Saturday, December 21, 2024
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अध्याय – 8 : प्लासी का युद्ध (1757 ई.)

प्लासी का युद्ध भारतीय इतिहास के निर्णायक युद्धों में से एक है। इस युद्ध के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

(1.) अलीनगर की सन्धि की शर्तों का पूरा नहीं होना: अलीनगर की संधि की शर्तों का पालन करने में किसी भी पक्ष ने रुचि नहीं ली। सिराजुद्दौला ने अँग्रेजों को मुआवजा देने का वचन दिया था परन्तु उसने किसी प्रकार का मुआवजा नहीं दिया। रैम्जे म्योर का कथन है कि नवाब सन्धि की शर्तों को पूरा करने के लिए तैयार नहीं था, इस कारण युद्ध आवश्यक हो गया। दूसरी ओर कम्पनी ने नवाब से भी पहले युद्ध की तैयारी आरम्भ कर दी थी। अँग्रेजों का मानना था कि जब तक सिराजुद्दौला नवाब बना रहेगा, कम्पनी के हितों को खतरा बना रहेगा।

(2.) अँग्रेजों द्वारा नवाब पर दोषारोपण करना: सिराजुद्दौला ने अपने कुछ निजी पत्रों में अंग्रजों के शत्रुओं से मित्रता नहीं रखने का आश्वासन दिया था। कम्पनी ने इस प्रकार के आश्वासनों को भी सन्धि का एक अंश समझा। जबकि सच्चाई यह थी कि सन्धि के समय ही नवाब ने इस प्रकार की शर्त को मानने से इन्कार कर दिया था। इन्हीं दिनों बंगाल के फ्रांसीसियों ने नवाब के साथ सम्बन्ध बढ़ाने का प्रयास किया, जिससे क्लाइव को आशंका हुई कि नवाब, फ्रांसीसियों से मिलकर अँग्रेजों से प्रतिशोध लेने का प्रयास करेगा। इसलिए क्लाइव ने फ्रांसीसियों की बस्ती चन्द्रनगर पर आक्रमण करने के लिए नवाब से अनुमति माँगी। नवाब फ्रांसीसियों को अपना शत्रु नहीं बनाना चाहता था। इसलिये उसने अँग्रेजों को गोलमाल जवाब भिजवा दिया। क्लाइव ने 14 मार्च 1757 को चन्द्रनगर पर अचानक आक्रमण करके उस पर भी अधिकार कर लिया। अँग्रेजों ने नवाब पर अलीनगर की शर्तों को तोड़ने का दोष भी लगा दिया जिसे नवाब ने स्वीकार नहीं किया। नवाब का कहना था कि बंगाल के फ्रांसीसियों ने अँग्रेजों के विरुद्ध कोई कार्य नहीं किया, तब भला उन्हें शत्रु कैसे माना जाये? परन्तु अँग्रेज अपनी बात पर डटे रहे।

(3.) राज्य के प्रमुख लोगों का नवाब के विरुद्ध षड्यन्त्र करना: कुछ प्रभावशाली मुस्लिम सरदार और धनवान हिन्दू नवाब सिराजुद्दौला के विरुद्ध कुचक्र रचने में लगे हुए थे। जब अंग्रेजों ने उनसे इस कार्य में सहयोग माँगा तो उन्होंने तत्काल स्वीकृति दे दी। मुस्लिम सरदारों में मीर जाफर, मिर्जा अमीर बेग और हुसैनखाँ प्रमुख थे जो किसी-न-किसी रूप में नवाब द्वारा बेइज्जत किए जा चुके थे। हिन्दू, सिराजुद्दौला की कट्टर धार्मिक नीतियों के कारण उसके विरोधी थे। जगत सेठ बन्धु, मेहताबराय और स्वरूपचन्द्र को भी नवाब ने अपमानित किया था। नदिया का शक्तिशाली जमींदार महाराजा कृष्णचन्द्र भी नवाब की हिन्दू-विरोधी नीति से असन्तुष्ट था। कई प्रमुख हिन्दू व्यापारियों का अँग्रेज व्यापारियों से घनिष्ट सम्बन्ध था। वे भी नवाब को हटाना चाहते थे।

(4.) मद्रास सलैक्ट कमेटी की नीति: अलीनगर की सन्धि के बाद से ही मद्रास के अधिकारी अपनी सेना को वापिस भिजवाने की माँग कर रहे थे परन्तु क्लाइव का मानना था कि अभी बंगाल में काम पूरा नहीं हुआ है। अतः उसने मद्रास की सलेक्ट कमेटी को सम्पूर्ण स्थिति समझाते हुए मार्ग-दर्शन देने की प्रार्थना की। मद्रास से क्लाइव को उत्तर भेजा गया कि बंगाल प्रान्त में ऐसी किसी भी शक्ति से सम्बन्ध स्थापित किया जाये जो नवाब से असन्तुष्ट हो तथा नवाबी का दावा कर रही हो, ताकि सिराजुद्दौला को सदैव के लिए समाप्त किया जा सके।

सिराजुद्दौला के विरुद्ध षड्यंत्र

नवाब विरोधी षड्यन्त्रकारियों ने मीर जाफर को नवाब बनाने का निर्णय लिया जिसे अँग्रेजों ने भी स्वीकार कर लिया। अँग्रेजों ने मीर जाफर से अलग से एक गुप्त समझौता कर लिया, जिसके अन्तर्गत नवाब बन जाने के बाद मीर जाफर ने कम्पनी को व्यापारिक, प्रादेशिक तथा आर्थिक सुविधाएं देने का आश्वासन दिया। रायदुर्लभ को मन्त्री-पद का आश्वासन दिया गया। षड्यन्त्र की शर्तें कलकत्ता के एक सिक्ख व्यापारी अमीचन्द की मध्यस्थता से तय हुई थीं। अतः उसे नकद के कोष का पाँच प्रतिशत भाग देने का वायदा किया गया। जब सब कुछ तय हो गया तो अमीचन्द ने पाँच प्रतिशत के अलावा 30,000 पौंड की माँग की और माँग न मानने पर षड्यन्त्र का भण्डाफोड़ करने की धमकी दी। इस पर क्लाइव ने अमीचंद को धोखा देने की नीयत से, दो सन्धि-पत्र तैयार करवाये। एक सफेद कागज पर, जो सही था और दूसरा लाल कागज पर, जो झूठा था और जिसमें अमीचन्द को 30,000 पौंड देने की बात कही गई थी। वाट्सन ने झूठे सन्धि-पत्र पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। तब क्लाइव ने उसके जाली हस्ताक्षर बनाये और अमीचन्द को सन्तुष्ट कर दिया। चूँकि क्लाइव ने कम्पनी के हितों की रक्षा के लिए धोखाधड़ी की थी, इसलिये अँग्रेज इतिहासकारों ने उसके इस कुकृत्य को उचित उचित ठहराया है।

नवाब सिराजुद्दौला को इस षड्यन्त्र की सूचना युद्ध के पूर्व ही मिल गई किन्तु उसने षड्यन्त्रकारियों के विरुद्ध सख्त कदम उठाने के स्थान पर मीर जाफर, रायदुर्लभ, यारलतीफखाँ और मीर मुईनुद्दीनखाँ को बुलवाकर अपने प्रति वफादारी की शपथ लेने को कहा। उनके ऐसा करने से नवाब संतुष्ट हो गया, जबकि मीर मुईनुद्दीनखाँ के अतिरिक्त शेष तीनों सेनापति, नवाब के विरुद्ध षड्यन्त्र में सक्रिय थे।

मीर जाफर तथा उसके साथियों की गद्दारी

अब क्लाइव ने युद्ध का बहाना ढूँढना आरम्भ किया। उसने नवाब को एक पत्र लिखा, जिसमें उस पर अलीनगर की सन्धि को भंग करने का आरोप लगाया तथा नवाब का उत्तर आने से पहले ही राजधानी की तरफ कूच कर दिया। 19 जून 1757 को अंग्रेजों ने कटवा पर अधिकार कर लिया। नवाब भी सेना सहित आगे बढ़ा। दोनों पक्षों की सेनाएँ प्लासी के मैदान में आमने-सामने आ डटीं। नवाब की सेना में लगभग 50,000 सैनिक थे। क्लाइव के पास 800 यूरोपियन तथा 2200 भारतीय सैनिक थे। क्लाइव ने अपना डेरा आम के पेड़ों की ओट में लगाया ताकि शत्रु के तोपखाने से बचाव हो सके। नवाब की विशाल सेना देखकर क्लाइव साहस खो बैठा और उसने आक्रमण करने का साहस नहीं किया परन्तु जब नवाब के विरुद्ध षड्यंत्र कर रहे लोगों ने क्लाइव को उसकी जीत का विश्वास दिलाया तो 23 जून 1757 को क्लाइव ने धावा बोल दिया। नवाब के चारों सेनापतियों में से तीन सेनापति अपने-अपने सैनिक दस्तों के साथ चुपचाप युद्ध का दृश्य देखते रहे। केवल मीर मुईनुद्दीनखाँ ने शत्रु का सामना किया परन्तु थोड़ी देर में ही मारा गया। सिराजुद्दौला अपने ही लोगों के विश्वासघात से घबरा गया और 2000 सैनिकों के साथ युद्ध के मैदान से भाग खड़ा हुआ। उसके भागते ही नवाब के षड्यन्त्रकारी सेनापतियों ने अपने-अपने दस्तों को भी लौट जाने के आदेश दे दिये। इस प्रकार, बिना किसी विशेष युद्ध के ही क्लाइव ने प्लासी का युद्ध जीत लिया। नवाब जब मुर्शिदाबाद से पटना की ओर भाग रहा था, तब उसे बन्दी बना लिया गया। 28 जून 1757 को अँग्रेजों ने मीर जाफर को बंगाल का नवाब बना दिया। 2 जुलाई 1757 को मीर जाफर के पुत्र मीरन ने नवाब सिराजुद्दौला की हत्या कर दी।

प्लासी के युद्ध का महत्त्व

प्लासी के युद्ध में नवाब की तरफ के केवल 500 सैनिक तथा अँग्रेजों की ओर के केवल 29 सैनिक मारे गये थे। इसलिये सैनिक दृष्टि से प्लासी का युद्ध महत्त्वपूर्ण नहीं था किंतु इसके राजनीतिक परिणाम अत्यंत दूरगामी एवं महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए। नवाब की विशाल सेना की पराजय का मूल कारण उसके सेनापतियों का विश्वासघात था। क्लाइव ने जगत सेठ और मीर जाफर की महत्त्वाकांक्षाओं का लाभ उठाया।

के. एम. पणिक्कर ने लिखा है- ‘प्लासी एक ऐसा सौदा था, जिसमें बंगाल के धनी लोगों और मीर जाफर ने नवाब को अँग्रेजों के हाथों बेच दिया।’

प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल में नया युग आरम्भ हुआ जिसने न केवल बंगाल में ही क्रान्ति उत्पन्न की, अपितु ईस्ट इण्डिया कम्पनी के स्वरूप में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिया।

(1.) राजनीतिक महत्त्व: प्लासी के युद्ध से बंगाल की तात्कालिक शासन व्यवस्था का खोखलापन स्पष्ट हो गया तथा हिन्दुओं और मुसलमानों के आन्तरिक मतभेद प्रकट हो गये जिससे यह स्पष्ट हो गया कि धनवान हिन्दू, बंगाल में मुस्लिम शासन को समाप्त करने के लिये किसी भी सीमा तक विदेशियों से साँठ-गाँठ कर सकते हैं। इससे अँग्रेजों का आत्मविश्वास बढ़ा और वे यह मानने लगे कि षड्यन्त्रों तथा कुचक्रों द्वारा भारतीयों को परास्त करके अपने साम्राज्य की स्थापना की जा सकती है। युद्ध के बाद मीर जाफर बंगाल का नवाब अवश्य बन गया परन्तु उसकी सत्ता कम्पनी के सैनिक सहयोग पर टिकी हुई थी। इस प्रकार, मीर जाफर कम्पनी के हाथों की कठपुतली बन गया। इस युद्ध से पहले, अँग्रेज एक व्यापारिक कम्पनी के मालिक थे और नवाब का कम्पनी पर नियंत्रण रहता था किंतु प्लासी के युद्ध ने कम्पनी पर नवाब के नियन्त्रण को समाप्त करके नवाब पर कम्पनी का नियंत्रण स्थापित कर दिया। नवाब का शासन इतना कमजोर था कि आगे चलकर मीर जाफर अपने दीवान रायदुर्लभ और बिहार के नायब दीवान रामनारायण को किसी प्रकार की सजा नहीं दे सका क्योंकि वे कम्पनी के प्रति वफादार थे। कम्पनी की कृपा प्राप्त करके कोई भी व्यक्ति प्रशासन में उच्च से उच्च पद प्राप्त कर सकता था। अँग्रेजों का राजनीतिक प्रभुत्व इस बात से स्पष्ट होता है कि बाद में मीर जाफर को पदच्युत करने में उन्हें किसी प्रकार का रक्तपात नहीं करना पड़ा। प्लासी के युद्ध के महत्त्व की चर्चा करते हुए इतिहासकार मेलीसन ने लिखा है-‘इतना तात्कालिक, स्थायी और प्रभावशाली परिणामों वाला कोई युद्ध नहीं हुआ।’  

एल्फ्रेड लायल ने लिखा है- ‘प्लासी में क्लाइव की सफलता ने बंगाल में युद्ध तथा राजनीति का एक अत्यन्त विस्तृत क्षेत्र अँग्रेजों के लिए खोल दिया।’

इस युद्ध ने अँग्रेज व्यापारियों की आकांक्षाओं को जागृत कर दिया और वे भारत में साम्राज्य की स्थापना का स्वप्न देखने लगे। दक्षिण भारत में निजाम तथा मराठों की उपस्थिति के कारण साम्राज्य स्थापना का काम सरल नहीं था परन्तु बंगाल में ऐसी कोई शक्ति नहीं थी जो अँग्रेजों को रोक सके। बंगाल को केन्द्र बनाकर वे सुगमता से मुगलों की राजधानी दिल्ली का द्वार खटखटा सकते थे। यह युद्ध मुगल सल्तनत के लिए भी घातक सिद्ध हुआ। एक व्यापारिक कम्पनी ने उसके एक सूबेदार को पदच्युत करके दूसरे व्यक्ति को सूबेदार नियुक्त कर दिया। इससे स्पष्ट हो गया कि मुगल बादशाह पूर्णतः शक्तिविहीन है, कोई भी शक्ति अपने बल पर उसके किसी सूबेदार को हटा सकती है और अपनी ओर से सूबेदार नियुक्त कर सकती है। बंगाल की राजनीति में अब अन्य यूरोपीय शक्तियों का प्रभाव क्षीण हो गया। फ्रांसीसी, बंगाल की धरती पर फिर कभी पनप नहीं सके और डचों ने जब अँग्रेजों को चुनौती देने का साहस किया तो उन्हें बुरी तरह से असफल होना पड़ा। इस प्रकार, बंगाल में अँग्रेजों की सर्वोच्चता स्थापित हो गई। बंगला कवि नवीनचंद्र सेन ने लिखा है- ‘भारत में अनंत अंधकारमयी रात्रि आरम्भ हो गई।’

(2.) आर्थिक महत्त्व: बंगाल भारत का सर्वाधिक समृद्ध प्रान्त था। बंगाल में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को 24 परगनों की जागीर प्राप्त हुई। प्लासी के युद्ध के पूर्व कम्पनी को भारत में माल खरीदने के लिए इंग्लैण्ड से सोना और चाँदी लाने पड़ते थे। अब उसे भारत में ही इतना अधिक धन मिलने लग गया कि वह समस्त आवश्यक सामान क्रय कर सकती थी। बंगाल से प्राप्त धन को कम्पनी ने चीन के व्यापार में लगाना आरम्भ कर दिया। इससे बंगाल का भयानक आर्थिक शोषण हुआ और बंगाल एक निर्धन प्रांत बन बया। प्लासी के युद्ध के बाद कम्पनी को तीन सूबों- बंगाल, बिहार और उड़ीसा में कर-मुक्त व्यवसाय करने की छूट मिल गई। कम्पनी ने इसका लाभ उठाते हुए तीनों प्रान्तों के भीतरी भागों में अपनी कई फैक्ट्रियाँ तथा कोठियाँ स्थापित कीं। कलकत्ता में कम्पनी ने अपनी स्वतन्त्र टकसाल स्थापित की जहाँ से 19 अगस्त 1757 को ईस्ट इण्डिया कम्पनी का पहला सिक्का जारी हुआ।

(3.) नैतिक महत्त्व: प्लासी के युद्ध से भारत की राजनीति में नैतिक पतन का नया युग आरम्भ हुआ। नवाब के विश्वस्त सेनापतियों ने युद्ध के मैदान में धोखा देकर नवाब को हरवा दिया। इस युद्ध के बाद बंगाल में धन की अंधी लूट मच गई। मीर जाफर ने बंगाल का नवाब बनने के बाद 1757 से 1760 ई. के मध्य अँग्रेजों को लगभग 3 करोड़ रुपये रिश्वत के रूप में दिये। स्वयं क्लाइव को 30,000 पौंड प्राप्त हुए और बाद में 37,70,833 पौंड क्षतिपूर्ति के रूप में प्राप्त हुए (कुछ इतिहासकारों के अनुसार 16 लाख रुपये और कुछ के अनुसार 2 से 3 लाख पौंड के बीच प्राप्त हुए थे)। प्रत्येक अँग्रेज पदाधिकारी और सैनिक को भी अच्छी-खासी राशि प्राप्त हुई। अँग्रेजों को सन्तुष्ट करने के लिए मीर जाफर को अपने महल के सोने-चाँदी के बर्तन तक बेचने पड़े।

(4.) ऐतिहासिक महत्त्व: प्लासी की लड़ाई का अत्यंत ऐतिहासिक महत्व है। इस युद्ध के बाद प्रथम बार कम्पनी को राजनीतिक सत्ता प्राप्त हुई।

एडमिरल वाट्सन ने लिखा है- ‘प्लासी के युद्ध में अँग्रेजों की विजय कम्पनी के लिये नहीं अपितु सामान्यतः ब्रिटिश राज्य के लिये महत्व की थी।’

इस लड़ाई ने बंगाल, और अंततोगत्वा समस्त भारत पर ब्रिटिश प्रभुत्व का मार्ग प्रशस्त किया। उसने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारतीय साम्राज्य के प्रमुख दावेदार के रूप में स्थापित कर दिया।

ब्रिटिश इतिहासकारों एडवर्ड थॉम्पसन और जी. टी. गैरेट ने लिखा है- ‘क्रांति करना संसार में सबसे लाभदायक धंधा समझा जाता था। अँग्रेजों के मस्तिष्क में ऐसा स्वर्ण मोह भर गया था जैसा उस युग के बाद कभी नहीं देखा गया था जब कोर्टेस और पिजारो के युग के स्पेनवासी सोने के लिये उन्मादग्रस्त हो गये थे। जब तक बंगाल को पूरी तरह चूस नहीं लिया गया, तब तक वहाँ शांति स्थापित नहीं हो सकी।’

भूमि, न कि व्यापार

विगत डेढ़ सौ वर्षों से कम्पनी भारत में ‘व्यापार, न कि भूमि’ की नीति पर चल रही थी किंतु 23 जून 1757 के प्लासी युद्ध के पश्चात् ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारत में प्रथम बार राजनीतिक सत्ता प्राप्त हुई। इसके बाद अँग्रेजों ने भारत में अपनी नीति ‘भूमि, न कि व्यापार’ कर दी। इस युद्ध के केवल 8 वर्ष बाद ही, 1765 ई. के बक्सर युद्ध के पश्चात् हुई इलाहाबाद संधि के उपरांत ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में पूर्णतः राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित हो गई।

मीर जाफर और अँग्रेज

प्लासी के युद्ध के बाद 29 जून 1757 को क्लाइव ने मीर जाफर को बंगाल का नवाब घोषित किया और स्वयं सेना लेकर मुर्शिदाबाद चला गया। बंगाल की जनता इस युद्ध एवं परिवर्तन से पूरी तरह उदासीन थी। मीर जाफर अयोग्य व्यक्ति था। क्लाइव ने शीघ्र ही यह प्रकट कर दिया कि शासन की वास्तविक शक्ति उसके पास है और मीर जाफर नाममात्र का नवाब है। क्लाइव ने जगत सेठ के माध्यम से बंगाल में हुए सत्ता-परिवर्तन के लिए मुगल बादशाह की स्वीकृति भी मँगवा ली।

मीर जाफर के राज्याभिषेक के अवसर पर क्लाइव ने कहा था कि अँग्रेज वापस कलकत्ता चले जायेंगे और और अपना ध्यान व्यापार की ओर केन्द्रित करेंगे परन्तु वह नवाब तथा शासनतन्त्र पर अपना नियंत्रण रखना चाहता था। इसीलिए उसने समस्त महत्त्वपूर्ण पदों पर ऐसे व्यक्तियों को नियुक्त करवाया जो अँग्रेजों के प्रति निष्ठावान हों। उसने षड्यन्त्रकारी रायदुर्लभ को मन्त्री पद पर नियुक्त करवाया। क्लाइव ने रायदुर्लभ के साथ अलग से एक गुप्त समझौता भी किया जिसमें रायदुर्लभ ने क्लाइव के समस्त दावों को समर्थन देने का आश्वासन दिया। रायदुर्लभ, नवाब के विरुद्ध निरन्तर षड्यन्त्र करता रहा। नवाब ने रायदुर्लभ को हटाना चाहा किंतु क्लाइव के हस्तक्षेप के कारण नवाब कुछ नहीं कर सका। बिहार के नायब सूबेदार रामनारायण ने भी क्लाइव के साथ अलग से समझौता कर रखा था। वह शासन चलाने के लिये क्लाइव से निर्देश प्राप्त करता था।

उसने नवाब के आदेशों का कभी सम्मान नहीं किया। नवाब उसके विरुद्ध भी कोई कार्यवाही नहीं कर सका। शासनतंत्र पर नियंत्रण स्थपित होने के बाद क्लाइव ने बंगाल के भारतीय अधिकारियों को निर्देश भिजवाये कि वे अपने-अपने क्षेत्रों से फ्रांसीसियों को पकड़कर अँग्रेजों को सौंप दें। इन्हीं दिनों नवाब के दो जमींदारों ने विद्रोह किये। क्लाइव ने नवाब को निर्देश दिया कि वह तुरन्त विद्रोह को दबाये। इसके लिए क्लाइव ने 500 सैनिक भी दिये। इस सहायता के बदले में क्लाइव ने बंगाल में शोरे के उत्पादन का एकाधिकार प्राप्त कर लिया। केवल 15 प्रतिशत शोरा नवाब के लिए छोड़ा गया। शोरे का उपयोग बारूद बनाने में किया जाता था। इस कारण नवाब की सेना और भी कमजोर हो गई।

अलीगौहर का आक्रमण

शाहजादा अलीगौहर (मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय) इस समय अवध में भटक रहा था। बंगाल, बिहार और उड़ीसा की अव्यवस्था का हाल सुनकर उसने इन प्रान्तों में अपना भाग्य आजमाने का प्रयास किया। उसे अवध के नवाब से सैनिक सहायता भी मिल गई। 3 अप्रैल 1759 को उसने पटना पर आक्रमण किया। मीर जाफर के कुछ असंतुष्ट सरदार गुप्त रूप से शाहजादे से मिल गये। पटना के नायब सूबेदार रामनारायण ने अलीगौहर को मार भगाया। उस समय क्लाइव अपनी सेना के साथ युद्धस्थल के निकट ही था, उसने विजय का सारा श्रेय स्वयं ले लिया। उसका मानना था कि शाहजादा ब्रिटिश सेना के भय से भाग खड़ा हुआ। इसके लिए मीर जाफर ने क्लाइव को व्यक्तिगत जागीर प्रदान की। 1760 ई. में अलीगौहर ने पुनः बिहार पर आक्रमण किया परन्तु इस बार भी वह असफल रहा। अब अँग्रेज मीर जाफर के रक्षक कहलाये जाने लगे।

डचों पर आक्रमण (बेदरा का युद्ध)

डच व्यापारियों ने बंगाल प्रांत में पटना, ढाका, पीपली, चिन्सुरा तथा कासिम बाजार के निकट फैक्ट्रियाँ स्थापित कर रखी थीं। बंगाल प्रान्त के भीतरी भागों में भी उनकी कई शाखाएँ थी। बड़ानगर तथा चिन्सुरा के प्रदेश तो उनके अधिकार में ही थे। जब सिराजुद्दौला ने कलकत्ता पर आक्रमण किया था तब उसने डचों से सहायता माँगी थी परन्तु डचों ने नवाब को सहायता नहीं दी। उस समय अँग्रेजों ने भी डचों से सहायता की याचना की थी परन्तु डचों ने उन्हें भी सहयोग नहीं दिया था। जब अँग्रेजों ने फुल्टा द्वीप में शरण ली तब डचों ने अँग्रेजों को सहायता पहँुचाई। जब मीर जाफर की सहायता से बंगाल में फ्रांसीसियों के प्रभाव को क्षीण कर दिया गया तो डचों को अपने भविष्य की चिन्ता लगी। अँग्रेज लेखकों ने आरोप लगाया है कि डचों ने मीर जाफर से साँठ-गाठ कर ली। यह आरोप सत्य प्रतीत नहीं होता। डचों को बंगाल से बाहर निकालने के लिए अँग्रेजों को किसी बहाने की आवश्यकता थी। अतः अँग्रेजों ने डचों के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही आरम्भ कर दी। 25 नवम्बर 1759 को बेदरा नामक स्थान पर दोनों पक्षों में युद्ध लड़ा गया जिसमें डच हार गये और उन्होंने सन्धि का प्रस्ताव भिजवाया। इसी समय मीर जाफर का पुत्र मीरन अपनी सेना लेकर डचों को सजा देने आ पहुँचा। क्लाइव की मध्यस्थता से डचों और मीरन के बीच एक सन्धि हुई जिसके अनुसार डचों ने भविष्य में युद्ध नहीं करने तथा नई सैनिक भर्ती और किलेबन्दी नहीं करने का वचन दिया। उन्होंने अपनी फैक्ट्रियों की सुरक्षा के लिये केवल 125 यूरोपियन सैनिकों को रखना स्वीकार कर लिया। अँग्रेजी सत्ता की दिशा में प्लासी के युद्ध के बाद बेदरा का युद्ध, दूसरी महत्त्वपूर्ण सफलता थी। इस विजय से बंगाल में अँग्रेजों की धाक में और अधिक वृद्धि हो गई। फ्रांसीसियों की भाँति डचों की महत्त्वाकांक्षाएं भी पूर्ण रूप से कुचल दी गईं। अब बंगाल में अँग्रेजों की सर्वोच्चता को चुनौती देने वाली कोई शक्ति नहीं बची थी।   

बंगाल में प्रशासनिक अव्यवस्था

मीर जाफर की अयोग्यता, अदूरदर्शिता तथा क्रोधी स्वभाव के कारण बंगाल में प्रशासन की व्यवस्था बिगड़ती जा रही थी। मीर जाफर को न तो अपने ऊपर भरोसा था और न वह अपने सहयोगियों पर विश्वास करता था। राजकोष पहले से ही रिक्त था। मराठे, नवाब से निरन्तर चौथ वसूली कर रहे थे। क्लाइव भी मराठों से उलझना नहीं चाहता था। प्रशासनिक अव्यवस्था के कारण भू-राजस्व की पूरी वसूली नहीं हो पाती थी। कम्पनी तथा उसके अधिकारी नवाब से निरन्तर धन की माँग कर रहे थे।

कर्नल मैल्लेसन ने लिखा है– ‘कम्पनी के अधिकारियों का एक ही उद्देश्य था कि जितना हो सके उतना हड़प लें, मीर जाफर को सोने की बोरी के रूप में इस्तेमाल करें और जब भी इच्छा हो उसमें अपने हाथ डालें।’

बंगाल के नवाब को शिकंजे में आया देखकर पूरी कम्पनी पर ही लालच का भयंकर भूत सवार हो गया। इस धारणा के आधार पर कि कामधेनु मिल गई है और बंगाल की सम्पदा अक्षय है, कम्पनी के निदेशकों ने बंगाल में अपने अधिकारियों को निर्देश दिये कि वे बम्बई और मद्रास प्रेसीडेंसियों का खर्च उठायें और उसकी आय से कम्पनी के भारतीय निर्यातित माल को खरीदें। नवाब कम्पनी को निर्धारित किश्तें भी नहीं चुका पा रहा था, जबकि अनिर्धारित माँगें बढ़ती जा रही थीं। ऐसी स्थिति में नवाब अपने सैनिकों को वेतन भी नहीं चुका पाया। कम्पनी के दबाव पर नवाब को बर्दवान, नदिया तथा हुगली के क्षेत्रों से राजस्व वसूली का अधिकार तब तक के लिए कम्पनी को सौंपना पड़ा जब तक कि उसकी किश्तों के बराबर धन की वसूली नहीं हो जाये। ब्रिटिश इतिहासकार पर्सिवल स्पीयर ने इसे खुली और बेशर्म लूट का काल बताया है। वस्तुतः जिस समृद्धि के लिये बंगाल प्रसिद्ध था, उसे तेजी से नष्ट किया जा रहा था।

मीर जाफर को हटाया जाना

25 फरवरी 1760 को क्लाइव, हॉलवेल को कम्पनी का प्रभार सौंपकर स्वदेश लौट गया। जुलाई 1760 में वेन्सीटार्ट को फोर्ट विलियम का गवर्नर बनाकर कलकत्ता भेजा गया। कलकत्ता कौंसिल के 16 सदस्यों में से अनेक सदस्य उससे वरिष्ठ थे। अतः उन्हें वेन्सीटार्ट की नियुक्ति पसन्द नहीं आई। कलकत्ता कौंसिल के अधिकांश सदस्य धनलोलुप तथा भ्रष्ट थे। ऐसे लोगों के मध्य वेन्सीटार्ट ठीक ढंग से कार्य नहीं कर सका। स्थिति उस समय और भी विषम हो गई जब उसके तीन समर्थक सदस्यों को कौंसिल की सदस्यता से हटा दिया गया और उनके स्थान पर उसके विरोधियों को नियुक्त किया गया। वेन्सीटार्ट के प्रमुख विरोधी एलिस को कम्पनी की पटना स्थित फैक्ट्री का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। कम्पनी के पदाधिकारियों में जिस तेजी के साथ परिवर्तन किया जा रहा था, उससे मीर जाफर के लिए कठिनाइयाँ उत्पन्न होने लगीं।

शाहजादा अलीगौहर का भय अब भी बना हुआ था, क्योंकि कुछ स्थानीय जमींदार और सरदार उसे गुप्त सहयोग दे रहे थे। मराठे भी चौथ वसूली के नाम पर निरन्तर बंगाल में आते रहते थे। अँग्रेजों ने नवाब को इन समस्त संकटों में बराबर सहायता दी परन्तु उन्हें सदैव यह शिकायत बनी रही कि नवाब और उसके पुत्र मीरन की तरफ से उन्हें पूरा सहयोग नहीं मिलता है। जब मीर जाफर ने अँग्रेजों के समर्थक रायदुर्लभ को मंत्री पद से हटा दिया तो अँग्रेजों का असन्तोष और बढ़ गया। 3 जुलाई 1760 को किसी ने मीरन की हत्या कर दी जिससे अँग्रेजों को नये नायब नवाब की नियुक्ति का अवसर मिल गया। उन्होंने मीर जाफर के दामाद मीर कासिम को इस पद पर नियुक्त करने का निश्चय किया जो उनके निर्देर्शों पर चलने और उन्हें काफी भेंट-उपहार देने के लिये तैयार था। उसने अँग्रेज अधिकारियों को ढेर सारे बहुमूल्य उपहार दिये जिससे अँग्रेज अधिकारी प्रसन्न हो गये और उन्होंने मीर जाफर को पदच्युत करके मीर कासिम को नया नवाब बनाने का षड्यन्त्र रचा, ताकि उन्हें और धन की प्राप्ति हो सके। मीर जाफर की जगह मीर कासिम को नवाब बनाये जाने की घटना को बंगाल के इतिहास में 1760 ई. की रक्तहीन क्रांति कहते हैं। मीर जाफर को नवाब पद से हटाये जाने के अनेक कारण थे-

(1.) कम्पनी के अधिकारियों तथा कर्मचारियों को लगातार रिश्वत एवं उपहार देते रहने से मीर जाफर का कोष रिक्त हो गया था। वह न तो कम्पनी को वार्षिक किश्त चुका पाया और न अपने सैनिकों को वेतन दे सका।

(2.) कम्पनी के समस्त कर्मचारियों को नवाब से भेंट-उपहार लेने की आदत हो गई थी। जब नवाब उन्हें धन नहीं दे सका तो वे नवाब से नाराज हो गये और किसी दूसरे व्यक्ति को नवाब बनाने की सोचने लगे।

(3.) अँग्रेजों की लूट-खसोट से मीर जाफर भी तंग आ चुका था। इसलिये वह अँग्रेजों के चंगुल से मुक्ति पाने का उपाय सोचने लगा।

(4.) अपने युवा पुत्र मीरन की हत्या से मीर जाफर को भारी सदमा पहुँचा जिससे वह शासन की तरफ विशेष ध्यान नहीं दे पा रहा था। इस कारण बंगाल में व्यापार-वाणिज्य ठप्प होने लगा था और शान्ति-व्यवस्था लड़खड़ाने लगी थी।

(5.) अँग्रेजों को विश्वास था कि मीर जाफर के स्थान पर जिसे भी नया नवाब बनाया जायेगा, उससे उन्हें पर्याप्त धन और कम्पनी को अधिक सुविधाएँ मिलेंगी।

इस समय दक्षिण भारत में फ्रांसीसियों के विरुद्ध लड़े जाने वाले युद्ध के कारण अँग्रेजों का कोष खाली हो चुका था और मद्रास के अधिकारी बंगाल में नियुक्त अधिकारियों से लगातार धन की माँग कर रहे थे। बिहार में नियुक्त अँग्रेजी सेना को वेतन नहीं चुकाया जा सका थ। इस कारण वहाँ के सैनिक बगावत कर सकते थे। इस आर्थिक संकट से उबारने के लिये कम्पनी को मीर कासिम ही दिखलाई पड़ा। क्योंकि उसके पास काफी धन था और वह नवाब बनने की इच्छा रखता था। ऐसी स्थिति में 27 सितम्बर 1760 को वेन्सीटार्ट ने मीर कासिम के साथ एक गुप्त समझौता कर लिया, जिसमें मीर कासिम को नवाब बनाने का वचन दिया गया। इसके बदले में मीर कासिम ने अँग्रेजों को कई वचन दिये-

(1.) मीर कासिम हर हाल में अँग्रेजों के प्रति निष्ठा रखेगा।

(2.) मीर कासिम अँग्रेजी सेना के व्यय के लिए उन्हें बर्दवान, मिदनापुर और चिटगाँव के प्रदेश देगा।

(3.) अँग्रेजों को, सिलहट में उत्पादित सीमेण्ट का आधा भाग तीन वर्ष तक खरीदने का अधिकार होगा।

(4.) मीर जाफर में, कम्पनी की जो बकाया धनराशि है उसे मीर कासिम चुकायेगा।

(5.) दक्षिण में कम्पनी द्वारा लड़े जा रहे युद्धों के लिये मीर कासिम 5 लाख रुपये की सहायता देगा।

(6.) मीर कासिम कलकत्ता कौंसिल के सदस्यों को 4 लाख 52 हजार पौंड उपहार में देगा। इस राशि में से 50 हजार पौंड वेन्सीटार्ट को, 27 हजार पौंड हॉलवेल को तथा 25-25 हजार पौंड प्रत्येक सदस्य को दिये जाने थे।

(7.) इस संधि के बदले में ब्रिटिश सेना मीर कासिम को बंगाल की शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में सहयोग देगी।

इस समझौते को गोपनीय रखा गया। इस कारण मीर जाफर को इसकी भनक नहीं लगी। अक्टूबर 1760 ई. में वेन्सीटार्ट सेना सहित मुर्शिदाबाद गया और नवाब का महल घेर लिया। वेन्सीटार्ट ने नवाब से गद्दी छोड़ने के लिये कहा। इस पर नवाब अत्यंत क्रोधित हुआ किंतु जान बचाने के लिये उसे वेन्सीटार्ट की बात माननी पड़ी। उसने निर्वाह भत्ता तथा सुरक्षा का आश्वासन मिलने पर मीर कासिम के पक्ष में गद्दी त्याग दी। इसके बाद वह कलकत्ता चला गया और वहीं रहने लगा। मीर कासिम को नवाब घोषित कर दिया गया।

मीर जाफर को गद्दी से उतारने के औचित्य पर प्रकाश डालते हुए कलकत्ता कौंसिल ने कहा- ‘नवाब मीर जाफर क्रोधी, क्रूर, लालची और विलासी प्रवृत्ति का था तथा उसके निकट के व्यक्ति पूर्णतः दास, खुशामदी तथा उसकी बुराइयों की पूर्ति के साधन बने हुए थे। ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि उसने बिना किसी कारण के विभिन्न स्तर के व्यक्तियों का खून बहाया है।’

कलकत्ता कौंसिल के ये आरोप बेबुनियाद तथा तथ्य से परे हैं। सत्य तो यह है कि कम्पनी के अधिकारियों ने उसे स्वतंत्र रूप से शासन चलाने का अवसर ही नहीं दिया। 1765 ई. में क्लाइव ने स्वयं स्वीकार किया कि नवाब पर लगाये गये आरोप असत्य थे।

हॉलवेल ने नवाब पर जिन अमानवीय कृत्यों, क्रूरताओं तथा हत्याओं के आरोप लगाये हैं, उसमें लेशमात्र भी सत्य नहीं है। वस्तुतः मीर जाफर को तख्त से हटाने के लिए किसी बहाने की आवश्यकता थी और इसके लिए उस पर मिथ्या दोष मंढे़ गये। कुछ इतिहासकारों ने इस समस्त काण्ड के लिए मीर कासिम को दोषी ठहराया है। कुछ अन्य इतिहासकारों का मत है कि मीर कासिम को दोषी ठहराना उचित नहीं है क्योंकि विश्वासघाती मीर जाफर को विश्वासघात का फल मिलना ही था। अँग्रेजों ने उसे नवाब बनाकर भारी भूल की थी, अँग्रेजों को जब अपनी भूल का ज्ञान हुआ तो उन्होंने मीर जाफर को हटाकर मीर कासिम को नवाब बनाया।

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