Tuesday, December 3, 2024
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24. जाके प्रिय न राम बैदेही!

जिस अयोध्या को मीर बाकी जला कर क्षार कर गया था और भगवान श्रीराम के जन्म स्थल पर स्थित विशाल देवालय को नष्ट करके मस्जिद बना गया था, कई वर्ष पश्चात् उसी अयोध्या में एक युवा सन्यासी ने काशी से आकर डेरा जमाया। एक बार बचपन में भी वह अपने गुरु नरहरि के साथ सूकरखेत से चलकर यहाँ आया था। तब यहाँ जन्मभूमि पर रामलला का विशाल देवालय स्थित था।

इस बार भी वह रामजन्म भूमि के दर्शनों की लालसा अपने मन में लेकर आया था किंतु रामलला के देवालय के स्थान पर मसीत[1]  देखकर उसने अपने करम ठोंक लिये। वह अपने नेत्रों से जल की धारा बहाता हुआ नित्य प्रतिदिन सरयू में स्नान करता और यह अनुभव करता कि एक दिन इसी नदी के पावन जल में उसके इष्ट देव ने भी निमज्जन किया था। वह अयोध्या की मिट्टी में लोटता और अनुभव करता कि एक दिन इसी रज में उसके स्वामी के चरण अंकित हुए थे। संध्या होने पर वह अयोध्या के नागरिकों से कुछ मांग लाता और उन्हें खाकर मस्जिद में पड़ा रहता।[2]  कभी रात्रि में वह आकाश की ओर दृष्टि उठाता और कल्पना करता कि एक दिन इन चाँद तारों ने उसके स्वामी को इसी व्योम से निहारा होगा तो वह आनंद विभोर हो उठता किंतु जब मसीत की ओर देखता तो उसकी छाती कष्ट से भर जाती।

युवा सन्यासी ने कुछ दिनों तक अयोध्याजी में ही रहकर रामजी के गुणगान करने का निर्णय किया। वह घंटों सरयू के जल में कटि तक डूब कर कीर्तन करता और फिर रामलला की जन्मभूमि की ओर मुँह करके भजन गाता रहता। बहुत से लोग सरयू के तट पर खड़े होकर इन भजनों को भोजपत्रों पर लिख लेते। संध्याकाल में सरयू की स्तुति के साथ इन स्तुतियों को भी गाया जाने लगा जिन्हें सुनने के लिये विशाल जनसमुदाय एकत्र हो जाता।

कुछ ही दिनों में सन्यासी की गायी हुई स्तुतियों और भजनों की चर्चा दूर-दूर तक फैल गयी। इससे सन्यासी के दर्शनों के लिये दूर दूर से भक्तगण आने लगे। एक दिन दो घुड़सवार सन्यासी की सेवा में उपस्थित हुए। उन्होंने सन्यासी से पूछा- ‘क्या काशी के पण्डित श्री तुलसीदासजी आप ही हैं?’

– ‘हूँ तो भांग का पौधा किंतु रामजी के प्रताप से तुलसी कहाता हूँ। कुछ दिनों काशी में भी अवश्य रहा हूँ किंतु मैं वहाँ का पण्डित हूँ यह तो नहीं कह सकता।’ सन्यासी ने अत्यंत कोमल कण्ठ से उत्तर दिया।

घुड़सवारों ने इतना सुनते ही सन्यासी के चरणों की रज माथे से लगाई और एक पत्र सन्यासी के चरणों में रख दिया। उन्हें अपनी स्वामिनी की ओर से ऐसा ही करने का आदेश था।

– ‘तुम लोग कौन हो भाई और इस भांग के पौधे से क्या चाहते हो?’ सन्यासी ने पत्र हाथ में लेकर कहा।

– ‘हम चित्तौड़ की कुंवरानी मीरां के सेवक हैं महाराज। उन्होंने ही वृंदावन से यह पत्र आपकी सेवा में भिजवाया है।’ एक घुड़सवार ने जवाब दिया।

सन्यासी ने पत्र खोला तो दंग रह गया। विचित्र पत्र था यह भी। किसी ने बहुत ही सुंदर बनावट के अक्षरों में लिखा था-

”स्वस्ति श्री तुलसी  कुलभूषन, दूषन हरन गोसाईं।

बारहिं बार प्रनाम करहु, अब हरहु सोग समुदायी।

घर के स्वजन हमारे जेते  सबन्ह  उपाधि  बढ़ाई।

साधु-संग अरु भजन करत मोहि देत कलेस महाई।

मेरे मात-पिता के सम हौ, हरि भक्तह्न  सुखदाई।

हमको कहा उचित करिबो है, सौ लिखिए समुझाई।” [3]

सन्यासी ने उसी समय कागज, कलम और दवात मंगा कर पत्र का जवाब लिखा-

”जाके प्रिय न राम बैदेही।

तजिए ताहि  कोटि  बैरी  सम  जद्यपि  परम  सनेही।

तज्यौ पिता  प्रहलाद,  बिभीषन  बंधु  भरत  महतारी।

बलि गुरु तज्यो, कंत ब्रज बनितनि भये मुद मंगल कारी।

नाते  नेह  राम  के मनिअत  सुहृद सुसेव्य जहाँ  लौं।

अंजन कहा  आँखि जौ  फूटै, बहुतक  कहौं  कहाँ लौं।

तुलसी  सो  सब भांति  परमहित  पूज्य प्राण तें प्यारो।

जासो   होय   सनेह  रामपद   एतो  मतो  हमारो।।”


[1] मस्जिद

[2] मांग के खाइबो अरु मसीत को सोइबो।

[3] ऐसी मान्यता है कि यह पद मीरांबाई द्वारा तुलसीदासजी को सम्बोधित करके लिखा गया था।

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