सरदार वल्लभ भाई इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि बैरिस्ट्री की परीक्षा में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर लेना अलग बात है तथा उस परीक्षा के बाद अपनाए जाने वाले व्यवसाय में सफलता प्राप्त करना अलग बात है। चूंकि अब उन्हें भारत लौटकर बैरिस्ट्री ही करनी थी इसलिए उसे ध्यान में रखते हुए व्यावसायिक सफलता के गुर सीख लिये वल्लभभाई ने!
बैरिस्ट्री की परीक्षा तो उत्तीर्ण हो गई किंतु उपाधि मिलने में अभी कुछ समय था। इसलिये सरदार ने लंदन में अपने प्रवास को नये ढंग से बिताने का निर्णय लिया। उन्होंने लंदन के न्यायालयों में जाकर उनकी व्यवस्था एवं कार्यप्रणाली का बारीकी से अध्ययन किया। एक पराधीन देश के न्यायालयों में चल रही कार्यप्रणाली और शासक देश के न्यायालयों में चल रही कार्यप्रणाली में दिन-रात का अंतर था।
वल्लभभाई ने इस अंतर और उसके कारणों को समझा। वल्लभभाई ने लंदन की सामाजिक व्यवस्था और नागरिक अधिकारों का अध्ययन किया। उन्हें यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि जो अंग्रेज दुनिया भर में लोगों के नागरिक अधिकारों का हनन करते फिरते थे, वे अपने देश में नागरिक अधिकारों के लिये कितने अधिक सजग और तत्पर थे!
वल्लभभाई ने अंग्रेजों के रहने, खाने, चलने, बोलने तथा परस्पर व्यवहार करने के तरीकों को भी गहराई से परखा। उन्होंने अंग्रेजों की तरह खाने-पहनने का तरीका सीख लिया और उसे पूरी तरह अपना भी लिया किंतु वे आजीवन शाकाहारी बने रहे। वे व्यावसायिक सफलता के समस्त गुर सीख गये। अब भारत में शायद ही कोई वकील था जो इस दृढ़ निश्चयी, घनघोर परिश्रमी तथा अद्भुत प्रतिभाशली बैरिस्टर का सामना कर सके। जिस युवक की पत्नी मर गई थी, बच्चे एक अंग्रेज महिला के संरक्षण में अपना बचपन व्यतीत कर रहे थे, जिसने जीवन भर निर्धनता से संघर्ष किया था, जिसने अपनी समस्त अर्जित सम्पत्ति अपने भाइयों को अर्पित कर दी थी और जिसने हाड़तोड़ परिश्रम से कभी मुंह नहीं चुराया था, उसका सामना भला कोई कर भी कैसे कर सकता था !
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता