उषा के आगमन के साथ ही रानी मृगमंदा, निर्ऋति तथा हिन्तालिका से विदा लेकर प्रतनु सीधा मोहेन-जो-दड़ो की ओर बढ़ा। उष्ट्र के न होने से उसे यह मार्ग पैदल ही पार करना था। अतः इस बार की यात्रा में समय भी अधिक लगने की संभावना थी। दीर्घ समय तक नागलोक में निवास करने के कारण प्रतनु उस मार्ग को बिल्कुल भूल चुका था जिस पर चलता हुआ वह मोहेन-जो-दड़ो से यहाँ तक पहुँचा था। फिर भी उसका विचार था कि दिशा का अनुमान करके तथा अतिरिक्त सावधानी रखकर वह पहले की अपेक्षा कुछ न्यूनाधिक समय में मोहेन-जो-दड़ो तक पहुँच सकता था।
प्रारंभ का अधिकतर मार्ग पर्वतीय उपत्यकाओं में था जहाँ कदम-कदम पर नदी नाले और झरने उसके सहचर थे। आगे का मार्ग नितांत मैदानी क्षेत्र में था जहाँ सघन वनावली का प्रसार था। पूरे मार्ग में जल और आहार की कमी नहीं थी। प्रतनु ने अनुभव किया कि इस मार्ग पर दिन में यात्रा करना अधिक सुगम्य था। रात्रि में वन्य पशुओं के खतरे के कारण उसे किसी ऊँचे वृक्ष की स्थूल शाखाओं पर आश्रय लेना पड़ता था। फिर भी वह अपनी यात्रा प्रातः शीघ्र ही आरंभ कर देता था और संध्या समय में विलम्ब तक चलता रहता था।
नागलोक से निकल कर छः दिन तक वह बिना किसी बाधा के चलता रहा। सातवें दिन मध्याह्न के पश्चात घनघोर बादल छा गये और देखते ही देखते मूसलाधार वर्षा होने लगी। चारों ओर से घिर कर आये श्यामवर्णी बादलों ने जैसे क्रोधित होकर उस भू-क्षेत्र को घेर लिया जिससे घनघोर अंधेरा छा गया। लगता था वरुण अपने बादल रूपी शकटों को पूरी तरह भर कर लाया था और समस्त जल यहीं बरसा देना चाहता था। वर्षा की बूंदो के प्रहार से बचने के लिये सघन वृक्ष को खोजता हुआ प्रतनु मार्ग भटक गया और दिशा बदल कर दक्षिण के स्थान पर पश्चिम में बढ़ गया। ऐसी विकट वर्षा प्रतनु ने अपने जीवन में पहले कभी नहीं देखी थी। सहस्रों जल धारायें बह निकलीं। जिन्हें पार कर आगे बढ़ना कठिन हो गया। काफी देर तक प्रतनु एक विशाल वृक्ष के नीचे आश्रय लिये रहा। जब वर्षा पूरी तरह थम गयी तो उसने अपनी यात्रा पुनः आरंभ की।
वर्षा थम जाने के बाद भी सूर्यदेव दिखाई नहीं दिये किंतु बादलों से छनकर आने वाले प्रकाश में प्रतनु किसी तरह आगे बढ़ता रहा। रात्रि में भी आकाश की यही स्थिति रही। लगता था चंद्रमा सहित समस्त नक्षत्र वर्षा काल जानकर भीग जाने के भय से गगन विहार के लिये आये ही नहीं। बहुत प्रयास के उपरांत भी जब प्रतनु दिशा निर्धारण करने तथा आगे चल सकने में समर्थ नहीं हुआ तो उसने हार-थक कर एक वट वृक्ष का आश्रय लिया किंतु तब तक वह मार्ग भटक कर काफी दूर तक चल चुका था।
यहाँ मृगमंदा के मायावी उपवन की भांति अशोक, बकुल, चम्पक, शिरीष, पुन्नाग, अरिष्ट तथा कुरबक के वृक्ष नहीं थे। कुरण्ट, नवमालिका, सिन्धुवार और कुन्द पुष्पों के गुल्म भी नहीं थे। यहां करवीर के मनोहारी सुगंधित झाड़ भी नहीं थे जिनके निकट बनी चैकियों पर बैठकर रानी मृगमंदा की अनुचरियाँ नागस्वरम्, वाण, वेणु, मृदंग और आघाटि वादन करतीं थीं। इस निर्जन वन में चारों ओर नीलगिरि, अश्वत्थ और वटवृक्षों की भरमार थी जिनकी सघनता के कारण वन दुरूह हो गया जान पड़ता था।
नीलगिरी का वृक्ष मनुष्य तो मनुष्य पक्षियों तक के आश्रय के लिये भी श्रेयस्कर नहीं होता। अश्वत्थ पर आश्रय लेना उसने उचित नहीं समझा। उसने सुना था कि अश्वत्थ पर अशरीरी जीवों का वास रहता है जो रात्रि में अधिक सक्रिय रहते हैं। वटवृक्ष पर आश्रय करने में दो समस्याएं हैं एक तो वटवृक्ष पर चढ़कर बैठना संभव नहीं दूसरे वट पर सर्प आदि भी आश्रय ले लेते हैं।
सब बातों पर विचार करने के उपरांत प्रतनु ने वटवृक्ष के नीचे ही आश्रय लेना अधिक उचित समझा। कुछ खोजने पर उसे वृक्ष की विशाल जटाओं से बन गयी कोटर जैसी एक आकृति दिखाई दे गयी। उसी कोटर में प्रतनु को छिपकर बैठने के लिये पर्याप्त स्थान मिल गया, जिससे कि प्रतनु के निद्रा में होने पर कोई वन्य पशु अचानक उस पर आक्रमण न कर दे। कोटर में आश्रय लेने से यह लाभ भी हुआ कि वटपत्रों से गिरती बूंदों और शीत से भी प्रतनु का बचाव हो गया। ग्रीष्म होने के कारण उसके साथ रोमयुक्त मेष-चर्म भी नहीं था जो शीत से प्रतनु का बचाव करता।
पर्याप्त रात्रि हो जाने के उपरांत भी वृक्षों पर बैठे पक्षियों की फड़फड़ाहट समाप्त नहीं हो रही थी। सघन वर्षा के कारण कई पक्षी अपने डेरों पर नहीं लौटे थे जिनकी प्रतीक्षा में उनके साथी पक्षी व्याकुल होकर पंख फड़फड़ाते हुए तीव्र शब्द उत्पन्न कर रहे थे। बहुत से पक्षी अपने वृक्षों को ढूंढते हुए एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष तक उड़ रहे थे। लगता था आज की रात वन सोयेगा नहीं।
प्रतनु ने अनुभव किया कि सर्वत्र व्याप्त निविड़ अंधकार में रह-रह कर उत्पन्न होती पक्षियों की चीखें और उनकी अकुलाहट भरी फड़फड़ाहट ही वातावरण को भयावह बना देने के लिये पर्याप्त थी किंतु यहाँ तो प्रकृति ने भयावहता में अभिवृद्धि के अनेक उपाय रच रखे थे। रह-रह कर वायु के झौंके वृक्षों को झकझोर जाते। वृक्षों की टहनियाँ पवन से रगड़ खाकर सांय-सांय करने लगतीं और वृक्ष-पत्रों पर अटके जल-बिन्दु पर्वतों से बहकर आने वाली जल धाराओं में गिरकर टप-टप की रहस्यमयी ध्वनि उत्पन्न करते।
ऐसे में चिच्चिक और वृषारव भला कैसे पीछे रहते! प्रतनु को रानी मृगमंदा द्वारा नागों के संगीत वाद्ययंत्र आघाटि के सम्बन्ध में कही गयी उक्ति का स्मरण हो आया- ”जब चिच्चिक वृषारव के प्रत्युत्तर में बोलता है, तब अरण्यानी आघाटि की भांति ध्वनि करता हुआ पूजित होता है।”
चिच्चिक और वृषारव तो वही हैं किंतु यहाँ उनके परस्पर संवाद से आघाटि के स्वर उत्पन्न नहीं हो रहे। यहाँ तो वे वन की भयावहता में वृद्धि करने के उपकरण बने हुए हैं।प्रतनु को लगा कि इस समय वन में जो कुछ भी सजीव अथवा निर्जीव रचना उपस्थित है वह पूरे मनोयोग से वन की भयावहता में वृद्धि करने में योग दे रही है। वन की भयावहता में वृद्धि करने के लिये ही सहस्रों-सहस्र झिंगुर, दादुर और पपीहे शक्ति भर जोर लगाकर चीख रहे हैं। दूर ही कहीं श्रृगालों का गुल्म हुआँ-हुआँ करके चिल्ला रहा है। बीच-बीच में हिंस्रक वन्यपशुओं की चिंघाड़ भी वन को झिंझोड़ रहीं है। अपनी प्रकृति के विरुद्ध प्रतनु को अनजाने भय ने घेर लिया।
आकाश में नक्षत्र उपस्थित होते तो प्रतनु उन्हें ताकते रहकर समय व्यतीत कर सकता था किंतु घनघोर अंधकार के कारण आकाश विकराल कज्जल के वितान में परिवर्तित हो गया प्रतीत होता था जिसके आर-पार कुछ दिखाई नहीं देता था। खद्योतों के उड़-उड़ कर एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष तक जाने के उपक्रम में यदा-कदा जो क्षीण प्रकाश उत्पन्न होता था उसमें दैत्याकार वृक्ष और भी भयावह दिखाई देते थे।
प्रतनु ने अनुभव किया कि इस वट वृक्ष पर चमगादड़ों का बड़ा डेरा था जो विकराल रात्रि के निविड़ अंधकार से उत्साहित होकर दुगुने-चैगुने वेग से शब्द करती हुई मण्डरा रहीं थीं। चमगादड़ों की भांति उल्लूकों की भी आज बन आई थी, उनके उत्साह का पार न था। वे रह-रह कर अशुभ चीत्कार करते थे। वटवृक्ष की कोटर में बैठा प्रतनु प्रातः होने की प्रतीक्षा में आंखें फाड़-फाड़ कर अपनी चेतना पर हावी होते अंधकार और भय से लड़ता रहा।
पहले की यात्राओं में उष्ट्र उसके साथ रहा था जिससे वह अपने आप को निपट एकाकी एवं असहाय अनुभव नहीं करता था। एकांत के क्षणों में वह मूक पशु भी बहुत बड़ा सम्बल सिद्ध होता था जिससे वह कुछ पूछ तो नहीं सकता था किंतु कुछ कह तो सकता था। सचमुच ही इस विकट वन की घनघोर अंधेरी रात्रि में प्रतनु को न तो सैंधव नृत्यांगना रोमा, न नागों की रानी मृगमंदा, न निर्ऋति और न हिन्तालिका, किसी का स्मरण नहीं आया। स्मरण आया तो केवल मात्र वह उष्ट्र जिसके अभाव में वह अपने आप को निपट एकाकी, नितान्त असहाय और दयनीय अनुभव कर रहा था। जाने उस उष्ट्र का क्या हुआ होगा! निश्चय ही वह अब तक वन्यपशुओं का भोजन बन चुका होगा।
संभवतः रात्रि के अंतिम प्रहर में अथवा उससे कुछ पूर्व उसकी आँख लगी। जाने कितनी देर तक वह सोता रहा, प्रतनु को अनुमान नहीं हुआ। जब उसकी नींद खुली तो वह विचित्र और भयावह दिखाई देने वाले प्राणियों से घिरा हुआ था। उनके मुख श्वान के सदृश दिखाई देते थे। वे पूर्णतः निर्वस्त्र थे। उनकी देह कज्जल के सदृश काली और अन्य प्रजाओं की अपेक्षा कहीं अधिक विशाल और पतली थी। सिर के बाल मेष ऊष्ण की भांति अत्यंत पतले, विरल और लम्बे थे तथा घुंघरुओं की तरह वलयकार होकर सिर से ही चिपके हुए थे। उनके हाथों में नुकीले काष्ठ दण्ड थे। [1] सबसे आगे खड़ा हुआ प्राणी उनका मुखिया जान पड़ता था।
झटके से उठ बैठा प्रतनु। किन लोगों के बीच आ गया वह! कौन हैं ये लोग! उसे घेर कर क्यों खड़े हैं! कहीं ये पिशाच तो नहीं! प्रतनु ने सुना था कि घने एवं दुर्गम वन प्रांतरों में जहाँ अन्य प्रजाओं का आवागमन नहीं है, पैशाचिक प्रजायें रहती हैं। तो क्या वह पिशाचों की भूमि में आ पहुँचा है। प्रतनु ने अनुभव किया कि पीड़ा से उसका हाथ दर्द कर रहा है। संभवतः वीभत्स दिखाई देने वाले श्वान मुखी पिशाचों ने प्रतनु को जगाने के लिये किसी नुकीली चीज से कोंचा था।
प्रतनु को उठा हुआ देखकर वे लोग विचित्र भाषा में चीख-चीख कर बोलने लगे। संभवतः प्रतनु को कुछ आदेश दे रहे थे। प्रतनु नहीं जानता था कि यह कौनसी भाषा है और किस क्षेत्र की प्रजा द्वारा बोली जाती है। प्रतनु ने अनुभव किया कि भले ही वे पिशाच हों अथवा अन्य कोई प्रजा किंतु वे प्रतनु से भयभीत तो किंचित् मात्र भी नहीं हैं। संभवतः इसका कारण यह था कि वीभत्स दिखाई देने वाले प्राणी स्वयं को संख्या बल में अधिक जानकर सुरक्षित अनुभव कर रहे थे।
प्रतनु वटवृक्ष की हवा में लटकती जड़ों में बनी कोटर से बाहर आया। जैसे ही वह कोटर से बाहर निकला, विचित्र और वीभत्स दिखाई देने वाले उन श्वान मुखी पिशाचों ने प्रतनु को कसकर दबोच लिया और उसके हाथ-पैर एक मजबूत लता की सहायता से एक मोटे काष्ठ दण्ड से बांध दिये। असहाय होकर रह गया प्रतनु। काष्ठ दण्ड को दो पिशाचों ने अपने कंधे पर इस तरह रख लिया मानो मृत-पशु का शव ढोकर ले जा रहे हों। प्रतनु ने विरोध करना चाहा तो पिशाचों के मुखिया ने उसे नुकीली काष्ठ से कोंचा। प्रतनु असह्य पीड़ा से कराह उठा। उसने समझ लिया कि इन वीभत्स प्राणियों का प्रतिरोध करना उसके लिये संभव नहीं।
रास्ते भर पिशाच परस्पर वार्ता में निमग्न रहे थे, एक पल को भी चुप नहीं रहे थे। उनकी कोई बात प्रतनु के पल्ले नहीं पड़ी थी किंतु वे बार-बार मुखिया दिखाई देने वाले पिशाच को टिमोला कह कर पुकार रहे थे। प्रतनु ने अनुमान किया कि या तो उस पिशाच का नाम टिमोला है या फिर ये पिशाच ‘मुखिया’ अथवा ‘राजा’ जैसे किसी शब्द के लिये टिमोला शब्द काम में लाते हैं।
काफी देर तक घुमावदार मार्गों पर चलते रहने के बाद वीभत्स पिशाच अत्यंत सघन वृक्षों से घिरे एक भूखण्ड में पहुँचे, जहाँ उनके जैसे सैंकड़ों पिशाच मौजूद थे। प्रतनु ने अनुमान लगाया कि यह स्थान ही श्वान-मुखी पिशाचों का पुर है। आश्चर्य से जड़ होकर रह गया प्रतनु इस पुर को देखकर। इस तरह के आवास भी कोई प्रजा अपने निवास के लिये बना सकती है, सोचा भी नहीं जा सकता था। उसने देखा कि सघन वनावली में काष्ट एवं वनस्पति की सहायता से बनी हुई अत्यंत भद्दी झौंपड़ियाँ इधर-उधर छितरी हुई थीं जिनकी छत पृथ्वी से कुछ ही ऊपर उठी हुई थी। इन झौंपड़ियों में कोई भी प्राणी सीधा खड़ा होकर प्रवेश नहीं कर सकता था।
कुछ ही पलों में पूरी बस्ती को सूचना हो गयी कि टिमोला किसी विचित्र प्राणी को बांध कर लाया है। इस सूचना से झौंपड़ियाँ हिलने सी लगीं। प्रतनु ने देखा कि वीभत्स आकृति वाले श्वान मुखी स्त्री, पुरुष और बच्चे झौंपड़ियों से रेंग-रेंग कर बाहर निकलने लगे। थोड़ी ही देर में वे सैंकड़ों की संख्या में प्रतनु को घेर कर खड़े हो गये।
प्रतनु को देखकर वे अत्यंत ही विचित्र ध्वनि उत्पन्न करते थे जो शृगालों की हू-हू से काफी साम्य रखती थी। वीभत्स चेहरे वाले पुरुषों ने प्रतनु के वस्त्रों को कौतूहल से टटोल-टटोल कर फाड़ डाला। थोड़ी ही देर में वह भी पिशाचों की तरह पूरी तरह से निर्वस्त्र था। प्रतनु ने अनुमान लगाया कि अब वह किसी तरह से यहाँ से भाग जाने में सफल हो भी जायेगा तो बिना वस्त्रों के सभ्य समाज में नहीं जा सकेगा।
वीभत्स चेहरों वाली स्त्रियों ने प्रतनु को छूकर देखा। उनके खुरदरे हाथ प्रतनु को अपने कोमल गात पर काँटें जैसे अनुभव हो रहे थे। उनके श्वानमुखी चेहरों से वीभत्सता टपक रही थी। कुछ स्त्रियाँ तो प्रतनु के माँस का आस्वादन करने को इतनी उतावली थीं कि उनकी जिव्हा बाहर निकल आई और उनसे लार टपकने लगी। एक मादा पिशाच ने तो सचमुच ही अपने श्वान जैसे तीक्ष्ण दंत प्रतनु की देह में गड़ा दिये। रक्त के कुछ बिन्दु प्रतनु की कोमल देह पर छलछला आये जिन्हें उस मादा पिशाच ने अत्यंत आतुरता से चाट लिया। अदम्य पीड़ा से चीख पड़ा वह।
प्रतनु के स्वादिष्ट रक्त का स्वाद पाकर तो मादा पिशाच नियंत्रण से बाहर हो गयी। उसने फिर से अपने तीक्ष्ण दंत प्रतनु की देह में गड़ा दिये। अन्य पिशाचों ने उसे बलपूर्वक वहाँ से हटाया। प्रतनु समझ गया कि वह जिन नर-भक्षी पिशाचों के हाथ लग गया है उनसे छुटकारा पाना कठिन है। इनके हाथ लग जाने का अर्थ है साक्षात् मृत्यु को प्राप्त कर लेना।
पिशाचों के बच्चों को तो प्रतनु के रूप में क्रीड़ा की नवीन सामग्री प्राप्त हो गयी प्रतीत होती थी। वे उस पर कंकर, मिट्टी के ढेले और काष्ठ खण्ड उठा-उठा कर फैंकते और प्रतनु के चेहरे पर उत्पन्न होने वाले पीड़ा के भावों को देखकर आनंदित होते। जब तक सूर्य अस्ताचल को नहीं पहुँच गया, यही क्रम चलता रहा। अंत में जब पीड़ा सहन शक्ति से बाहर हो गयी तो प्रतनु मूच्र्छित हो गया।
जाने कब तक मूच्र्छित रहा वह! जब चेतना लौटी तो अपने आप को जीवित पाकर उसे आश्चर्य हुआ। उसने देखा आकाश में चंद्रमा नक्षत्रों सहित विहार करने आ गया था। जिसका क्षीण प्रकाश सघन वृक्षों की पत्तियों से छन-छन कर प्रतनु की निर्वस्त्र देह और देह पर बने व्रणों पर पड़ रहा था। वरुण का कोप शांत हो जाने से यद्यपि आज की रात्रि विगत रात्रि की तरह भयावह नहीं थी किंतु जितने भय और कष्ट में वह आज था आज से पहले किसी भी रात्रि में नहीं रहा था। अब भी उसके दोनों हाथ और दोनों पैर पूरी मजबूती से काष्ठ दण्ड से बंधे थे, वह अपने स्थान से यव भर भी नहीं हिल सकता था।
प्रतनु ने अनुमान किया कि श्वान-मुखी पिशाचों के लिये वह पशु से अधिक महत्व नहीं रखता था। अंतर था तो केवल इतना कि वे उसे तुरंत न खाकर अवसर विशेष पर अथवा समारोह पूर्वक खाना चाहते थे क्योंकि प्रतनु उनके लिये ऐसा पशु था जिसका मांस उन्हें यदा-कदा ही खाने को मिलता था। यह भी संभव था कि कुछ विशिष्ट पिशाचों द्वारा ही उसका भक्षण किया जाये क्योंकि प्रतनु की देह में इतना मांस उपलब्ध नहीं था जिससे सैंकड़ों पिशाचों का उदर भर सके। संभवतः इसी कारण अब तक उसे मारा नहीं गया था।
प्रतनु का अनुमान सही था। रात्रि भर वह उसी काष्ठ दण्ड से मृत पशु की भांति बंधा रहा। पिशाचों की प्रजा में विशिष्ट महत्व रखने वाले शक्तिशाली टिमोला और उसके साथ हर विपत्ति में साथ रहने वाले कतिपय बलिष्ठ पिशाच ही स्वयं को नर-मांस भक्षण के योग्य समझते थे किंतु अन्य पिशाचों के दांत भी प्रतनु के विशिष्ट मांस पर थे। सारे पिशाच उसके कोमल मांस का स्वाद लेना चाहते थे। पिशाचों की प्रजा का नियम भी यही था कि जब कोई शिकार पकड़ा या मारा जाता था तो उसे समस्त पिशाच प्रजा अपना भक्ष्य बनाती थी किंतु इस शिकार की बात और थी। इसका सुस्वादिष्ट मांस टिमोला अकेले ही खाना चाहता था किंतु अपने बलिष्ठ अनुचरों को कुपित न कर सकने के कारण वह उन्हें इसमें से कुछ भाग देने को तैयार था किंतु यदि समस्त पिशाच प्रजा साधारण शिकार की तरह प्रतनु को खाने बैठ गयी तो टिमोला और उसके साथियों के हाथ क्या आयेगा!
टिमोला और उसके साथियों ने अन्य पिशाचों का ध्यान प्रतनु की तरफ से हटाने के लिये अगले दिन एक योजना बनाई। टिमोला ने अपने बलिष्ठ साथियों को वन से अधिक से अधिक संख्या में पशुओं का शिकार करके लाने को कहा ताकि अन्य पिशाचों को उनके भक्षण में लगा कर वे प्रतनु को अपने लिये बचा लें।
दिन का तीसरा प्रहर समाप्ति पर था कि टिमोला के बलिष्ठ साथी अपने मजबूत स्कंधों पर वन्य पशुओं के शव ढो-ढोकर लाने लगे। महिष,[2] शूकर,[3] हरिण, शशक [4] आदि वन्य पशुओं को प्रस्तरों और नुकीले काष्ट से मारा गया था। उनकी क्षत-विक्षत देह से रक्त की धारायें बह रही थीं। प्रतनु ने देखा कि कुछ पिशाच विशालाकाय कछुओं को अपनी पीठ पर लादे हुए हैं। कुछ पिशाचों के हाथों में बड़े-बड़े मत्स्य लटकाये हुए हैं तो कुछ के हाथों में कछुओं के बड़े-बड़े अण्डे भी लगे हुए हैं।
बड़ी मात्रा में पशु-मांस और कछुओं के अण्डों को देखकर पिशाचों के पुर में उत्सव का सा वातावरण उत्पन्न हो गया। कुछ बलिष्ठ पिशाच नारियल और ताड़ के ऊँचे वृक्षों पर चढ़ गये और वहां से ढेरों नारियल तोड़-तोड़ कर नीचे फैंकने लगे। कुछ पिशाचों ने ताड़-वृक्षों पर पहले से लटकाये गये विशालाकाय कछुओं के खोलों को सावधानी पूर्वक नीचे उतारा। ये खोल ताड़-रस से पूर्णतः भरे हुए थे।
टिमोला और साथियों ने आज ताड़-रस भी भारी मात्रा में पेड़ों से उतरवाया। यह समस्त सामग्री एक विशाल गड्ढे के पास रख दी गई। शाम होते ही एक गड्ढे में शुष्क काष्ठ खण्ड भरकर अग्नि लगाई गई। सैंकड़ों पिशाच खड्ड में प्रज्वलित अग्नि को घेर कर नाचने और विभिन्न पशुओं के मांस को भून-भून कर खाने लगे। शीघ्र ही ताड़ी अपना प्रभाव पिशाचों पर दिखाने लगी और वे परस्पर गाली-गलौच करते हुए झगड़ने लगे। एक दूसरे के हाथ से मांस खण्ड छीनकर खाते हुए पिशाच अत्यंत वीभत्स और अशुभ दृश्य उत्पन्न कर रहे थे।
पिशाचों ने अपने पैरों में नारियल के खोल बांध रखे थे जिनमें तेज आवाज उत्पन्न करने वाले कंकड़ भरे हुए थे। अचानक कुछ पिशाचों ने गायन आरंभ किया-
ओगराई आयाहि ऽ ऽ ऽ वोईतोया ऽ ऽ [5]
तोया ऽ ऽ इ ग्रणानोह व्यदा तो या ऽ ऽ इ ।
तोया ऽ ऽ इ नाइहोतासा ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ
त्सा इबा ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ औहोबा हीं ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ षी।
पहले तो प्रतनु की समझ में कुछ नहीं आया किंतु कुछ ही क्षणों में कुछ शब्द उसके मानस पटल पर प्रत्यय [6] बनाने लगे। चैंक पड़ा प्रतनु पिशाचों के गायन को सुनकर। ऐसा ही, हाँ ठीक ऐसा ही गायन तो प्रतनु ने नाग कन्याओं के तूर्य आयोजन के समय सुना था। तो क्या नागों और पिशाचों के मध्य किसी प्रकार का सम्पर्क है! आशा की एक किरण प्रतनु के हृदय में उदित हुई और अगले ही पल बुझ गयी। भला पिशाचों और नागों के मध्य किसी प्रकार का सम्पर्क कैसे हो सकता है! कहाँ नागों की अत्यंत विकसित सभ्यता और कहाँ अत्यंत हीन स्तर पर विद्यमान पिशाच! जाने कहाँ पिशाचों ने नागों का यह गायन सुना और उसे पैशाचिक शैली में ढालकर अपना लिया। निऋति ने बताया था कि नागों में भी यक्षों, गंधर्वों और आर्यों के समान साम गायन की परम्परा है। कौन जाने पिशाचों ने यह गायन नागों से न सुनकर यक्षों, गंधर्वों अथवा आर्य सामगायकों से सुना हो और उसे स्मरण रख लिया हो।
प्रतनु ने अनुभव किया कि पिशाचों की नृत्य और गायन कला पूरी तरह अविकसित होने के उपरांत भी पैशाचिक गायन में स्तोभाक्षरों [7] ‘हाऊ – – – हाऊ’ और ‘नोनि – – – नोनि’ का प्रयोग बड़े पैमाने पर हुआ है। ठीक वैसे ही जैसा कि सैंधव गायक ‘हुम् ऽ ऽ ऽ हाँ, हुम् ऽ ऽ ऽ हाँ’ तथा ‘अ ऽ र ऽ र ऽ र ऽ ‘ किया करते हैं। नागों की अति उन्नत गायन कला में भी ‘सं – – – नि – ध – – – प – । सं – – – नि – ध – – – प – ‘ स्तोभाक्षर उपस्थित हैं। यह दूसरी बात है कि सैंधव गायक तथा नाग गायक स्तोभाक्षरों का प्रयोग अत्यल्प मात्रा में करते हैं जबकि पिशाचों में स्तोभाक्षर ही मुख्य गायन पद है तथा साथ ही अत्यंत कर्कश भी। यही कारण है कि पिशाचों के स्तोभाक्षर आनंद के स्थान पर भय में वृद्धि कर रहे हैं।
आग की लपटों में चमकते पिशाचों के श्वान मुख अत्यंत भयावह दिखाई पड़ रहे थे। यह खड्ड प्रतनु से कुछ दूर पड़ता था फिर भी आग के प्रकाश में वहाँ चल रही प्रत्येक गतिविधि प्रतनु को स्पष्ट दिखाई दे रही थी। ऐसा वीभत्स दृश्य प्रतनु ने अपने जीवन में पहले कभी नहीं देखा था। जीवन से पूर्णतः निराश हो चले प्रतनु के स्मृति पटल पर शर्करा के तट पर बसा अपना पुर, पुर में रहने वाली अपनी माँ, सिंधु तट पर बसी राजधानी मोहेन-जो-दड़ो, मोहेन-जो-दड़ो में रहने वाली नृत्यांगना रोमा, पर्वतीय प्रदेश में पुष्पित-पल्लवित नागों का विवर, विवर में निवास करने वाली रानी मृगमंदा, निऋति और हिन्तालिका स्थिर प्रतिमाओं की भांति उभरने लगे।
प्रतनु को लगा कि ये सब उपक्रम अब उसके लिये व्यर्थ हो चले हैं। अब कभी वह मोहेन-जो-दड़ो नहीं लौट सकेगा। नृत्यांगना रोमा प्रतीक्षा ही करती रह जायेगी उसकी। न तो वह कभी अपने अपमान का प्रतिकार कर सकेगा और न रोमा को किलात के चंगुल से मुक्त करा सकेगा। उसके निश्चय यहीं तिरोहित हो जायेंगे।
अचानक प्रतनु को अपनी देह पर कोई खुरदरा स्पर्श अनुभव हुआ। उसने घबरा कर नेत्र खोल दिये। भय से प्रतनु का रक्त शिराओं में ही जम गया। उसने देखा कि कोई मादा आकृति उसकी देह पर झुकी हुई है और अपनी थूथन आगे करके श्वानों की भांति कुछ सूंघने का प्रयास कर रही है। प्रतनु को लगा कि यह वही मादा पिशाच है जो दिन में उसका मांस खाने को आतुर थी और जिसे बड़ी कठिनाई से अलग ले जाया गया था। प्रतनु को लगा कि जीवन का अंतिम क्षण आ पहुँचा है।
प्रतनु ने भय से नेत्र बंद कर लिये और अपने माता-पिता को स्मरण करने लगा जिन्हें वह बचपन से ही अत्यंत प्रेम करता आया है। प्रतनु को अपने माता-पिता दो अलग-अलग ध्येयों को पूरा करते हुए जान पड़ते थे। माता उसकी देह का पोषण करती थी और दिवस-रात्रि इसी उपक्रम में लगी रहती थी। जबकि पिता उसके मस्तिष्क का पोषण करते रहते थे और सदैव उसे नयी-नयी जानकारियाँ देते रहते थे। प्रतनु की तर्क शक्ति, विलक्षण शिल्प प्रतिभा और सृष्टि सम्बन्धी ज्ञान उसके पिता की ही देन थी। आज जीवन के अंतिम क्षणों में उन दोनों की ही दयालु प्रतिमाओं का स्मरण हो आया प्रतनु को।
प्रतनु की देह पर झुकी हुई मादा पिशाच मोएट थी। वह अपने साथियों की दृष्टि बचाकर इस तरफ चली आयी थी। मोएट जानती थी कि टिमोला और उसके साथियों ने आज का सारा आयोजन पिशाचों का ध्यान इस नर मांस की तरफ से हटाने के लिये किया है। पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था। वह तो ठीक था कि मोएट ने टिमोला और उसके साथियों की चाल को समझ लिया था इसलिये वह ताड़-रस पीकर बेसुध नहीं हुई थी और उसने टिमोला के साथ बैठकर नर मांस का आस्वादन किया था। आज भी वह नर मांस के पास इसी आशा में आ बैठी थी कि जब सारे पिशाच बेसुध हो जायेंगे तब टिमोला अपने साथियों के साथ इधर आयेगा। तब वह भी उनके साथ नर-मांस प्राप्त कर सकेगी। नर-मांस को इतने निकट और अकेला देखकर वह स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सकी थी किंतु टिमोला के भय से उसका भक्षण न करके गंध से ही तृप्त होने का प्रयास कर रही थी।
जब काफी देर तक प्रतनु को अपनी देह पर दांतों का अनुभव नहीं हुआ तो उसने फिर से नेत्र खोले। मादा पिशाच अब भी उसके निकट बैठी हुई उसकी देह को सूंघ रही थी। प्रतनु को लगा कि जिस प्रकार सैंधव शिशु अपने भोजन की गंध प्राप्त कर आनंदित होते हैं, उसी प्रकार यह नर-भक्षी मादा उसे त्रयम्बक [8] के समान सूंघ-सूंघ कर तृप्ति का अनुभव कर रही है। संभवतः टिमोला के भय से वह प्रतनु की देह में दांत नहीं गड़ा रही है।
प्रतनु ने अपने नेत्र पूरी तरह खोल दिये। श्वान-मुखी मादा पिशाच की पूर्णतः निर्वस्त्र वीभत्स देह प्रतनु की देह पर पूरी तरह झुकी हुई थी। उसने अपनी दोनों हथेलियाँ प्रतनु के शरीर पर ही टिका रखी थीं जिससे उसके लटकते हुए वीभत्स स्तन प्रतनु के शरीर को स्पर्श कर रहे थे। घृणा से झुरझुरी सी हो आई प्रतनु को। नर-मांस की गंध को पूरी तरह अपने फैंफड़ों में भर लेने के लिये मोएट की थूथन बार-बार विस्तृत और संकुचित हो रही थी। अपने फैंफड़ों को फुला-फुलाकर नरभक्षी मादा पूरी तरह तन्मय होकर प्रतनु की देह को सूंघ रही थी। उसकी समस्त चेतना उसकी घ्राण शक्ति में समा गयी प्रतीत होती थी।
जाने कितनी देर तक यह क्रम और चलता किंतु मोएट को कुछ पिशाचों ने प्रतनु के निकट बैठा हुआ देख लिया। वे अत्यंत अशुभ चीत्कार करते हुए मोएट की ओर दौड़े। मोएट को जाने क्या सूझा, उसने निकट पड़े तीक्ष्ण धार युक्त प्रस्तर से प्रतनु के हाथों का बंधन काट दिया और तेजी से चीत्कार करती हुई सघन वृक्षों के झुरमुट में विलीन हो गयी। मानो कहना चाह रही हो कि यदि मैं इसे नहीं खा सकूंगी तो तुम्हें भी नहीं खाने दूंगी। मोएट के चीत्कार का प्रत्युत्तर चीत्कार से ही देते हुए बीसियों पिशाच उसके पीछे दौड़े।
पिशाचों का चीत्कार सुनकर अग्नि के चारों ओर नाचते-झगड़ते पिशाच कुछ पलों के लिये स्थिर हो गये। उन्होंने समझा कि कोई वन्य पशु आ पहुँचा है। इसलिये वे सब तीक्ष्ण नोक युक्त काष्ठ दण्ड उठाये हुए उसी दिशा में दौड़े जिस दिशा में मादा नरभक्षी का पीछा करते हुए अन्य पिशाच दौड़े थे। अग्नि खड्ड के पास ताड़-रस पीकर बेसुध हुए पिशाच ही रह गये थे।
प्रतनु की देह का पोर-पोर पीड़ा से अवसन्न हो रहा था और उसमें इतनी शक्ति शेष नहीं रही थी कि वह इस अवसर का लाभ उठाये किंतु यदि वह इस समय चूक जाता है तो फिर शायद ही प्राण बचाने का अवसर मिले। व्यतीत होने वाले हर पल के साथ उसकी देह की शक्ति कम ही होनी थी। यदि कुछ करना है तो अभी अन्यथा कभी नहीं। प्रतनु ने देखा कि पिशाचों की दृष्टि उस पर नहीं हैं। वे अपने ही गुल-गपाड़े में लगे हुए हैं। प्रतनु ने साहस किया और अपने पैरों के बंधन भी खोल डाले। लगातार बंधे रहने के कारण हाथों में शोथ [9] हो आई थी जिससे बंधन खोलने में काफी कठिनाई हुई उसे।
बंधनों से मुक्त होकर प्रतनु ने खड़े होने का उपक्रम किया किंतु पैरों में शोथ हो जाने के कारण खड़ा नहीं हो सका। वह फिर से धरती पर गिर पड़ा। कुछ पल वैसे ही पड़ा रहा। उसने फिर से खड़े होने का प्रयास किया किंतु परिणाम वही रहा। घण्टों तक बंधे रहने के कारण रक्त ने अवरुद्ध होकर पैरों की तरफ प्रवाह ही बंद कर दिया था। प्रतनु फिर से निराश होकर गिर गया। कुछ पलों तक वह घनघोर निराशा के पंक में डूबा हुआ निढाल होकर पड़ा रहा।
कैसी विचित्र स्थिति थी! मस्तिष्क था जो शरीर को बचाना चाहता था किंतु शरीर था कि स्वयं को बचाने के लिये किंचित् भी साथ नहीं दे रहा था। अकेला मस्तिष्क प्राण बचाने में असमर्थ था। प्राण-रक्षा के लिये आवश्यक था कि मस्तिष्क और शरीर दोनों का समन्वय हो किंतु इस स्थिति में मस्तिष्क को ही कोई उपाय करना था, उसी पर यह दायित्व आन पड़ा था कि वह शरीर के अवरोध को दूर करे। अचानक एक उपाय उसके मस्तिष्क में आया। वह खड़ा नहीं हो सकता, भाग नहीं सकता किंतु सर्प की तरह रेंग तो सकता है!
प्राण-रक्षा का यही एक मात्र उपाय बचा था। प्रतनु ने सर्प की तरह रेंगना आरंभ किया। यह उपाय भी सरल सिद्ध नहीं हुआ फिर भी किसी तरह वह कुहनियों के बल घिसटता हुआ रेंगने लगा। उसने पिशाचों के दौड़कर जाने की विपरीत दिशा पकड़ी। वह चाहता था कि पिशाचों के लौट आने से पहले किसी ऐसे स्थान तक पहुँच जाये जहाँ वह अपने आप को कुछ देर तक पिशाचों की दृष्टि से छिपा सके और बाद में पैरों में रक्त प्रवाह आरंभ हो जाने पर वहाँ से यथा शक्ति वेग से भाग जाये।
प्रतनु काफी देर तक घिसटता रहा। अचानक उसने अनुभव किया कि घिसटने के कारण हुए मांसपेशियों के संचालन से पैरों में रक्त संचार होने लगा है और पैरों की शक्ति लौट रही है। उसने फिर से खडे़ होने का प्रयास किया। इस बार वह खड़े होने में सफल हो गया। एक दो कदम डगमगाने के बाद वह चल पाने में भी सक्षम हो गया।
कुछ ही दूर चल पाया होगा प्रतनु कि उसे सामने से श्वानमुखी पिशाचों का समूह लौटता हुआ मिला। चार पिशाचों ने मोएट को कसकर पकड़ रखा था किंतु मोएट थी कि उनके वश में नहीं आ रही थी। इस कारण पिशाचों का सारा ध्यान मोएट की ही तरफ लगा हुआ था। प्रतनु ने पिशाचों से बचने के लिये वृक्षों की ओट ली। चीत्कार करते हुए पिशाच उसके सामने से निकल गये। प्रतनु ने मन ही मन मादा पिशाच का धन्यवाद ज्ञापित किया जो उसके लिये वरदान सिद्ध हुई थी। पिशाचों की भूमि से दूर जाते हुए प्रतनु के मन से जैसे-जैसे प्राणों का भय दूर होता गया, भोजन और वस्त्रों की चिंता सताने लगी।
[1] मोहेन-जो-दड़ो और हड़प्पा से भी पुरानी सभ्यता दक्षिणी बिलोचिस्तान में अनेक स्थानों पर खोद निकाली गयी है जिसे कुल्ली सभ्यता कहते हैं। यहां पर आज तक ब्राहुई भाषा बोली जाती है, जो कि द्रविड़ भाषा परिवार से है। यूनानियों ने इसे गैड्रोसिया अर्थात काले मानवों का देश कहा है। संभव है कि इन लोगों ने ब्राहुई भाषा बाद में सीखी हो।
[2] भैंसा।
[3] सूअर।
[4] खरगोश।
[5] ऋग्वेद में यह गीत ऋचा के रूप में इस प्रकार से मिलता है- अगृ आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये नि होता सत्सि वर्हिषि ( 6. 16. 10)
[6] किसी भी वस्तु का मन में प्रकट होने वाला स्वरूप।
[7] गायन के समय प्रयुक्त होने वाले निरर्थक अक्षर जिनका उपयोग गायन का सौंदर्य बढ़ाने के लिये होता है।
[8] खरबूजे जैसा एक फल जिस पर तीन धारियाँ बनी हुई होती हैं।
[9] सूजन।