के हाथों बुरी तरह पराजित हुआ।
ई.1018 में महमूद गजनवी ने मथुरा को तोड़ा। अगले ही वर्ष गजनवी फिर लौट कर आया। इस बार उसने कन्नौज के दस हजार मंदिरों को तोड़ा। ई.1025 तक वह लगातार आक्रमण करता रहा।
ई. 1175 से भारत भूमि पर मुहम्मद गौरी के आक्रमण आरंभ हुए। उसने भारत पर सत्रह आक्रमण किये। हर बार वह बड़ी संख्या में भारतीय स्त्री-पुरुषों एवं बच्चों को पकड़ कर ले गया। हर बार उसने भारत में भयानक मारकाट मचायी। हर बार उसने लाखों गायों की हत्या की।
ई.1193 में मुहम्मद गौरी ने दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान की हत्या कर दी जिससे भारत भूमि पर मुस्लिम शासन स्थापित हो गया। इससे राष्ट्र की आंतरिक परिस्थितियों में पूरी तरह बदलाव आ गया। राष्ट्र को अब बाहर से आने वाले आक्रांताओं से सामना नहीं करना था। अपितु आक्रांता ही अब देश के शासक थे।
मुहम्मद गौरी की सेनाओं ने राष्ट्र के आत्म-गौरव एवं देवालयों को भारी क्षति पहुंचायी। बड़ी संख्या में लोगों को बलपूर्वक इस्लाम ग्रहण करने के लिये बाध्य किया। हजारों-लाखों ब्राह्मण मौत के घाट उतार दिये, लाखों स्त्रियों का सतीत्व नष्ट किया, देवप्रतिमाओं का खण्डन किया, धर्म ग्रंथों को नष्ट किया तथा तीर्थ स्थान अपवित्र कर दिये।
मंदिर एवं पाठशालायें ध्वस्त करके उनमें मस्जिदें बना दीं। लाखों लोग पराधीन और असहाय स्थिति में अपना धर्म त्यागने को विवश हो गये। संपूर्ण राष्ट्र में हाहाकार मच गया। हिन्दू धर्म विनाश के कगार पर आ खड़ा हुआ।
जब राज्य शक्ति राष्ट्र एवं धर्म की रक्षा करने में असमर्थ रही तो जन सामान्य ने आध्यात्मिक शक्ति का सहारा ढूंढा। अतः राष्ट्र को एक ऐसे धर्म की आवश्यकता अनुभव हुई जो जागतिक स्तर पर स्वधर्म में बने रहने के लिये आवश्यक मनोबल प्रदान कर सके, मनोवैज्ञानिक स्तर पर संकट के समय अपनी तथा अपने परिजनों की रक्षा के लिये ईश्वरीय सहायता का भरोसा प्रदान कर सके तथा पारलौकिक स्तर पर आत्म कल्याण का विश्वास उपलब्ध करवा सके।
ऐसे कठिन समय में वैष्णव आचार्यों द्वारा जनसामान्य को ईश्वर के सगुण साकर स्वरूप की भक्ति की ओर प्रेरित किया गया। इस हेतु रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैतवाद की, माध्वाचार्य ने द्वैतवाद की, निम्बार्काचार्य ने द्वैताद्वैतवाद की और महाप्रभु वल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैतवाद की प्रतिष्ठापना की। इन मतों की स्थापना आठवीं शताब्दी में शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैतवाद के सिद्धांत की प्रतिक्रिया के रूप में की गयी किंतु अब वे मत इस्लाम से लड़ने के प्रमुख हथियार बन गए थे।
शंकराचार्य के मायावाद और रहस्यवाद को काटकर सहज सुलभ भक्ति मार्ग का प्रतिपादन करने के लिये रामानुजाचार्य ने श्री संप्रदाय की स्थापना की। चौदहवीं शताब्दी में इस संप्रदाय के प्रधान आचार्य राघवानंद हुए, उन्होंने वैष्णव संत रामानंद को श्री संप्रदाय का प्रमुख बनाया। रामानंद ने बैकुण्ठवासी विष्णु के स्थान पर पृथ्वीलोक पर लीला करने वाले राम को अपना इष्ट बनाया। तुलसी इस परंपरा के सबसे बड़े उत्तराधिकारी सिद्ध हुए।
माध्वाचार्य ने विष्णु-भक्ति का, निम्बार्काचार्य ने राधा और श्रीकृष्ण की भक्ति का प्रचार किया। वल्लभाचार्य ने बालश्रीकृष्ण की उपासना पर बल दिया और पुष्टि मार्ग का प्रवर्तन किया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जन्म ईसा की चौदहवीं शताब्दी में वैष्णव संत रामानंद के जन्म से पहले भारत भूमि पर मुस्लिम आक्रांता शासन कर रहे थे जो हिन्दुओं को इस्लाम में लाने के लिए भयानक अत्याचार कर रहे थे। उनका सामना करने के लिए न केवल राजनीतिक स्तर पर अपितु अध्यात्मिक स्तर पर भी हलचल तेज थी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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