पिछली कड़ी में हमने वैदिक ब्राह्मण के आधार पर देवराज इन्द्र द्वारा वृत्रासुर के वध की कथा की चर्चा की थी। इस कड़ी में तथा इसके बाद की एक और कड़ी में हम पुराणों में आए हुए संदर्भों के आधार पर इन्द्र द्वारा वृत्रासुर का वध किए जाने की चर्चा करेंगे।
पुराणों में आए संदर्भों के अनुसार एक बार देवराज इंद्र के मन में अभिमान पैदा हो गया जिसके फलस्वरूप उसने देवगुरु बृहस्पति का अपमान कर दिया। उसके आचरण से क्षुब्ध होकर देवगुरु बृहस्पति इंद्रपुरी छोड़कर अपने आश्रम में चले गए। जब इंद्र को अपनी भूल का आभास हुआ तो उसे अत्यंत पश्चताप हुआ।
देवराज इंद्र देवगुरु को मनाने के लिए उनके आश्रम में पहुंचा। उसने हाथ जोड़कर देवगुरु से कहा- ‘आचार्य। मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया। उस समय क्रोध में भरकर मैंने आपके लिए जो अनुचित शब्द कह दिए थे, मैं उनके लिए आपसे क्षमा मांगता हूं। आप देवों के कल्याण के लिए पुनः इंद्रपुरी लौट चलिए।
इंद्र का शेष वाक्य अधूरा ही रह गया क्योंकि देवगुरु अदृश्य हो गए। इंद्र निराश होकर इंद्रपुरी लौट गया।
जब दैत्य-गुरु शुक्राचार्य को बृहस्पति के स्वर्ग छोड़कर चले जाने की बात ज्ञात हुई तो उन्होंने दैत्यों से कहा कि यही सही अवसर है जब तुम देवलोक पर अधिकार कर सकते हो। आचार्य बृहस्पति के चले जाने से देवों की शक्ति आधी रह गई है।’
दैत्यगुरु की बात मानकर दैत्यों ने अमरावती पर आक्रमण कर दिया। देवताओं को स्वर्ग छोड़कर भागना पड़ा। देवराज इन्द्र पितामह ब्रह्मा की शरण में पहुंचा। पुराणों में देवताओं के लोक को देवलोक, अमरावती, स्वर्गपुरी, इन्द्रपुरी, बासवपुर आदि कहा गया है।
ब्रह्माजी ने इन्द्र से कहा- ‘यह तुम्हारे अहंकार के कारण हुआ है। तुम गुरु बृहस्पति के पास जाओ, वे ही तुम्हें दैत्यों पर विजय प्राप्त करने का कोई उपाय बताएंगे।’
इंद्र ने ब्रह्माजी को बताया- ‘देवगुरु बृहस्पति अदृश्य हो गए हैं।’
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इस पर ब्रह्माजी ने इन्द्र से कहा- ‘तुम भू-लोक में स्थित महर्षि त्वष्टा के महाज्ञानी पुत्र विश्वरूप के पास जाओ और उसे अपना पुरोहित नियुक्त करके शत्रुओं के नाश के लिए यज्ञ करो।’
ब्रह्माजी के आदेश से देवराज इन्द्र महर्षि विश्वरूप के पास पहुंचा। विश्वरूप के तीन मुख थे। पहले मुख से वह सोमरस पीता था। दूसरे मुख से मदिरा पान करता था और तीसरे मुख से अन्न खाता था। इन्द्र ने विश्वरूप से प्रार्थना की कि वह इन्द्र के शत्रु के नाश के लिए पुरोहित बनकर यज्ञ करवाए। विश्वरूप ने देवों के यज्ञ का पुरोहित बनना स्वीकार कर लिया तथा देवराज को नारायण कवच प्रदान करते हुए कहा- ‘यह कवच दैत्यों से युद्ध के समय तुम्हारी रक्षा करेगा और तुम्हें विजयश्री भी दिलवाएगा।’
देवराज इन्द्र ने नारायण कवच धारण करके स्वर्ग में रह रहे दैत्यों पर आक्रमण किया। दैत्य पराजित हो गए तथा स्वर्ग छोड़कर भाग गए। एक बार पुनः दैत्यों एवं देवों में भयंकर युद्ध हुआ किंतु इन्द्र के पास नारायण कवच होने के कारण दैत्य इन्द्र को परास्त नहीं कर सके।
स्वर्ग पर अधिकार कर लेने के पश्चात् देवराज इन्द्र ने विश्वरूप को पुरोहित बनाकर एक यज्ञ आरम्भ किया ताकि भविष्य में फिर कभी भी दैत्य, देवताओं को परास्त नहीं कर सकें।
जब विश्वरूप यज्ञ में आहुतियां देने लगा तो एक दैत्य ब्राह्मण का वेश बनाकर विश्वरूप के पास पहुंचा और उसके कान में कहा- ‘देवताओं की विजय तथा दैत्यों के पराभव के लिए किए जा रहे यज्ञ में पुरोहिती करके तुमने अच्छा काम नहीं किया है क्योंकि तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि तुम स्वयं भी एक दैत्य-माता के पुत्र हो! यदि तुमने यह यज्ञ सम्पन्न करवा दिया तो तुम्हारा मातृकुल सदैव के लिए नष्ट हो जाएगा।’
इस पर विश्वरूप ने आहुतियों में बोले जाने वाले मंत्रों में देवताओं के साथ-साथ दैत्यों की विजय के मंत्र भी पढ़ दिए। इस कारण जब यज्ञ समाप्त हुआ तो देवताओं को उसका कोई भी लाभ नहीं मिला। न दैत्यों की शक्ति में कोई कमी आई। इन्द्र को विश्वरूप द्वारा किए गए कपट की जानकारी हो गई और इन्द्र ने विश्वरूप के तीनों सिर काट दिए।
इन्द्र द्वारा यज्ञस्थल पर ही पुरोहित की हत्या कर दिए जाने की सर्वत्र निंदा होने लगी तथा उसे ब्रह्म-हत्या का दोषी ठहराया गया। जब इंद्र के द्वारा विश्वरूप की हत्या की सूचना विश्वरूप के पिता महर्षि त्वष्टा को मिली तो वह अत्यंत क्रोधित हुआ और उसने इंद्र के नाश के लिए एक यज्ञ किया।
यज्ञ पूर्ण होने पर वृत्रासुर नामक विशालाकाय असुर प्रकट हुआ। उसके एक हाथ में गदा और दूसरे में शंख था। त्वष्टा ने वृत्रासुर से कहा- ‘इन्द्र एवं समस्त देवताओं को नष्ट कर दो।’
वृत्रासुर ने उसी समय स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया तथा देवताओं को मारने लगा। इन्द्र ने ऐरावत पर चढ़कर वृत्रासुर पर आग्नेय-अस्त्रों से प्रहार किया किन्तु वृत्रासुर ने इन्द्र के अस्त्र-शस्त्र छीनकर दूर फेंक दिए और अपना भयंकर मुख खोलकर इन्द्र को खाने के लिए दौड़ा। यह देखकर इन्द्र भयभीत हो गया और स्वर्ग से भाग गया। देवराज इन्द्र पुनः पितामह ब्रह्माजी की शरण में पहुंचा और उन्हें वृत्रासुर के बारे में बताया।
इस पर ब्रह्माजी ने इन्द्र को बताया- ‘वृत्रासुर को मारने के लिए वज्र नामक शस्त्र की आवश्यकता है। यह शस्त्र उस ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति की अस्थियों से बनाया जा सकता है जिसने दीर्घ काल तक बिना किसी प्राप्ति की अभिलाषा के भगवान की तपस्या की हो।
अतः तुम्हें धरती पर जाकर महर्षि दधीचि से उनकी अस्थियां प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। क्योंकि इस सम्पूर्ण सृष्टि में केवल वही ऐसे ब्रह्मज्ञानी हैं जो बिना किसी अभिलाषा के ईश्वर का तप कर रहे हैं तथा वे सहर्ष अपनी अस्थियां जगत के कल्याण के लिए प्रदान कर देंगे।’
ब्रह्माजी की बात सुनकर देवराज इन्द्र की चिंता और भी बढ़ गई क्योंकि अपने अहंकार के कारण इन्द्र ने एक बार महर्षि दधीचि का घनघोर अपमान किया था। इसलिए इन्द्र ने पितामह ब्रह्मा से पूछा- ‘क्या वृत्रासुर को मारने का और कोई उपाय नहीं है?
ब्रह्माजी ने बताया- ‘वृत्रासुर को मारने के लिए केवल महर्षि दधीचि की अस्थियों से ही वज्र बनाया जाना संभव है।’
यह सुनकर देवराज इन्द्र फिर से चिंता में डूब गया!