वनवासी राम ने महर्षि जाबालि को कड़ी फटकार लगाई!
हमने पिछली कड़ी में उल्लेख किया था कि दशरथ नंदन श्रीराम ने चित्रकूट में अपने अनुज भरत को यह समझाने का प्रयास किया कि पुत्रों को अपने मृत पिता के वचनों का पालन करके उसे ऋण से मुक्त करवाने का प्रयास करना चाहिए एवं अपने समस्त पितरों की रक्षा एवं मुक्ति का प्रयास करना चाहिए। इसलिए तुम्हें अयोध्या लौट जाना चाहिए और मुझे वन में जाना चाहिए। वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि वहाँ जाबालि नामक एक ऋषि भी बैठे हुए थे और यह समस्त वार्तालाप सुन रहे थे।
जाबालि ऋषि ने श्रीराम से कहा कि आप श्रेष्ठ बुद्धि वाले एवं तपस्वी हैं किंतु आपको गंवार मनुष्य की तरह ऐसा निरर्थक विचार मन में नहीं लाना चाहिए। इस संसार में कौन पुरुष किसका बंधु है, और किससे किसको क्या पाना है! जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही नष्ट हो जाता है। अतः श्रीराम! जो मनुष्य किसी को अपना माता या पिता समझकर उसके प्रति आसक्त होता है उसे पागल के समान समझना चाहिए! क्योंकि कोई किसी का कुछ भी नहीं है।
जैसे कोई मनुष्य दूसरे गांव को जाते समय बाहर धर्मशाला में एक रात के लिए ठहर जाता है और दूसरे दिन उस स्थान को छोड़कर आगे के लिए प्रस्थान कर जाता है, इसी प्रकार माता, पिता, भाई, घर और धन ये मनुष्यों के आवास मात्र हैं! हे रघुवंश कुलभूषण! इनमें सज्जन पुरुष आसक्त नहीं होते हैं।
अतः नरश्रेष्ठ आपको पिता का राज्य छोड़कर इस दुःखमय, नीचे-ऊंचे, तथा बहुकण्टकीर्ण वन के कुत्सित मार्ग पर नहीं चलना चाहिए। आप समृद्धिशालिनी अयोध्या में राजा के पद पर अपना अभिषेक करवाइए। वह नगरी प्रोषितभर्तृका नारी की भांति एक वेणी धारण करके आपकी प्रतीक्षा कर रही है।
जैसे देवराज इन्द्र स्वर्ग में विहार करते हैं, उसी प्रकार आप बहुमूल्य राजभोगों का उपभोग करते हुए अयोध्या में विहार कीजिए। राजा दशरथ आपके कोई नहीं थे और आप भी उनके कोई नहीं हैं। राजा पराए थे और आप भी पराए हैं। इसलिए मैं जो कहता हूँ, आप वही कीजिए।
पिता जीव के जन्म में निमित्तकारण मात्र होता है। वास्तव में ऋतुमती माता के द्वारा गर्भ में धारण किए हुए वीर्य और रज का परस्पर संयोग होने पर ही मनुष्य का जन्म होता है। राजा को जहाँ जाना था, वहाँ चले गए। यह प्राणियों की स्वाभाविक स्थिति है। आप तो व्यर्थ में कष्ट उठा रहे हैं।
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जो जो मनुष्य प्राप्त हुए अर्थ का परित्याग करके धर्म परायण हुए हैं, उन-उन लोगों के लिए मैं शोक करता हूँ, दूसरों के लिए नहीं। वे इस जगत् में धर्म के नाम पर केवल दुःख भोगकर मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं। अष्टका आदि जितने श्राद्ध हैं, उनके देवता पितर हैं। श्राद्ध का दान पितरों को मिलता है, यही सोचकर लोग श्राद्ध में प्रवृत्त होते हैं किंतु विचार करके देखिए तो इसमें अन्न का नाश ही होता है। भला, मरा हुआ मनुष्य क्या खाएगा!
यदि यहाँ किसी मनुष्य द्वारा खाया हुआ अन्न मृत व्यक्ति के शरीर में चला जाता है तो परदेश में जाने वाले व्यक्ति के लिए श्राद्ध ही कर देना चाहिए। उसको रास्ते के लिए भोजन देना उचित नहीं है। देवताओं के लिए यज्ञ और पूजन करो, दान दो, यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करो, तपस्या करो और घर-द्वार छोड़कर संन्यासी बन जाओ इत्यादि बातें बताने वाले ग्रंथ चालाक मनुष्यों ने दान की ओर लोगों की प्रवृत्ति कराने के लिए ही बनाए हैं।
अतः महामते! आप अपने मन में यह निश्चय कीजिए कि इस लोक के सिवा कोई दूसरा लोक नहीं है। जो प्रत्यक्ष राज्यलाभ है, उसका आश्रय लीजिए, परोक्ष पारलौकिक लाभ को पीछे धकेल दीजिए। सत्पुरुषों की बुद्धि जो सब लोगों के लिए राह दिखाने वाली होने के कारण प्रमाणभूत है, उसे आगे करके, भरत के अनुरोध से आप अयोध्या का राज्य ग्रहण कीजिए।’
ऋषि जाबालि का यह वचन सुनकर सत्यपराक्रमी श्रीरामचंद्र ने अपनी संशयरहित बुद्धि के द्वारा श्रुतिसम्मत सद्युक्ति का आश्रय लेकर कहा- ‘हे विप्रवर! आपने मेरा प्रिय करने की इच्छा से जो बात कही है, वह कर्त्तव्य जैसी दिखाई देती है किंतु वह करने योग्य नहीं है। वह पथ्य के समान दिखाई देती हुई भी पथ्य नहीं है। जो पुरुष धर्म अथवा वेद की मर्यादा को त्याग देता है, वह पाप कर्म में प्रवृत्त हो जाता है। उसके आचार और विचार दोनों ही भ्रष्ट हो जाते हैं। इसलिए वह कभी भी सत्पुरुषों में सम्मान नहीं पाता है। मनुष्य का आचार ही यह बताता है कि कौन पुरुष उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ है और कौन अधम कुल में, कौन वीर है और कौन व्यर्थ ही स्वयं को वीर पुरुष मानता है, कौन पवित्र है और कौन अपवित्र।
आपने जो आचार बताया है उसे अपनाने वाला पुरुष वास्तव में अनार्य होगा। वह बाहर से पवित्र दिखने पर भी भीतर से अपवित्र होगा! आपका उपदेश चोला तो धर्म का पहने हुए है किंतु वास्तव में अधर्म है।
यदि मैं इसे स्वीकार करके वेदोक्त शुभकर्म छोड़ दूं और धर्मविहीन कर्म में लग जाऊं तो कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान रखने वाला कौन समझदार मनुष्य मुझे श्रेष्ठ समझकर आदर देगा? यदि मैं अपनी की हुई प्रतिज्ञा तोड़ दूँ तो फिर मुझे किस साधन से स्वर्ग की प्रािप्ति होगी?
आपके बताए हुए मार्ग पर चलकर यह सम्पूर्ण जगत् स्वेच्छाचारी हो जाएगा और अनाचरण करने लगेगा। सत्य का पालन ही राजाओं का दयाप्रधान धर्म है। सनातन आचार है। सत्य में ही सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है। संसार में सत्य ही धर्म की पराकाष्ठा है और वही सबका मूल कहा जाता है। झूठ बोलने वाले से सब लोग वैसे ही डरते हैं जैसे सांप से।
सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्म सदाश्रितः। सत्यमूलानि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदं।। अर्थात्- जगत् में सत्य ही ईश्वर है। धर्म सदैव सत्य का आधार लेकर खड़ा रहता है। सत्य ही सबकी जड़ है। सत्य से बढ़कर दूसरा कोई परम पद नहीं है। दान, यज्ञ, होम, तपस्या ओर वेद, इन सबका आधार सत्य ही है। इसलिए सबसको सत्य-परायण होना चाहिए। संसार में अलग-अलग तरह के मनुष्य होते हैं।
एक मनुष्य समस्त लोक का पालन करता है, एक मनुष्य सम्पूर्ण कुल का पालन करता है, एक मनुष्य नर्क में डूबता है और एक स्वर्ग में प्रतिष्ठित होता है। मैं सत्यप्रतिज्ञ हूँ और सत्य की शपथ खाकर पिता के सत्य का पालन स्वीकार कर चुका हूँ। मैं पिता के आदेश का किसलिए पालन नहीं करूं? मैं इस सत्य रूपी धर्म को समस्त प्राणियों के लिए हितकर और सब धर्मों में श्रेष्ठ समझता हूँ।
मनुष्य अपने शरीर से जो पाप करता है, पहले मन के द्वारा कर्तव्य रूप से निश्चित करता है। फिर जिह्वा की सहायता से उस पाप को वाणी द्वारा दूसरों से कहता है। तत्पश्चात् दूसरों के सहयोग से उसे शरीर द्वारा सम्पन्न करता है। इस तरह एक ही पाप कायिक, वाचिक और मानसिक भेद से तीन प्रकार का होता है।
पृथ्वी, कीर्ति, यश और लक्ष्मी ये सब सत्यवादी पुरुष को पाने की इच्छा रखती हैं और शिष्ट पुरुष सत्य का ही अनुसरण करते हैं। अतः मनुष्य को सदा सत्य का ही सेवन करना चाहिए। मैंने पिताजी के सामने वन में रहने की प्रतिज्ञा की है। अब उनकी आज्ञा का उल्लंघन करने के लिए मैं भरत की बात कैसे मान लूं? गुरु के समक्ष की गई वह प्रतिज्ञा अटल है। किसी तरह तोड़ी नहीं जा सकती। मैं वन में ही रहकर बाहर-भीतर से पवित्र होकर नियमित भोजन करूंगा और पवित्र फल, मूल एवं पुष्पों द्वारा देवताओं और पितरों को तृप्त करता हुआ प्रतिज्ञा का पालन करूंगा।
इस कर्मभूमि को पाकर जो शुभ कर्म हो, उसका अनुष्ठान करना चाहिए। क्योंकि अग्नि, वायु तथा सोम भी कर्मों के ही फल से अपने पदों के भागी हुए हैं। जैसे चोर दण्डनीय होता है, उसी प्रकार वेदविरोधी बुद्ध भी दण्डनीय है। नास्तिक तथागत एवं नास्तिक चार्वाक को भी इसी कोटि में समझना चाहिए।
जिस प्रकार चोर को राजा से दण्ड दिलवाया जाता है, उसी प्रकार नास्तिक को राजा से दण्ड दिलवाना चाहिए, किसी भी विद्वान ब्राह्मण को कभी भी किसी नास्तिक से बात तक नहीं करनी चाहिए। जो धर्म में तत्पर रहते हैं, सत्पुरुषों का साथ करते हैं, तेज से सम्पन्न हैं, जिनमें दान रूपी गुण की प्रधानता है, जो कभी किसी प्राणी की हिंसा नहीं करते हैं तथा मल-संसर्ग से रहित हैं, ऐसे श्रेष्ठ मुनि ही संसार में पूजनीय होते हैं।’
जब श्रीराम ने रोषपूर्वक ये बातें कहीं तो जाबालि ऋषि ने हाथ जोड़कर कहा- ‘रघुनंदन न तो मैं नास्तिक हूँ और न नास्तिकों की बात ही कहता हूँ। परलोक आदि कुछ भी नहीं है, ऐसा मेरा मत नहीं है। मैं अवसर देखकर आस्तिक और नास्तिक हो जाता हूँ। इसलिए मैंने नास्तिकों जैसी बातें कहीं ताकि आप अयोध्या का राज्य स्वीकार कर लें। मेरा मंतव्य केवल आपको अयोध्या लौट जाने के लिए सहमत करना है। मैं इसी को सबसे बड़ा धर्म समझता हूँ।’
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