दिल्ली की औरतें के जिहादी चाहते थे कि बादशाह बहादुरशाह जफर स्वयं घोड़े पर सवार होकर अंग्रेजों की सेना से लड़ें किंतु जब लोगों ने देखा कि बादशाह कायरता दिखा रहा है तो दिल्ली की औरतें जिहादियों की भीड़ में शामिल होकर अंग्रेजों को मारने के लिए निकल पड़ीं।
16 सितम्बर 1857 को जिस दिन अंग्रेजों ने मैगजीन पर फिर से अधिकार किया, उसी दिन क्रांतिकारी सेना का प्रधान सेनापति बख्त खाँ बादशाह की सेवा में उपस्थित हुआ। वीर सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर’ में लिखा है-
‘बख्त खाँ ने बादशाह से कहा, दिल्ली अब आपके हाथों से निकलती जा रही है। फिर भी मैं यह नहीं कह सकता कि अब हमें विजय की कोई आशा ही नहीं रह गई है। मैं यह समझता हूँ कि अब एक ही स्थान पर एकत्रित होकर युद्ध करने के स्थान पर यदि हम बाहर निकलकर खुले प्रदेशों में शत्रु को थकाने में जुट जाएंगे तो अंतिम विजय हमें ही प्राप्त होगी।
जो वीर इस स्वाधीनता संग्राम में अंत तक अपनी तलवारें संभाल कर युद्ध करने के लिए कृत संकल्प होंगे, उन्हें अपने साथ लेकर मैं दिल्ली से बाहर निकलूंगा और शत्रुओं से लोहा लूंगा। शत्रु के समक्ष आत्मसमर्पण करने के स्थान पर मैं उससे युद्ध करते हुए दिल्ली से बाहर निकलना बेहतर समझता हूँ।
अतः जहांपनाह भी हमारे साथ दिल्ली से बाहर निकल चलें जिससे आपकी पताका के नीचे ही हम स्वराज्य की स्थापना का यह पावन संघर्ष जीवन की अंतिम घड़ी तक जारी रखें।’
वीर सावरकर ने लिखा है- ‘यदि इस वृद्ध मुगल बादशाह में बाबर, हुमायूँ अथवा अकबर की वीरता का सौवां हिस्सा भी होता तो वह इस निमंत्रण को स्वीकार कर लेता तथा बख्त खाँ के साथ दिल्ली से बाहर निकल पड़ता किंतु वार्धक्य से हताश, राजविलास से मतिमंद और पराजय से भयभीत हुआ बहादुरशाह जफर अंत तक कोई भी निश्चय नहीं कर पाया।’
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16 सितम्बर को दिल्ली के बहुत से जिहादी लाल किले के सामने आकर एकत्रित होने लगे जिनके लीडर मौलवी सरफराज अली थे और बागी फौज के कई प्रमुख अफसर भी थे।
जिहादी वे लोग थे जो सैनिक नहीं थे किंतु बादशाह को फिर से हिन्दुस्तान का राजमुकुट दिलवाने के लिए अपने प्राण हथेली पर लड़कर अंग्रेजों से मुकाबला कर रहे थे। इन जिहादियों में मुसलमानों के साथ-साथ हिन्दू भी बड़ी संख्या में थे। यहाँ तक कि हिन्दुओं एवं मुसलमानों की औरतें भी इन जिहादी जत्थों में शामिल हो गई थीं।
ये लोग लाल किले के अंदर गए और बहादुरशाह जफर की मिन्नत करने लगे कि वह लड़ाई में उनका नेतृत्व करे। सईद मुबारक शाह ने बादशाह को विश्वास दिलाया कि दिल्ली के समस्त शहरी, पूरी सेना और आसपास के समस्त लोग उनके साथ होंगे और उनके लिए लड़ेंगे और मरेंगे। हम अंग्रेजों को निकाल बाहर करेंगे।
जैसे जैसे और जिहादी और शहरी लोग डण्डे लिए, तलवारें उठाए और पुरानी बंदूकें संभाले किले के बाहर जमा होते गए तो ऐसा लगने लगा कि पासा पलटने का वक्त आ गया है। किले के अंदर हालात और भी ज्यादा गंभीर हाते जा रहे थे। शहजादे मिर्जा मुगल ने बादशाह से कुछ रुपए मांगे ताकि वह अपनी सेना को वेतन दे सके और सेना उस वेतन से कुछ खाना खरीद कर खा सके। इस पर जफर ने शहजादे के संदेशवाहक को जवाब दिया कि घोड़ों का सारा साजो सामान, हमारा चांदी का हौदा और कुर्सी मिर्जा मुगल को भिजवा दी जाए ताकि वह उसे बेचकर सिपाहियों को पैसा दे सके।
इस समय किले में चारों तरफ गोले गिर रहे थे। शहर में सामान मिलना बंद हो गया था इसलिए किले में सलातीन और शहजादे सभी भूखे मरने लगे थे। सईद मुबारक शाह ने लिखा है कि जब बादशाह को अंग्रेजों से बचने का कोई रास्ता नहीं दिखा तो दोपहर बारह बजे बादशाह की पालकी लाल किले से बाहर निकली। पूरी दिल्ली में यह समाचार आग की तरफ फैल गया कि बादशाह सलामत स्वयं अंग्रेजों से लड़ाई करने निकले हैं।
हड्डियों के ढांचे की तरह दिखाई दे रहे बूढ़े बादशाह को पालकी में बैठकर युद्ध के मोर्चे पर आया देखकर न केवल दिल्ली के जिहादी प्रसन्न हुए अपितु दिल्ली की औरतें भी जोश से भर गईं। हाथों में तलवार लेकर सड़कों पर लड़ने के लिए आईं दिल्ली की औरतें लड़ना नहीं जानती थीं किंतु उन्हें समझा दिया गया था कि यह जिहाद है, जिहाद के लिए लड़ना और लड़ते हुए जान गंवाना हर मुसलमान का फर्ज है।
जिहाद करने एवं बादशाह के लिए जान देने के लिए घर से निकलीं दिल्ली की औरतें केवल मुसलमान घरों से आई थीं। हिन्दू घरों की औरतों को न तो लड़ाई करना आता था और न वे यह समझ पा रही थीं कि दिल्ली पर किसका शासन होना चाहिए, ईसाइयों का या मुसलमानों का? हिन्दू औरतों के लिए तो दोनों ही एक जैसे थे! किस के लिए लड़तीं और किसके लिए जान गंवातीं? इस लड़ाई में जो भी पक्ष जीतता, सबसे पहले हिन्दू औरतों की देह नौंचता!
इसी समय दिल्ली तथा आसपास के गांवों के लोग भी अपनी लाठियां, तलवारें और बंदूकें लेकर आ गए। लाल किले के सामने लगभग 70 हजार लोगों की भीड़ जमा हो गई। सारे शहरियों ने एक साथ आगे बढ़ना शुरु किया किंतु उन्हें अंग्रेजी तोपखाने से 200 गज पहले रुकना पड़ा क्योंकि जो भी आगे बढ़ा, गोली खाकर गिरा। अंग्रेजी सेना की बंदूकों से निकली गोलियां सड़क पर बारिश की तरह गिर रही थीं।
हकीम अहसान उल्लाह खाँ ने बादशाह के पास पहुंचकर कहा- ‘यदि एक कदम भी आगे बढ़े तो जरूर गोली खा जाएंगे क्योंकि अंग्रेज बंदूकें लेकर चारों तरफ के घरों में छिपे हुए हैं। आपको यहाँ इस तरह नहीं आना चाहिए था।’
सईद मुबारक शाह ने लिखा है- ‘यह सुनते ही बादशाह जुलूस छोड़कर शाम की नमाज पढ़ने का बहाना बनाकर वापस चले गए। यह देखकर दिल्ली के गाजियों और बागियों की भीड़ हैरान रह गई और आखिर वह बिखर गई।’
इस प्रकार बाबर का आखिरी वंशज अपने जीवन में पहली बार युद्ध करने के लिए लाल किले से बाहर आया किंतु बिना कोई लड़ाई किए फिर से लाल किले में भाग गया। बागियों का हौंसला जफर के खौफजदा होकर पीछे हटने से टूट गया।
अब दिल्ली की जनता को न केवल बादशाह का अपितु अपना और समूची दिल्ली का भविष्य साफ-साफ दिखाई देने लगा था। इसलिए तमाम गाजी और बागी दिल्ली से भाग छूटे। दिल्ली के बचे-खुचे लोग भी अपने जानवरों को लेकर अजमेरी दरवाजे से होकर दिल्ली से बाहर भागने लगे।
दिल्ली की औरतें यह दृश्य देखकर हैरान थीं। यह कैसा जिहाद थे, लोग जिहाद के लिए लड़ते हुए जान नहीं दे रहे थे अपितु कायरों की तरह चिल्लाते हुए भाग रहे थे!
हिन्दू राव भवन की छत पर बंदूकें लेकर खड़े अंग्रेज सिपाही भी यह दृश्य देखकर हैरान रह गए। थोड़ी ही देर में उन्हें समझ में आ गया कि समूची दिल्ली ने हार मान ली है। हॉडसन ने देखा कि बरेली की तरफ जाने वाले बागी सैनिकों के दस्ते दिल्ली से रवाना होने से पहले अपने गोला-बारूद में आग लगा रहे थे।
हॉडसन के जासूसों ने सूचना दी कि नीमच और बरेली के सिपाहियों ने अपना सामान पहले ही सड़क के रास्ते मथुरा भिजवा दिया है और खुद भी मोर्चा छोड़कर भागने को तैयार हैं।
16 सितम्बर 1857 की रात मुगल बादशाहों की परम्परा में वह अंतिम रात थी जब किसी मुगल बादशाह ने बादशाह की हैसियत से लाल किले में रात गुजारी थी। उसके बाद कोई बादशाह फिर कभी बादशाह की हैसियत से लाल किले में रात बिताने नहीं आया।
रात को लगभग 11 बजे बादशाह ने एक ख्वाजासरा को, अपनी सबसे प्यारी बेटी कुलसूम जमानी बेगम को बुलाने के लिए भेजा। बादशाह ने अपनी पुत्री को बहुत से जेवर और रुपए देकर कहा-
‘मैंने तुम्हें अल्लाह को सौंपा! मैं तुमसे जुदा नहीं होना चाहता किंतु तुम्हारी सलामती के लिए जरूरी है कि तुम मुझसे दूर रहो। तुम फौरन अपने शौहर मिर्जा जियाउद्दीन के साथ लाल किला छोड़ दो।’
कुलसूम जमानी बेगम उन जेवरों और अपने परिवार को लेकर फौरन ही लाल किले से बाहर निकल गई और मेरठ की तरफ रवाना हो गई। स्वयं कुलसूम जमानी ने लिखा है कि मार्ग में हमें गूजरों के एक गिरोह ने लूट लिया तथा हमें लगभग नंगा करके छोड़ा!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता