मुंहता नैणसी री ख्यात में आए विवरण के अनुसार राजकुमार वीरमदेव ने जालोर आकर अपने पिता रावल कान्हड़देव को बताया कि दिल्ली के बादशाह ने मुझे अपनी शहजादी से विवाह करने का लगन दिया है तो राजा कान्हड़देव ने सोचा कि बात बिगड़ गई। उसने कामदारों को बुलाकर शीघ्र ही किलेबन्दी करवाई तथा युद्ध का सारा सामान तैयार करवाया।
जब लगन की अवधि समाप्त हो गई और वीरमदेव दिल्ली नहीं पहुंचा तो बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी हर पांच-सात दिन बाद राजकुमार वीरमदेव के मित्र राण को बुलाकर पूछने लगा कि वीरमदेव क्यों नहीं आया? इस पर राण बादशाह से कहता कि वह अवश्य ही बारात की तैयारी कर रहा होगा और शीघ्र ही आयेगा। इस प्रकार दो-चार महीने आगे निकल गये। अब बादशाह और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सका। उसने अपने दूत जालोर भेजे। वे दूत रावल कान्हड़देव और राजकुमार वीरमदेव से मिले और सारी स्थिति देख-समझ कर दिल्ली लौटे। दूतों ने बादशाह को बताया कि अब वीरमदेव नहीं आने वाला, राजा कान्हड़देव तो युद्ध की तैयारी करके बैठा है।
दूतों की बात सुनकर बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी अत्यधिक क्रोधित हुआ और कोतवाल तोगा को बुलाकर उसे आदेश दिया कि वीरमदेव के मित्र राण को बेड़ी पहना दो जो कि जमानत के रूप में दिल्ली में रखा गया था। जब कोतवाल अपने स्वामी के आदेश की पालना करने हेतु राण के पास पहुंचा तो राण ने उसका काम तमाम कर दिया और दिल्ली से निकलकर कुशलतापूर्वक जालोर पहुंच गया। मूथा नैणसी ने इस संबंध में साक्ष्य स्वरूप तीन दोहे भी दिये हैं। मार्ग में झांतड़ा गांव के पास राण का घोड़ा मर गया।
जब अल्लाउद्दीन को ज्ञात हुआ कि राण भी भाग गया तो उसने मुजफ्फर खाँ और दाउद खाँ के नेतृत्व में पांच लाख सैनिक जालोर भेजे। उन्होंने वहाँ पहुंचकर दुर्ग घेर लिया। प्रतिदिन धावे होने लगे और उसके समाचार बादशाह के पास त्वरित गति से पहुंचाये जाते। कहते हैं कि बारह वर्ष तक झगड़ा रहा। मूथा नैणसी ने पांच लाख सैनिकों की संख्या लिखी है, यह सही प्रतीत नहीं होती।
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नैणसी के अनुसार दो दहिया राजपूतों को रावल कान्हड़देव ने किसी अपराध में सूली पर चढ़वा दिया था। हवा से उनकी लाशों का रूख बदल गया सो सन्मुख हो गये। कान्हड़देव उनको देखकर हंसा और कहने लगा- ऐसा जान पड़ता है कि दहिये संगठित हो रहे हैं और गढ़ ले लेंगे। उस वक्त उन वीका दहिया रावल कान्हड़देव के पास खड़ा था। उसे यह बात चुभ गई। अतः उसने दुर्ग का सारा भेद तुर्कों को दे दिया।
गढ़ में सुरंग लगा दी गई जिससे दीवार गिर गई और किले पर शत्रुओं का अधिकार हो गया परंतु बिना युद्ध किए राजपूत दुर्ग शत्रु को सौंपने को तैयार नहीं थे। युद्ध में कांधल ने शत्रु के सामने बड़ा पराक्रम दिखाया। रावल कान्हड़देव अलोप हो गया। कुंवर वीरमदेव बहुत से साथियों सहित काम आया। तुर्कों ने उसका सिर काटकर दिल्ली भेज दिया। इस प्रकार 12 अप्रेल 1312 को जालोर दुर्ग खिलजियों के अधीन हो गया। जब वीका दहिया की पत्नी हीरा देवी को ज्ञात हुआ तो उसने अपने पति को मार डाला।
शहजादी फिरोजा कुंअर वीरमदेव का कटा हुआ सिर थाली में रखकर उससे फेरे लेेने लगी। तभी वह मस्तक उल्टा हो गया। शहजादी ने पूर्व जन्म की बात कही तब मस्तक पुनः सन्मुख हुआ। शहजादी उस कटे हुए सिर के साथ फेरे लेकर मस्तक के साथ सती हो गई।
पद्मनाभ ने शहजादी सिताई अर्थात् फिरोजा के वीरमदेव से प्रेमप्रसंग को शहजादी द्वारा पूर्वजन्म की स्मृति के आधार पर माना है। अनेक विद्वानों ने कान्हड़देव प्रबंध का विवरण देते समय ग्रंथ में उन घटनाओं एवं तथ्यों को भी शामिल कर लिया है जो कि कान्हड़देव में नहीं दिये गये हैं। डॉ. सुखवीर सिंह गहलोत ने ‘राजस्थान इतिहास रत्नाकर’ के परिशिष्ट में ‘कान्हड़दे प्रबंध’ के कथानक का संक्षिप्त वर्णन किया है। उसमें नाहर मलिक द्वारा कान्हड़देव को चालाकी से सुल्तान के दरबार में उपस्थित होने के लिये राजी कर लेना बताया गया है।
फरिश्ता ने कान्हड़देव तथा वीरमदेव को दिल्ली दरबार में ले जाने वाले सेनानायक का नाम ऐनालुमुल्क बताया है न कि नाहर मलिक। इसी प्रकार सुखवीर सिंह गहलोत ने कान्हड़देव प्रबंध के हवाले से राजा कान्हड़देव के मरने की बाद 8 दिन तक राजकुमार वीरमदेव का जीवित रहना बताया है जबकि कान्हड़देव प्रबंध में यह अवधि साढे़ तीन दिन दी गई है।
पद्मनाभ द्वारा लिखित ‘कान्हड़दे प्रबंध’ में उल्लेख है कि जब सुल्तान को जालोर अभियान में सफलता नहीं मिली तो शहजादी फिरोजा स्वयं गढ़ में गई जहाँ राजा कान्हड़देव ने शहजादी का स्वागत किया परन्तु अपने पुत्र के साथ उसका विवाह करने से मना कर दिया। इस पर शहजादी हताश होकर दिल्ली लौट गई। कुछ वर्षों के बाद अल्लाउद्दीन ने फिरोजा की धाय गुलबहिश्त को आक्रमण के लिये भेजा। उसे यह कहा गया कि यदि वीरमदेव बंदी हो जाय तो उसे जीवित ही लाया जाए और यदि धराशायी हो जाये तो उसका सिर काट कर लाया जाए।
जब राजपूत सेना मुस्लिम सेना से परास्त हो गई और वीरमदेव युद्ध में खेत रहा तो उसका सिर काट कर दिल्ली ले जाया गया और शहजादी को दिया गया। शहजादी को देखते ही वीरम के कटे हुए सिर ने घृणा से अपना मुंह दूसरी ओर फेर लिया। शहजादी वीरम के सिर का अंतिम संस्कार करने के बाद यमुनाजी में कूद कर मर गई।
इस प्रकार मूथा नैणसी और पद्मनाभ के वर्णन में पर्याप्त अंतर है। डॉ. के. एस. लाल ने अपनी पुस्तक ‘खिलजी वंश का इतिहास’ में इस पूरे घटनाक्रम को अविश्वसनीय ठहराया है। उन्होंने लिखा है- ‘वास्तव में यह आश्चर्य पूर्ण है कि एक बार तो कान्हड़देव सुल्तान के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिये दिल्ली भागता है और वर्षों तक अटूट आज्ञाकारिता का पालन करता है और फिर अचानक ऐसा उद्धत रुख अपना लेता है कि वह स्वयं को और अपनी प्रजा को बहुत बड़ी विपत्ति में डाल देता है। तुर्की सेना का नेतृत्व एक स्त्री को सौंपना और उसे सेना द्वारा सहर्ष स्वीकार करना ठीक प्रतीत नहीं होता। कोई भी समकालीन इतिहासकार ऐसा नहीं लिखता। यह तो फरिश्ता की कल्पना की उपज है जिसे पूर्णतः अस्वीकृत कर दिया जाना चाहिये।’
डॉ. रामेश्वर दयाल श्रीमाली ने भी किशोरी शरण लाल के मत को स्वीकार किया है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता