बादशाह आलमगीर (द्वितीय) का वजीर इमादुलमुल्क लाल किले पर फहरा रहे अफगानी झण्डे को उतारना चाहता था किंतु भयभीत आलमगीर अफगानी झण्डे को हटाने के लिए तैयार नहीं था, इस पर इमादुलमुल्क ने आलमगीर की हत्या करवा दी।
ईस्वी 1757 में जब बंगाल के नवाब अली वर्दी खाँ की मृत्यु हो गई तो बादशाह आलमगीर (द्वितीय) ने उसके उत्तराधिकारी सिराजुद्दौला के नाम फरमान जारी करके उसे बंगाल का नवाब नियुक्त किया। 23 जून 1757 को अंग्रेजों ने सिराजुद्दौला पर आक्रमण कर दिया। कलकत्ता के पास प्लासी के मैदान में दोनों सेनाओं के बीच यह युद्ध लड़ा गया।
नवाब की सेना में लगभग 50,000 सैनिक थे जबकि अंग्रेज गवर्नर लॉर्ड क्लाइव के पास केवल 800 यूरोपियन तथा 2200 भारतीय सैनिक थे। नवाब ने अपनी सेना को चार सेनापतियों के अधीन नियुक्त किया किंतु चार में से तीन सेनापति युद्ध आरम्भ होते ही सिराजुद्दौला को छोड़कर लॉर्ड क्लाइव की ओर चले गए। इनका नेतृत्व मीर जाफर कर रहा था।
इस प्रकार बिना किसी युद्ध के ही क्लाइव ने प्लासी का युद्ध जीत लिया। नवाब जब पटना की ओर भाग रहा था, तब उसे बन्दी बना लिया गया। 28 जून 1757 को अँग्रेजों ने मीर जाफर को बंगाल का नवाब बना दिया। 2 जुलाई 1757 को मीर जाफर के पुत्र मीरन ने नवाब सिराजुद्दौला की हत्या कर दी। इतिहासकार के. एम. पणिक्कर ने लिखा है- ‘प्लासी एक ऐसा सौदा था, जिसमें बंगाल के धनी लोगों और मीर जाफर ने नवाब को अँग्रेजों के हाथों बेच दिया।’
आलमगीर (द्वितीय) कम्पनी की इस कार्यवाही से नाराज था परंतु मीर बख्शी इमादुलमुल्क ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के इस कदम को उचित ठहराया। इस युद्ध के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी बंगाल पर हावी हो गई और मुगल बादशाह का अब तक चला आ रहा नाम मात्र का नियंत्रण भी जाता रहा।
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मीर बख्शी इमादुलमुल्क ने बादशाह आलमगीर से कहा कि अब अहमदशाह अब्दाली वापस चला गया है इसलिए लाल किले पर लगा हुआ अफगानी झण्डा उतार दिया जाए किंतु बादशाह ने कहा कि अहमदशाह अब्दाली हमारा मित्र एवं सम्बन्धी है। हमने उसके साथ संधि की है इसलिए उसका झण्डा लाल किले से नहीं उतारा जाएगा। इस विषय पर बादशाह एवं मीर बख्शी की लड़ाई खुलकर सामने आ गई।
इस पर बादशाह आलमगीर (द्वितीय) ने अपने पुत्र अली गौहर से कहा कि वह मीर बख्शी इमादुलमुल्क की हत्या कर दे। इमादुलमुल्क को इस बात की जानकारी हो गई। इमादुलमुल्क को यह भी ज्ञात हुआ कि बादशाह फिर से अहमदशाह अब्दाली को दिल्ली बुलवा रहा है ताकि इमादउलमुल्क को समाप्त किया जा सके।
इस पर इमादुलमुल्क ने मराठा सरदार सदाशिवराव भाऊ को दिल्ली आने का न्योता दिया जो कि पेशवा नाना साहब का भतीजा था। जब सदाशिवराव भाऊ दिल्ली के निकट पहुंच गया तो इमादुलमुल्क ने उसके साथ मिलकर बादशाह आलगमीर (द्वितीय) तथा उसके परिवार की हत्या करने का षड़यंत्र रचा। इस षड़यंत्र के तहत 29 नवम्बर 1759 को आलमगीर (द्वितीय) को सूचना दी गई कि कोटला फतेहशाह में एक फकीर बादशाह से मिलना चाहता है। बादशाह उसी समय उस फकीर से मिलने के लिए लाल किले से बाहर निकलकर फतेहशाह कोटला चला गया। बादशाह के वहाँ पहुंचते ही इमादुलमुल्क द्वारा नियुक्त कुछ हत्यारों ने अपने खंजरों से बादशाह पर ताबड़तोड़ वार किए। बादशाह आलमगीर (द्वितीय) की वहीं पर मृत्यु हो गई।
इमादुलमुल्क ने बादशाह का शव यमुनाजी के तट पर फिंकवा दिया तथा यह प्रचारित कर दिया कि बादशाह पैर फिसलने से मर गया। बादशाह की हत्या कर देने के बाद इमादुल्मुल्क दिल्ली से भागकर महाराजा सूरजमल की शरण में चला गया जहाँ उसका परिवार पहले से ही रह रहा था।
फादर वैंदेल ने लिखा है- ‘इस प्रकार उसने महान मुगलों का वजीर होने का अपना गौरव जाटों को अर्पित कर दिया। उसे एक जमींदार जाट से, एक भिखारी की तरह हाथ जोड़कर दया की भीख मांगते और उसके प्रजाजनों में शरण लेते तनिक भी लाज न आई। जबकि इससे पहले वह उससे पिण्ड छुड़ाने के लिये सारे हिन्दुस्तान को शस्त्र-सज्जित कर चुका था। इससे पहले मुगलों के गौरव को इतना बड़ा और इतना उचित आघात नहीं लगा था। इस अप्रत्याशित घटना ने उनके गौरव को घटा दिया और नष्ट कर दिया।’
आलमगीर की छः बेगमों तथा कई पुत्रों के नाम मिलते हैं जिनमें अली गौहर, मुहम्मद अली असगर, हारून हिदायत बख्श, ताली मुरादशाह, जमियत शाह, मुहम्मद हिम्मत शाह, अहसानउद्दीन मुहम्मद तथा मुबारक शाह आदि सम्मिलित हैं। आलमगीर (द्वितीय) की हत्या की सूचना मिलते ही बादशाह आलमगीर का बड़ा पुत्र अली गौहर लाल किले से भाग निकला और पटना चला गया। अलीगौहर को मुगलों के इतिहास में शाहआलम (द्वितीय) के नाम से जाना जाता है।
कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि आलमगीर की हत्या हो जाने पर पेशवा नाना साहब ने अपने पुत्र विश्वासराव को दिल्ली के तख्त पर बैठाने का प्रयास किया। सदाशिव राव ने इमादुलमुल्क को इस कार्य के पुरस्कार स्वरूप बड़ी रकम देने का लालच दिया किंतु इमादुलमुल्क कतई नहीं चाहता था कि भारत से मुगल वंश का शासन समाप्त करके दिल्ली का तख्त हिंदुओं को सौंप दिया जाए। अन्य मुस्लिम अमीरों ने भी मराठों का यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया।
इस काल में दिल्ली के मुस्लिम अमीरों की राजनीति समझ में नहीं आने वाली चीज बन गई थी। एक ओर तो वे दिल्ली का शासन हिंदुओं के अधिकार में सौंपने को तैयार नहीं थे और दूसरी ओर वे किसी भी मुगल बादशाह को चैन के साथ शासन नहीं करने दे रहे थे। उनकी हत्याएं कर-करके उन्हें हुमायूँ के मकबरे और कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह में दफना रहे थे। हुमायूँ के मकबरे में इतने बादशाहों के शव दफनाए गए कि उसे मुगलों का कब्रिस्तान कहा जाने लगा।
यदि दिल्ली के मुस्लिम अमीरों ने उस समय दिल्ली का तख्त मराठों को सौंप दिया होता तो इससे भारत की राजनीति पूरी तरह बदल जाती। संभवतः आगे चलकर पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों को इतनी क्षति नहीं उठाने पड़ती और न कुछ ही वर्ष बाद शाह आलम (द्वितीय) को भारत की सत्ता अंग्रेजों के हाथों में सौंपनी पड़ती।
जब सदाशिव राव भाउ पेशवा के पुत्र विश्वासराव को दिल्ली के तख्त पर नहीं बैठा सका तो उसने इमादुलमुल्क के समक्ष शर्त रखी कि अगला बादशाह सदाशिव राव की पसंद से चुना जाएगा। इमादुलमुल्क ने मराठों की यह बात स्वीकार कर ली।
10 दिसम्बर 1759 को मुइन-उल-मिल्लत नामक एक मुगल शहजादे को नया बादशाह बनाया गया। उसे मुगलों के इतिहास में शाहजहाँ (तृतीय) के नाम से जाना जाता है। इस स्थान पर मुइन-उल-मिल्लत के बारे थोड़ी जानकारी देना समीचीन होगा।
पाठकों को स्मरण होगा कि औरंगजेब के सबसे बड़े पुत्र का नाम कामबख्श था जो औरंगजेब के पुत्र बहादुरशाह (प्रथम) द्वारा युद्ध के मैदान में मार दिया गया था। कामबख्श के बड़े पुत्र का नाम मुहि-उस-सुन्नत था। इसी मुहि-उस-सुन्नत का पुत्र मुइन-उल-मिल्लत था जो शाहजहाँ (तृतीय) के नाम से बादशाह हुआ। वह 10 महीने ही शासन कर सका।
10 अक्टूबर 1760 को मराठों ने शाहजहाँ (तृतीय) को गद्दी से उतार कर जेल में डाल दिया तथा उसके स्थान पर मरहूम बादशाह आलमगीर (द्वितीय) के बड़े बेटे अली गौहर को शाहआलम (द्वितीय) के नाम से बादशाह बना दिया जो इन दिनों पूर्वी भारत के शहरों में भटक रहा था। बादशाह शाहजहाँ (तृतीय) ई.1772 तक जेल में पड़ा सड़ता रहा और जेल में ही मृत्यु को प्राप्त हुआ।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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