जब मंगू खाँ अथवा मोंगके खाँ मंगोलों का सम्राट हुआ तो उसने अपने चचेरे भाई हुलागू खान अथवा हलाकू को बगदाद पर आक्रमण करने भेजा जो कि उस काल में मुसलमानों के सबसे बड़े शासक खलीफा की राजधानी था। मंगू खाँ तथा हुलागू खां, चंगेज खाँ के पोते थे और आपस में चचेरे भाई लगते थे।
हलाकू एक विशाल सेना लेकर बगदाद की तरफ रवाना हुआ तथा उसने एक संदेशवाहक के हाथों बगदाद के खलीफा को एक पत्र भिजवाया जिसमें लिखा था- ‘लोहे के सूए को मुक्का मारने की कोशिश न करो। सूरज को बुझी हुई मोमबत्ती समझने की गलती न करो। बगदाद की दीवारें तुरन्त गिरा दो। उसकी खाइयां पाट दो, हुकूमत छोड़ दो और हमारे पास आ जाओ। यदि हमने बगदाद पर चढ़ाई की तो तुम्हें न गहरे पाताल में शरण मिलेगी और न ऊंचे आसमान में।’
इस समय बगदाद पर अब्बासी परिवार का 37वां खलीफा मुसतआसिम बिल्लाह शासन करता था। उसके पास वह सैनिक-शक्ति नहीं थी जो उसके पूर्वज खलीफाओं के पास थी किंतु फिर भी एशिया के समस्त मुस्लिम राज्यों पर उसका प्रभाव था। खलीफा को आशा थी कि बगदाद पर हमले की सूचना पाकर मराकश से लेकर ईरान तक की मुस्लिम सेनाएं स्वतः ही बगदाद एवं खलीफा की रक्षा के लिए चली आएंगी।
इसलिए खलीफा ने हलाकू को कठोर भाषा में उत्तर भिजवाया। इस पत्र में खलीफा ने लिखा- ‘नौजवान! दस दिन की ख़ुशकिस्मती से तुम स्वयं को संसार का स्वामी समझने लगे हो। मेरे पास पूरब से लेकर पश्चिम तक ख़ुदा को मानने वाली रियाया है। यदि अपनी सलामती चाहते हो तो वहीं से लौट जाओ।’
खलीफा का जवाब पाकर हलाकू के क्रोध का पार नहीं रहा। इसलिए वह एक विशाल सेना लेकर ईराक की ओर बढ़ा। उन्हीं दिनों कुछ शिया सरदारों ने खलीफा का आधिपत्य मानने से मना कर दिया। इस कारण नजफ, करबला और मोसुल आदि शिया बहुल शहरों ने युद्ध के बिना ही मंगोलों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। 29 जनवरी 1258 को हलाकू ने एक विशाल मंगोल सेना के साथ बगदाद को घेर लिया। यद्यपि इस समय वह अपनी मातृभूमि मंगोलिया से साढ़े छः हजार किलोमीटर दूर था किंतु उसे अपने मंगोल सिपाहियों की क्षमता पर पूरा भरोसा था। इसलिए उसने खलीफा की धमकी में नहीं आने का निश्चय किया तथा अपने चचेरे भाई मंगू खान को संदेश भिजवाकर उससे कुछ और सेनाएं मंगवा लीं।
आरमेनिया और जॉर्जिया से भी इसाई सेनाएं हलाकू के साथ आ मिलीं। इतिहासकारों के अनुसार आरमेनिया तथा जॉर्जिया के शासक मुसलमानों के खलीफा को समाप्त करके क्रूसेड्स में हुई अपनी पुरानी पराजयों का बदला लेना चाहते थे। संभवतः ये इतिहासकार गलत हैं क्योंकि ईसाई सेनाएं हलाकू की सहायता के लिए इसलिए आई थीं क्योंकि हलाकू की मुख्य रानी दोकुज खातून ‘नोस्टोरियाई-ईसाई’ थी और हलाकू ‘बौद्ध’ था। इस कारण वे दोनों ही स्वयं को मुसलमानों के शत्रु समझते थे और उस काल के ‘ईसाई’ हलाकू को अपना स्वाभाविक मित्र मानते थे।
ईसाइयों की सहायता मिल जाने से हलाकू की सेना अत्यंत विशाल हो गई। तकनीकी दृष्टि से भी हलाकू की सेना, बगदाद की सेना से अधिक शक्तिशाली थी। उसकी सेना में चीनी इंजीनियरों की एक इकाई युद्ध-क्षेत्र में बारूद का प्रयोग करना जानती थी। चीनी सैनिक तीरों पर आग लगाकर बगदाद में फैंकने लगे जबकि बगदाद के सैनिकों के पास इस प्रकार के तीर नहीं थे। जब चीनी सेना के बारूद लगे तीर बगदाद नगर में जाकर गिरते थे तो कुछ समय बाद उन तीरों पर बंधे हुए बारूद में विस्फोट हो जाता था।
चीनी सैनिकों ने मिट्टी के पाईप में बारूद भरकर उसमें आग लगाने का तरीका ढूंढ लिया था जिससे युद्ध-क्षेत्र में अचानक धमाके होते थे और गहरा धुंआ फैल जाता था। इस धुएं की ओट में मंगोल सैनिक अपने शत्रु पर हावी हो जाते थे।
चंगेज खाँ के मंगोल सैनिकों ने कुछ ऐसी मंजनीकें बना ली थीं जिनसे बहुत बड़े पत्थरों पर तेल में भीगे हुए और आग में जलते हुए कपड़े बांधकर शहर के भीतर फैंके जा सकते थे। बगदाद के लोग इन मंजनीकों से भी परिचित नहीं थे। मंगोलों ने बगदाद शहर की चारदीवारी के नीचे बारूद लगाकर उसे भी जगह-जगह से तोड़ना आरम्भ कर दिया। बगदाद के निवासियों ने ऐसी बारूदी मुसीबत इससे पहले कभी नहीं देखी थी।
अभी घेराबंदी को एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि खलीफा ने हलाकू ख़ान के पास एक विचित्र प्रस्ताव भिजवाया। खलीफा ने लिखा कि- ‘यदि हलाकू खलीफा को अपना सुल्तान मान ले तथा जुमे के खुतबे में खलीफा का नाम पढ़वाए तो खलीफा, हलाकू को काफी धन प्रदान कर सकता है। हलाकू समझ गया कि अब खलीफा किसी भी समय हार मान सकता है। इसलिए हलाकू ने खलीफा के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।’
अन्ततः केवल 13 दिन की घेराबंदी के बाद 10 फरवरी 1258 को बगदाद का पतन हो गया। 37वें अब्बासी खलीफा मुस्तआसिम बिल्लाह को अपने वजीरों के साथ नगर के मुख्य द्वार पर आकर हलाकू ख़ान के समक्ष समर्पण करना पड़ा। हलाकू ने खलीफा को अपने सैनिकों के पहरे में रख दिया तथा खलीफा के वजीरों एवं सेनापतियों को मौत के घाट उतार दिया।
हलाकू ने खलीफा को विश्वास दिलाया कि वह बगदाद में खलीफा का अतिथि है इसलिए वह खलीफा के प्राण नहीं लेगा। खलीफा इस बात पर संतोष कर सकता था किंतु हलाकू ने अपने सैनिकों को आदेश दिए कि वे खलीफा को भूखा रखें तथा उसे खाने के लिए नहीं दें। इसके बाद मंगोल सेना बगदाद में प्रविष्ट हो गई। इस समय तक मंगोल किसी भी धर्म को नहीं मानते थे तथा मुसलमानों के बड़े दुश्मन थे। इसलिए मंगोलों में बगदाद में बहुत विध्वंस किया। अब्दुल्ला वस्साफ़ शिराज़ी नामक एक बगदादी लेखक ने बगदाद पर हुए इस आक्रमण का विस्तार से वर्णन किया है।
अब्दुल्ला वस्साफ़ शिराज़ी ने लिखा है- ‘मंगोल बगदाद में भूखे गधों की तरह घुस गए और जिस तरह भूखे भेड़िये, भेड़ों पर हमला करते हैं, वैसा करने लगे। बिस्तर और तकिए चाकूओं से फाड़ दिए गए। खलीफा के महलों की औरतें बगदाद की गलियों में घसीटी गईं और तातरियों का खिलौना बनकर रह गईं। इस बात का सही अनुमान लगाना कठिन है कि कितने लोग इस कत्लेआम का शिकार हुए।’
कुछ इतिहासकारों के अनुसार मंगोलों द्वारा बगदाद में दो लाख से लेकर दस लाख मुसलमान तलवार, तीर या भाले से मार डाले गए। इतिहास की पुरानी पुस्तकों में लिखा है- ‘बगदाद की गलियां लाशों से अटी पड़ी थीं। इन लाशों को उठाने के लिए बगदाद में कोई जीवित नहीं बचा था। इस कारण लाशें सड़ने लगीं और उनमें से सड़ांध उठने लगी। इस कारण हलाकू को बगदाद खाली करना पड़ा और उसे अपने तम्बू शहर से बाहर गाढ़ने पड़े।’
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता