ब्रिटिश शासन काल में भारत में प्लेग रोग इतने बड़े स्तर पर फैलता था कि हजारों लोगों के प्राण निगल लेता था। इस रोग की चपेट में आकर गांव के गांव स्वाहा हो जाते थे। इसलिए प्लेग रोगियों की सेवा करना बहुत बड़े जिगर का काम हुआ करता था।
ब्रिटिश शासन काल में प्लेग की बीमारी का विस्फोट अकाल की विभीषिका के कारण हुआ करता था। अंग्रेज सरकार भारत के खेतों में उगने वाले अनाज को विश्वयुद्ध के मोर्चों पर लड़ रही अंग्रेजी सेना को भिजवा देती थी जिसके कारण भारत में भुखमरी फैल आती थी। इस भुखमरी के कारण हजारों लोग मर जाते थे। इन मृतकों के शव महीनों तक खेतों में सड़ा करते थे जिनमें प्लेग के कीटाणु पनपते थे। जब चूहे आदि छोटे जीव इन शवों को कुतरते थे तो उनके शरीर में प्लेग के कीटाणुओं का प्रवेश हो जाता था। चूहों के द्वारा यह प्लेग मानव बस्तियों तक पहुंच जाता था।
ई. 1914 से 1919 तक यूरोप में प्रथम विश्व युद्ध लड़ा गया। इसके बाद ई.1917 में भारत में प्लेग फैला। अहमदाबाद में प्लेग की महामारी का प्रकोप अत्यंत भयानक था। गंदे इलाकों में तो इसका प्रकोप था ही, कुछ पॉश कॉलोनियों में भी लोग मर गये। इससे सरदार वल्लभ भाई पटेल पटेल को अनुमान हुआ कि लोगों को पता नहीं है कि प्लेग का सामना किस प्रकार किया जाना चाहिये।
वल्लभ भाई ने कुछ लोगों को अपने साथ लेकर एक समिति बनाई जो लोगों को इस महामारी से छुटकारा दिलाने की दिशा में काम करने लगी। इस कार्य में जान जाने का खतरा था किंतु पटेल और उनके साथियों ने अपने प्राणों की परवाह किये बिना, लोगों की बहुत सेवा की। इससे उनकी आत्मा को बहुत संतोष मिला।
यह पहला अवसर था जब वल्लभभाई ने समाज सेवा से उत्पन्न संतोष का स्वाद चखा था। प्लेग रोगियों की सेवा करते हुए पटेल स्वयं भी प्लेग की चपेट में आ गये। पटेल ने अपने परिवार को तत्काल अन्यत्र भेज दिया और स्वयं एक भग्न मंदिर में जाकर रहने लगे जहाँ बहुत धीरे-धीरे वे स्वस्थ्य हो सके।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता