इमादुलमुल्क ने बादशाह अहमदशाह बहादुर और उसकी माँ कुदसिया बेगम को अंधा करके जेल में डाल दिया! मुगल बादशाहों को जूतियों से पीटने एवं जान से मारने का सिलसिला तो पहले से ही जारी था, अब उनकी आंखें फोड़ने का सिलसिला भी चल पड़ा।
जब मरहूम चिनकुलीच खाँ का पौत्र गाजीउद्दीन फीरोजजंग (तृतीय) अर्थात् इमादुलमुल्क मीर बख्शी बन गया तो उसने वजीर सफदरजंग के विरुद्ध नए सिरे से षड़यंत्र रचने आरम्भ किए तथा उसने हाफिज रहमत खाँ बड़ेच नामक एक अमीर की सेवाएं प्राप्त कीं।
इन दोनों ने कुदसिया बेगम तथा बादशाह अहमदशाह बहादुर का समर्थन भी प्राप्त कर लिया। जब इमादुलमुल्क के समर्थकों की संख्या काफी बढ़ गई तो इन लोगों ने एक विशाल सेना लेकर अवध के विरुद्ध अभियान करके सफदरजंग के बहुत से इलाके छीन लिए तथा उसे वजीर के पद से हटा दिया।
इस पर भरतपुर के राजा सूरजमल ने बादशाह अहमदशाह बहादुर से बात करके वजीर सफदरजंग के समस्त पुराने क्षेत्र उसे वापस लौटवा दिए तथा उसे अवध चले जाने की अनुमति प्रदान करवाई।
मीर बख्शी इमादुलमुल्क को बादशाह की यह उदारता पसंद नहीं आई और उसने बादशाह के निर्णयों की आलोचना की। इस पर बादशाह एवं इमादुलमुल्क के सम्बन्ध खराब हो गए। इमादुलमुल्क ने शाही खजाने से डेढ़ लाख दम्म एकत्रित कर लिए तथा बादशाह को लौटाने से मना कर दिया।
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यह राशि शाही सेना एवं शाही अधिकारियों में वेतन के रूप में वितरित की जानी थी। बादशाह के लिए अपने मीर बख्शी पर नियंत्रण कर पाना संभव नहीं था इसलिए बादशाह ने अवध के नवाब सफदरजंग को फिर से प्रधानमंत्री बना दिया।
इस प्रकार सफदरजंग पुनः दिल्ली लौट आया। कुछ पुस्तकों में लिखा है कि सफदरजंग ने बादशाह को 70 लाख रुपया देकर वजीर का पद पुनः प्राप्त कर लिया। सफदरजंग ने इमादुलमुल्क को शाही दरबार से हटाने के प्रयास आरम्भ कर दिए। इस पर इमादुलमुल्क विद्रोह पर उतर आया।
इस कार्य को सफलता पूर्वक सम्पादित करने के लिए इमादुलमुल्क ने मराठों के नेता पेशवा नाना साहिब (प्रथम) के चचेरे भाई सदाशिव राव भाऊ से सहायता मांगी। सदाशिव राव भाऊ, मल्हार राव होलकर तथा रघुनाथ राव अपनी विशाल सेना लेकर इमादुलमुल्क की सहायता के लिए आ गए। बादशाह अहमदशाह एवं वजीर सफदरजंग भी विशाल सेना लेकर उनका मार्ग रोकने के लिए आगे बढ़े। दिल्ली के निकट सिकंदराबाद नामक स्थान पर दोनों पक्षों में युद्ध लड़ा गया।
वजीन सफदरजंग ने हाथियों पर छोटी तोपें लदवाईं तथा ऊंटों पर बंदूकची सवार नियुक्त करवाए ताकि वे युद्ध के मैदान में तेज गति से दौड़ लगा कर शत्रु पक्ष का सफाया कर सकें किंतु मराठों की युद्ध कला के सामने बादशाह अहमदशाह बहादुर तथा वजीर सफदरजंग की सेनाएं पराजित हो गईं। युद्ध में अपने पक्ष की पराजय होते हुए देखकर बादशाह युद्ध के मैदान से भाग छूटा। उसके हरम की आठ हजार औरतें सिकंदराबाद में ही छूट गईं। जब अहमदशाह बहादुर की माता कुदसिया बेगम को अपने बेटे के दिल्ली भाग जाने का समाचार मिला तो वह भी सिकंदराबाद का शिविर छोड़कर दिल्ली की ओर रवाना हो गई।
वजीर सफदरजंग को चाहिए था कि वह बादशाह तथा उसके परिवार की रक्षा के लिए उनके साथ दिल्ली तक जाता किंतु सफदरजंग अपने सूबे अवध को चला गया।
मराठों ने तेजी से कार्यवाही करते हुए बादशाह के हरम को अपने कब्जे में ले लिया जिसमें आठ हजार औरतें थीं। इन सब औरतों को बंदी बना लिया गया। शाही हरम की बेगमों एवं शहजादियों को भी पकड़ लिया गया और बुरी तरह अपमानित किया गया। इस युद्ध के बाद मुगल बादशाह ने मराठों के विरुद्ध कभी कोई युद्ध नहीं लड़ा।
जब मीर बख्शी इमादुलमुल्क को ज्ञात हुआ कि बादशाह अहमदशाह बहादुर, वजीर सफदरजंग तथा राजमाता कुदसिया बेगम युद्ध के मैदान से भाग गए हैं तो इमादुलमुल्क भी दिल्ली के लिए रवाना हो गया।
ई.1754 में इमादुलमुल्क ने लाल किले में प्रवेश करके लाल किले पर अधिकार कर लिया तथा अकिबत खाँ को बादशाह अहमदशाह को गिरफ्तार करने के लिए भेजा। अकिबत खाँ ने बादशाह तथा उसकी माता को बंदी बना लिया। इमादुलमुल्क ने उन दोनों की आंखें फुड़वा दीं तथा उन्हें जेल में डाल दिया। माँ-बेटों ने अपना शेष जीवन इसी प्रकार व्यतीत किया। जनवरी 1775 में अहमदशाह बहादुर की मृत्यु हो गई। काल के प्रवाह ने ऊधम बाई को भी नहीं छोड़ा और वह भी एक दिन इस असार संसार से चल बसी।
जब वजीर सफदरजंग को बादशाह तथा उसकी माता को बंदी बनाए जाने तथा आंखें फोड़े जाने के समाचार मिले तो वह बीमार पड़ गया और उसी दुःख में मृत्यु को प्राप्त हुआ। दिल्ली का लाल किला अपने एक और बादशाह की ऐसी दुर्दशा होते हुए देखकर दुःख और वितृष्णा से सिहर उठा।
ई.1754 में बादशाह अहमदशाह बहादुर को अंधा करके जेल में डाले जाने की घटना ने दिल्ली के लाल किले को एक बार फिर से उन्हीं खौफनाक दिनों की याद दिला दी जब ई.1713 में फर्रूखसियर ने बादशाह जहांदारशाह को तख्त से उतारकर किले की काल कोठरियों में बंद करके उसकी हत्या करवा दी थी।
यही इतिहास तब भी दोहराया गया था जब ई.1719 में सैयद बंधुओं के आदेश से फर्रूखसियर को तख्ते-ताउस से उतार कर जूतियों से पीटते हुए घसीटा गया था और अंधा करके कोठरी में डाल दिया गया था।
उसी वर्ष सैयद बंधुओं ने बादशाह रफीउद्दरजात को और उसके कुछ माह बाद बादशाह रफउद्दाौला को रहस्यमय तरीकों से काल के गाल में पहुंचा दिया था। मुगलिया राजनीति की चौसर पर बादशाह और शहजादे एक-एक करके मारे जा रहे थे किंतु लाल किला अपने दुर्भाग्य पर आंसू बहाने के अतिरिक्त और कुछ करने की स्थिति में नहीं था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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