वीर राजाराम जाट ने औरंगजेब से बदला लेने के लिए उसके पूर्वज बादशाह अकबर की हड्डियाँ आग में डाल दीं! इस कारण औरंगजेब ने वीर राजाराम को मृत्युदण्ड देना निश्चित किया!
इधर औरंगजेब दक्खिन के मोर्चे पर मराठों तथा शिया मुसलमानों से लड़ने में व्यस्त था और उधर उत्तर भारत में मुगल सल्तनत के विरुद्ध विद्रोह प्रचण्ड होता जा रहा था। एक तरफ तो मारवाड़ और मेवाड़ के राजपूत तथा मध्य भारत के बुंदेले मुगलों से दुश्मनी निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे तो दूसरी तरफ जाटों और सिक्खों को रोक सकने वाला कोई नहीं था।
इस काल में जाट एवं सिक्ख काफी मुखर होकर मुगल सल्तनत को बर्बाद करने पर तुले हुए थे। यद्यपि आम्बेर के कच्छवाहे और बूंदी के हाड़े अब भी औरंगजेब के साथ थे किंतु वे भी बहुत टूटे हुए दिल से मोर्चों पर डटे हुए थे।
पाठकों को स्मरण होगा कि ई.1670 में इस्लाम स्वीकार करने से इन्कार कर देने के कारण वीर गोकुला जाट को औरंगजेब के हाथों जिस प्रकार की दर्दनाक और अपमान जनक मृत्यु प्राप्त हुई थी, वैसी ही दर्दनाक और अपमान जनक मृत्यु औरंगजेब ने उद्धव बैरागी तथा कई और लोगों को भी दी थी। इस कारण देश में चारों ओर मुगलों के विरुद्ध वातावरण घनघोर वातावरण बना हुआ था।
गोकुला के दर्दनाक अंत से बुरी तरह आहत हुए जाट धीरे-धीरे सिनसिनी गांव के निवासी ब्रजराज जाट तथा उसके भाई भज्जासिंह जाट के नेतृत्व में एकत्रित होने लगे। जाटों को मुख्य झगड़ा इस बात को लेकर था कि मुगल सेनाएं राजस्व वसूली के नाम पर किसानों से लूट पाट कर रही थीं।
ई.1682 में ब्रजराज मुगलों से युद्ध करते हुए वीर गति को प्राप्त हुआ। उसकी मृत्यु के कुछ समय बाद उसकी पत्नी के गर्भ से एक पुत्र ने जन्म लिया जिसका नाम बदनसिंह रखा गया। आगे चलकर बदनसिंह भी जाटों का प्रमुख नेता बना। ब्रजराज का छोटा भाई भज्जासिंह एक साधारण किसान था। यह परिवार सिनसिनी गांव का रहने वाला था। भज्जासिंह का पुत्र राजाराम भी अपने बाप-दादों की तरह विद्रोही प्रवृत्ति का था।
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कहते हैं मऊ के थानेदार लालबेग ने एक अहीर की स्त्री का बलात् शील भंग किया। जब यह बात राजाराम को ज्ञात हुई तो उसने लालबेग की हत्या कर दी। उसकी इस वीरता से प्रसन्न होकर जाट उसके पीछे हो लिये और राजाराम निर्विवाद रूप से उनका नेता बन गया।
शीघ्र ही राजाराम ने मिट्टी के परकोटों से घिरी पक्की गढ़ैयां अर्थात् छोटे दुर्ग बनाने आरम्भ कर दिये। जब राजाराम की स्थिति काफी मजबूत हो गई तो उसने आगरा सूबे पर आक्रमण करने शुरू कर दिये। इस पर औरंगजेब ने राजाराम को दिल्ली बुलवाया तथा उससे समझौता करके उसे मथुरा की सरदारी और 575 गांवों की जागीर प्रदान कर दी।
राजाराम ने अपनी जागीर अपने भाई-बंधुओं में बन्दूकची सवार की नियमित शर्त पर वितरित कर दी तथा इस प्रकार अपनी नियमित सेना खड़ी कर ली। औरंगजेब ने सोचा था कि जागीर प्राप्त करके राजाराम मुगलों के साथ हो जायेगा तथा जाटों को नियंत्रण में रखेगा किंतु राजाराम ने मुगलों की बिल्कुल भी परवाह नहीं की। उन्होंने आगरा-मथुरा के क्षेत्र में सरकारी खजानों, व्यापारियों तथा सैनिक चौकियों को लूटना जारी रखा।
मुगलिया रिकॉर्ड के अनुसार चारों ओर लुटेरे ही लुटेरे दिखाई देने लगे जिनके कारण आगरा और दिल्ली के बीच सरकारी माल तथा व्यापारियों का निकलना दुष्कर हो गया। इस लूटपाट से जाटों की गढ़ियां माल से भरने लगीं। इस पर औरंगजेब ने शफी खाँ को आगरा का सूबेदार बनाकर जाटों का दमन करने के लिये भेजा। जब शफी खाँ ने जाटों को तंग करना शुरु किया तो राजाराम ने आगरा के दुर्ग पर चढ़ाई कर दी। शफी खाँ डरकर किले में बंद हो गया। राजाराम और उसके साथियों ने जी भरकर आगरा परगने को लूटा।
शफी खाँ की विफलता के बाद औरंगजेब ने कोकलतास जफरजंग को आगरा भेजा किंतु वह भी राजाराम को दबाने में असफल रहा। ई.1687 में औरंगजेब ने अपने पोते बेदार बख्त को विशाल सेना देकर जाटों के विरुद्ध कार्यवाही करने भेजा।
बेदार बख्त के आगरा पहुंचने से पहले ही मार्च 1688 के अंतिम सप्ताह में राजाराम ने रात्रि के समय सिकन्दरा स्थित औरंगजेब के परबाबा शहंशाह अकबर के मकबरे को घेर लिया। उसने अकबर की कब्र खुदवाकर उसकी हड्डियां आग में झौंक दीं तथा मकबरे की छत पर लगे सोने-चांदी के पतरों को उतार लिया।
जाटों ने अकबर के मकबरे के मुख्य द्वार पर लगे कांसे के किवाड़ों को तोड़ डाला। वहाँ से चलकर उन्होंने मुगलों के गांवों को लूटा। खुर्जा परगना भी उसके द्वारा बुरी तरह से लूटा गया। पलवल का थानेदार जाटों द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया।
जब शहजादा बेदार बख्त जाटों के विरुद्ध अप्रभावी सिद्ध हुआ तो औरंगजेब ने आम्बेर नरेश बिशनसिंह अर्थात् विष्णु सिंह कच्छवाहे को जाटों के विरुद्ध भेजा। महाराजा बिशनसिंह तथा राजाराम की सेनाओं में आमने-सामने युद्ध हुआ जिसमें वीर राजाराम काम आया।
महाराजा बिशनसिंह ने वीर राजाराम जाट का सिर काटकर औरंगजेब को भेज दिया। राजाराम का प्रबल सहायक रामचेहर भी इस युद्ध में पकड़ा गया। उसका सिर काटकर आगरा के किले के सामने लटका दिया गया। राजाराम के कटे हुए सिर को देखकर औरंगजेब ने बड़ा उत्सव मनाया।
वीर राजाराम जाट की मृत्यु से भी औरंगजेब संतुष्ट नहीं हो सका। उसने राजा बिशनसिंह को निर्देश दिए कि वह अपना काम जारी रखे तथा सम्पूर्ण जाट जाति को समाप्त कर दे। महाराजा बिशनसिंह जाटों का जन्मजात शत्रु था क्योंकि जाट उसके आम्बेर राज्य में लूटपाट किया करते थे। उसने जाटों के विरुद्ध भयानक अभियान चलाया जिसमें बहुत बड़ी संख्या में जाट मारे गये।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता