महमूद गजनवी अब तक भारत के विरुद्ध कई अभियान कर चुका था और प्रत्येक अभियान में उसने अपने शैतानी दिमाग तथा शातिराना चालों का भरपूर उपयोग किया था। उस काल में भारत पर अभियान करना कोई आसान कार्य नहीं था जबकि केवल पशु की पीठ ही मनुष्य के यातायात, परिवहन एवं संचार का एकमात्र साधन थी। अफगानिस्तान तथा भारत के बीच हिन्दुकुश पर्वत स्थित था जिसे लांघकर भारत में प्रवेश करना तथा पंजाब की पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित प्रबल हिन्दूशाही राज्य से टक्कर लेना लगभग असंभव सी दिखने वाली बातें थीं किंतु अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति एवं राजनीतिक सूझबूझ के बल पर महमूद ने इसे सफलतापूर्वक कर दिखाया।
निश्चित रूप से महमूद की सामरिक एवं राजनीतिक सूझबूझ में धूर्तता एवं मक्कारी ने बड़ी भूमिका निभाई थी किंतु भारतीय राजाओं की मूर्खताओं ने महमूद की बहुत सहायता की। महमूद ने खलीफा को भारत की अपार दौलत के सब्जबाग दिखाकर सुल्तान की पदवी प्राप्त की जिसके बल पर वह उस काल के इस्लामिक जगत में उपेक्षित तुर्क सरदार के स्थान पर खलीफा का दायाँ हाथ कहलाने लगा तथा उसे भारत पर प्रारम्भिक आक्रमणों के लिए अरबी एवं ईरानी सहायताएं मिल गईं। महमूद ने खलीफा से मिली सुल्तान की पदवी तथा भारत से मिले धन का उपयोग अपनी सेनाओं तथा सल्तनत का विस्तार करने में और भारत से कुफ्र मिटाने में किया।
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महमूद का पहला भारत अभियान हिन्दूकुश की उपत्यकाओं में रहने वाले जनजातीय कबीलों के विरुद्ध था ताकि पंजाब को जाने वाले आगे के रास्ते खुल जाएं। इस अभियान में महमूद को धन की प्राप्ति तो नहीं हुई किंतु अब वह सिंधु नदी के मध्य-उपजाऊ-क्षेत्र में स्थित मूलस्थान अथवा मुल्तान तक आसानी से पहुंच सकता था। वस्तुतः मूलस्थान ही वह ताला था जिसके खुलने पर भारत के अपार स्वर्णभण्डारों को लूटा जा सकता था। यह भारत के पश्चिमोत्तर भाग में स्थित पंजाब का एक महत्त्वपूर्ण शहर था। फारस की खाड़ी से लेकर पश्चिमी भारत के बीच चलने वाले व्यापारी काफिले मूलस्थान से होकर निकलते थे। इस कारण इस नगर की आय बहुत अच्छी थी। मूलस्थान का राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक महत्त्व, महमूद गजनवी को गजनी में चैन से नहीं बैठने देता था।
मध्य-एशिया से आए कुछ शिया लुटेरों ने आठवीं शताब्दी ईस्वी के बाद से ही मूलस्थान के आसपास कई छोटे-मोटे स्थाई डेरे बना लिये थे जो इन व्यापारिक काफिलों से बलपूर्वक धन वसूला करते थे। रोमिला थापर ने लिखा है कि महमूद गजनवी भारत में रह रहे इन शिया मुसलमानों को भ्रष्ट-मुसलमान मानता था तथा उन्हें दण्डित करना चाहता था। वस्तुतः ऐसा कहकर रोमिला थापर महमूद गजनवी के वास्तविक उद्देश्यों पर पर्दा डालने का प्रयास कर रही हैं तथा यह बताना चाहती हैं कि महमूद के लिए हिन्दू और मुसलमान एक बराबर थे।
मूलस्थान में सदियों पुराना एक सूर्यमंदिर हुआ करता था जिसे मार्त्तण्ड मंदिर कहते थे। इस मंदिर में सदियों से आ रहे चढ़ावे के कारण अपार धन-सम्पदा एकत्रित हो गई थी। जब महमूद ने मूलस्थान पर अधिकार किया तो उसे मार्त्तण्ड मन्दिर से इतना धन मिला कि उसे भविष्य के अभियानों के लिए धन की कोई कमी नहीं रही। यद्यपि महमूद ने खलीफा को वचन दिया था कि वह भारत से लूटे गए धन में से खलीफा का हिस्सा भिजवाएगा किंतु एक बार जब यह धन हाथ आ गया तो महमूद ने खलीफा को फूटी कौड़ी भी नहीं भेजी।
मूलस्थान के मार्त्तण्ड मंदिर से मिले धन से महमूद गजनवी के मस्तिष्क में यह बात भलीभांति पैठ गई थी कि मूलस्थान से आरम्भ होने वाला मंदिरों का यह सिलसिला एक ओर तो पंजाब होते हुए भारत के उत्तरी छोर तक तथा दूसरी ओर थार के मरुस्थल से होते हुए गुजरात तथा उससे आगे दक्खिन के प्रदेशों तक मौजूद है जिन्हें लूटने से महमूद को इतना धन मिल जाएगा कि वह संसार का सबसे धनी सुल्तान बन जाएगा।
अफगानिस्तान की ओर से भारत के लिए सैनिक अभियानों का दरवाजा हिन्दूकुश पर्वत के दर्रों से घुसकर मुल्तान होते हुए ही खुल सकता था। इन्हीं सब कारणों से पंजाब के हिन्दूशाही राजा नहीं चाहते थे कि मूलस्थान पर अफगानी आक्रांताओं का शासन हो। इसलिए वे भी महमूद से तब तक संघर्ष करते रहे जब तक कि हिन्दूशाही राजवंश पूरी तरह नष्ट नहीं हो गया।
आवश्यकता इस बात थी कि महमूद गजनवी भारत के जिस उत्तर-पश्चिमी दरवाजे को खोलने का प्रयास कर रहा था, भारत के सारे राजा मिलकर महमूद को नष्ट कर दें किंतु बड़ी-बड़ी बातें करने वाले भारतीयों को कभी भी अपनी हीन अवस्था का भान नहीं हो पाता था। स्वार्थी, चाटुकार और झूठे मंत्री शायद ही कभी अपने राजाओं को राष्ट्र-हित की सलाह देते थे। जिस तरह वे अपने राज्य की सीमा से आगे नहीं सोच पाते थे, उसी प्रकार वे अपने वर्तमान समय से आगे भी नहीं सोच पाते थे।
यही कारण था कि महमूद बारबार आता रहा और भारतीयों की गर्दनों पर तलवार बजाता रहा। भारतीय राजा भी भेड़-बकरियों की भांति एक-एक करके अपनी गर्दनें महमूद की तलवार के नीचे धरते रहे। भारतीय राजा कभी एक हुए भी तो बड़े बेमन से, आधे-अधूरे साधनों, हृदय में छिपे कलुषों, अपनी वंश परम्पराओं की झूठी शान और सिर में भरी हुई घमण्ड भरी बातों के साथ एकत्रित हुए तथा सामान्यतः बिना कोई सफलता प्राप्त किए फिर से बिखर गए।
भारतीयों के सौभाग्य से पश्चिमोत्तर सीमा पर उस काल में प्रबल हिन्दूशाही राज्य था तथा हिन्दूशाही राजाओं ने दूसरे राजाओं को साथ लेने के कुछ प्रयास भी किए किंतु उन्हें अन्य भारतीय राजाओं का बहुत सीमित सहयोग प्राप्त हुआ और वे प्रायः अकेले ही महमूद नामक विपत्ति से जूझते रहे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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