Thursday, April 24, 2025
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कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु (47)

ई.1210 में जब कुतुबुद्दीन ऐबक लाहौर में चौगान खेल रहा था तब वह अचानक घोड़े से गिर पड़ा। घोड़े की काठी का उभरा हुआ भाग ऐबक के पेट में घुस गया और इस चोट से कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु हो गई। उसे लाहौर में ही दफना दिया गया।

कुतुबुद्दीन ऐबक के सेनापति इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी ने नालंदा एवं विक्रमशिला के विश्विविद्यालयों को जलाकर राख कर दिया तथा बंगाल के सेन शासकों को पूर्व की ओर खिसक जाने पर विवश कर दिया। इस प्रकार कुतुबुद्दीन ऐबक ने रावी नदी से लेकर ब्रह्मपुत्र की घाटी तक हो रहे विद्रोहों का दमन कर लिया तथा भारत के बड़े हिस्से पर ऐबक की पकड़ मजबूत हो गई किंतु कुतुबुद्दीन ऐबक जब तक दिल्ली के तख्त पर बैठा रहा, उसे भारतीय हिन्दू नरेशों एवं सामंतों से युद्ध करते रहना पड़ा। इन युद्धों में कई बार कुतुबुद्दीन ऐबक के प्राणों पर बन आई किंतु वह हर बार बच गया।

कुतुबुद्दीन ऐबक के सौभाग्य से इस काल में गजनी ख्वारिज्म के शाह के आक्रमणों से त्रस्त था और भारतीय राजा अपना-अपना राज्य प्राप्त करने के लिए अलग-अलग प्रयास कर रहे थे। उनका कोई संघ तैयार नहीं हो सका जो एक साथ कुतुबुद्दीन की शक्ति को चूर-चूर करके उसे धूल में मिला सकता। गजनी की खराब परिस्थिति के कारण कुतुबुद्दीन स्वयं को भारत पर केन्द्रित कर पा रहा था और भारतीय राजाओं का संघ नहीं बनने के कारण कुतुबुद्दीन उनके विद्रोहों को दबा पा रहा था।

इस काल में भारतीय भले ही संगठित नहीं थे किंतु हिन्दू प्रतिरोध का एक दूसरा पक्ष भी था जो बहुत उजला था। उस काल के भारत में तुर्की सत्ता का विरोध करने वालों में केवल राजा एवं स्थानीय शासक ही नहीं थे, जन सामान्य भी तुर्कों का विरोध करता था जिनमें जाटों, गुर्जरों एवं मेरों की भूमिका उल्लेखनीय थी। इसलिए कुतुबुद्दीन ऐबक ने ऐसे विद्रोहों को दबाने के लिए स्थानीय हिन्दू सैनिकों को अपनी सेना में भरती करना प्रारम्भ किया तथा स्थानीय छोटे सामंतों को नौकरी पर रख लिया जिन्हें रावत, राणा एवं ठाकुर कहते थे। ई.1208 में जब कुतुबुद्दीन ऐबक गजनी के अभियान पर तो उसकी सेना में कई हिन्दू राणा और ठाकुर भी थे।

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विद्रोहों एवं विरोधों के इस काल में बदायूं के राठौड़ों ने स्वयं को दिल्ली की सत्ता से मुक्त करवा लिया किंतु कुतुबुद्दीन ऐबक ने एक सेना भेजकर बदायूं पर फिर से अधिकार कर लिया तथा अपने गुलाम इल्तुतमिश को बदायूं का गवर्नर बना दिया। कालिंजर तथा ग्वालियर पर भी राजपूतों ने फिर से अधिकार कर लिया था किंतु कुतुबुद्दीन ऐबक अपने जीवन काल में इन दोनों स्थानों पर फिर से अधिकार नहीं कर सका।

ई.1210 में जब कुतुबुद्दीन ऐबक लाहौर में चौगान खेल रहा था तब वह अचानक घोड़े से गिर पड़ा। घोड़े की काठी का उभरा हुआ भाग ऐबक के पेट में घुस गया और इस चोट से कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु हो गई। उसे लाहौर में ही दफना दिया गया। उसके लिए एक साधारण सी कब्र बनाई गई तथा उस पर अत्यन्त साधारण स्मारक खड़ा किया गया।

मुहम्मद गौरी के शव की ही भांति कुतुबुद्दीन ऐबक का शव भी न तो शाही परिवार के किसी सदस्य के लिए और न उसके किसी गुलाम के लिए आदरणीय था। कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु से दुनिया में किसी को कोई दुःख नहीं हुआ।

कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के समय तक दिल्ली पर ऐबक का शासन 12 साल तक मुहम्मद गौरी के गवर्नर के रूप में तथा 4 साल तक स्वतंत्र शासक के रूप में रहा। मुहम्मद गौरी के जीवित रहते, ऐबक उत्तर भारत को विजित करने में लगा रहा। स्वतंत्र शासक के रूप में उसका काल अत्यन्त संक्षिप्त था। इस कारण शासक के रूप में उसकी उपलब्धियाँ विशेष नहीं थीं फिर भी अपने चार वर्ष के कार्यकाल में उसने भारत में दिल्ली सल्तनत की जड़ें मजबूत कर दीं।

कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु से भले ही उस काल में दुनिया में किसी को कोई दुःख नहीं हुआ किंतु बाद के इतिहासकारों के लिए कुतुबुद्दीन बहुत महत्वपूर्ण हो गया। भारत के मुस्लिम इतिहासकारों एवं कम्युनिस्ट लेखकों ने कुतुबुद्दीन ऐबक का इतिहास अत्यंत गौरवशाली बना दिया।

मुस्लिम इतिहासकारों ने ऐबक के शासन की प्रशंसा में बड़ी स्तुतियां गाई हैं। उसे उदार, साहसी एवं न्यायप्रिय शासक बताया है। मिनहाज उस् सिराज ने लिखा है- ‘ऐबक ने लोगों को इनाम में एक लाख जीतल देकर लाख-बख्श की ख्याति प्राप्त की।’

फख्र ए तुदब्बिर ने लिखा है- ‘ऐबक ने अपनी सेना में तुर्क, गौरी, खुरासानी, खलजी और हिन्दुस्तानी सैनिक भरती किए। उसने किसानों से बलपूर्वक घास की एक पत्ती तक नहीं ली।’

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16वीं सदी के मुगल दरबारी अबुल फजल ने लिखा है- ‘मुहम्मद गौरी ने भारत में खून की नदियां बहाईं किंतु ऐबक ने लोगों की भलाई के लिए अच्छे और महान काम किए।’ फरिश्ता ने भी ऐबक के शासन की बहुत प्रंशसा की है। यदि हम उस काल के मुस्लिम इतिहासकारों की पुस्तकों को ध्यान से देखें तो स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि ये प्रशंसाएं नितांत झूठी हैं। वास्तविकता तो यह थी कि उसने भारत से हजारों निर्दोष लोगों को पकड़कर गुलाम बनाया और मध्यएशिया के देशों में बिकने के लिए भेज दिया। ऐबक के समकालीन लेखक हसन निजामी ने लिखा है कि अकेले गुजरात अभियान में ही ऐबक ने बीस हजार लोगों को पकड़ कर गुलाम बनाया। इरफान हबीब ने इन आंकड़ों को गलत एवं ज्यादा बताया है। जबकि वास्तविकता यह थी कि वास्तविक आंकड़े लाखों में रहे होंगे क्योंकि 20 हजार गुलामों का आंकड़ा तो केवल गुजरात अभियान का है। मुस्लिम इतिहासकारों ने ऐबक के न्याय तथा उदारता की मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा की है और लिखा है कि उसके शासन में भेड़ तथा भेड़िया एक ही घाट पर पानी पीते थे। उसने अपनी प्रजा को शांति प्रदान की जिसकी उन दिनों बड़ी आवश्यकता थी। सड़कों पर डाकुओं का भय नहीं रहता था और शाँति तथा सुव्यवस्था स्थापित थी

भारत के मुस्लिम इतिहासकारों का यह वर्णन गजनी के मुस्लिम इतिहासकारों के वर्णन से मेल नहीं खाता। गजनी के इतिहासकारों के अनुसार ई.1208 में जब ऐबक ने गजनी पर अधिकार किया तब वह मद्यपान में व्यस्त हो गया तथा उसकी सेना ने गजनी-वासियों के साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया जिससे दुःखी होकर गजनी की जनता ने पुराने शासक यल्दूज को गजनी पर पुनः आक्रमण करने के लिये आमंत्रित किया। यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब ऐबक ने अपनी मातृभूमि गजनी में इतना भयानक रक्तपात किया तब वह भारत में आदर्श शासन कैसे स्थापित कर सकता था?

वास्तविकता यह थी कि युद्ध के समय ऐबक ने सहस्रों हिन्दुओं की हत्या करवाई और सहस्रों हिन्दुओं को गुलाम बनाया। इस पर भी भारत के मुस्लिम इतिहासकारों ने उसकी यह कहकर प्रशंसा की है कि शांतिकाल में उसने हिन्दुओं के साथ उदारता का व्यवहार किया। जबकि वास्तविकता यह है कि उसने हिन्दुओं की धार्मिक स्वतंत्रता छीन ली। उसने हिन्दुओं के मन्दिरों को तुड़वाकर उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण करवाया। उसके शासन में हिन्दू दूसरे दर्जे के नागरिक थे। उन्हें शासन में उच्च पद नहीं दिये गये।

यदि फिर भी मुस्लिम लेखक यह लिखते हैं कि उसके शासन में भेड़ और भेड़िए एक ही घाट पर पानी पीते थे तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि भेड़ कौन थे और भेड़िए कौन थे? उस काल में भेड़ियों को क्या पड़ी थी जो वे भेड़ों को अपने घाट पर पानी पीने देते? जो भेड़ें भेड़ियों के घाट पर पानी पी रही थीं तो उन्हें इस पानी की क्या कीमत चुकानी पड़ रही थी?

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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