जेठ का महीना है और सूर्यदेव आकाश के ठीक मध्य में विराजमान हैं। सन-सनाती लू से परिपूर्ण आकाश में धूल के तप्त कण घुल जाने से जब वायु कानों में घुसती है तो लगता है किसी ने पिघला हुआ सीसा उंडेल दिया है। ऐसी विकट गर्मी में मनुष्यों और पशुओं की कौन कहे, चिड़ियों तक के जाये भी घोंसलों में दुबक कर बैठे हैं। राह-पंथ सब रिक्त हैं। किसान भी सब काम धाम छोड़कर पेड़ों के नीचे आकर सिमट गये हैं। गर्मी से देह को झुलसने से बचाने के लिये वे बार-बार गीले कपड़े से देह पौंछ रहे हैं।
ऐसे में उन्होंने एक विचित्र दृश्य देखा उन्होंने देखा कि एक कीमती और ऊँचे घोड़े पर सवार एक वृद्ध खान तेजी से घोड़ा फैंकता हुआ आया और उनके पास रुककर उनसे वृन्दावन जाने का मार्ग पूछने लगा। खान के कीमती वस्त्र करीलों के झुण्ड में उलझ-उलझ कर तार-तार हो गये हैं। उसकी कीमती पगड़ी बेतरतीब हो गयी है जिससे उसकी सघन श्वेत अलकावली माथे पर झूल आयी है। खान के चित्त की दशा कुछ ऐसी है कि कपड़ों की ही तरह उसे अपनी देह का भी कोई भान नहीं है। स्थान-स्थान पर करील ओर बबूल के काँटों ने त्वचा को खरौंच डाला है। गर्मी में लगातार दौड़ते रहने के कारण घोड़े के मुँह से फेन बह रहा है।
दिखने में वह कोई आला दर्जे का सिपाही लगता था किंतु उसकी अस्त-व्यस्त दाढ़ी, पगड़ी और फटे हुए कपड़े उसके चित्त में विक्षेप होने का बखान कर रहे थे। किसानों ने उसे वृंदावन जाने का मार्ग तो बताया किंतु साथ ही यह अनुरोध भी किया कि वह इस लू में घोड़े की यात्रा न करके कुछ देर पेड़ के नीचे विश्राम कर ले। जब सूरज ढल जाये तो वह वृंदावन चला जाये किंतु खान ने उनकी बात नहीं सुनी। वृंदावन को जाने वाला मार्ग जानते ही खान ने अपने घोड़े को ऐंड़ लगाई और आगे बढ़ गया।
बहुत देर तक किसान उस विचित्र वृद्ध के बारे में बतियाते रहे। किसानों का अनुमान काफी हद तक ठीक ही था। खान के चित्त की दशा खराब नहीं थी तो ऐसी भी नहीं थी कि उसे ठीक कहा जा सके।
खान घोड़े पर अकेला ही सवार था किंतु जाने किससे वार्तालाप करता हुआ जा रहा था। वह बार-बार कहता था कि किसी तरह एक बार वृंदावन पहुंच जाऊँ। उन्हें एक बार देख भर पाऊँ। आज मैं उन्हें अवश्य ही कुछ भेंट चढ़ाऊँगा किंतु क्या भेंट चढ़ाऊँगा? वे तो स्वयं ही रत्नाकर में रहते हैं और खुद लक्ष्मी उनकी गृहणी है, सब कुछ तो उनके पास है। फिर क्या उन्हें चढ़ाऊँ? बस उनका मन उनके पास नहीं है। वह राधाजी ने ले लिया है। आज मैं अपने परमात्मा को अपना मन ही चढ़ाऊँगा ताकि वे मन वाले हो जायें और वे मेरी सुधि लें।[1]
जब खान वृंदावन में गोविंददेव के मंदिर तक पहुँचा तो मंदिर के मुख्य कपाट बंद थे। यह भगवान के विश्राम का समय था। खान ने मंदिर के सामने पहुंचकर घोड़ा तो यमुना के किनारे एक पेड़ से बांध दिया और स्वयं मंदिर के मुख्य द्वार पर पहुंचकर मंदिर के सेवकों से कपाट खोलने का अनुरोध करने लगा।
– ‘आपको किससे काम है, महंतजी से?’ मंदिर के सेवकों ने पूछा
– ‘महंतजी से नहीं, गोविंददेवजी से।’ खान ने जवाब दिया।
– ‘आप तो खान हैं, आपको भला उनसे क्या काम है?’
– ‘बहुत जरूरी काम है, आप समय व्यर्थ न करें। कपाट खोलें। समय निकला जा रहा है।’
– ‘किसका समय निकला जा रहा है?’ सेवकों ने पूछा।
– ‘महाराज! मेरे और गोविंददेवजी के मिलने का समय निकला जा रहा है। शीघ्रता कीजिये। कपाट खोलिये।’
– ‘लेकिन यह समय तो भगवान के विश्राम का है। संध्या काल में आना, तभी कपाट खुलेंगे।’
– ‘नहीं-नहीं संध्या काल में नहीं। आप देखते नहीं कि मुझे गोविंददेवजी को बहुत जरूरी चीज देनी है?’
– ‘क्या जरूरी चीज देनी है?’
– ‘नहीं-नहीं। वह मैं आपको नहीं बता सकता। आप कृपा करके कपाट खोलिये।’
– ‘अच्छा! आप यहीं ठहरिये महंतजी से पूछना पड़ेगा।’
खान चिलचिलाती दुपहरी में वहीं धरती पर बैठ गया और जोर-जोर से रोने लगा। गर्मी से उसकी त्वचा पर छाले पड़ गये। सेवकों ने उसकी यह दशा देखी तो वे दौड़े-दौड़े महंतजी के पास गये- ‘महाराज! एक विक्षिप्त और वृद्ध खान आया है और मंदिर के कपाट खोलने की जिद्द कर रहा है। अभी इसी समय।’
– ‘क्या चाहता है? कौन है?’
– ‘महाराज, यह तो वह नहीं बताता कि कौन है। विक्षिप्त जैसा लगता है। कभी कहता है कि गोविंददेव से मिलने का समय निकला जा रहा है और कभी कहता है कि गोविंददेव को कुछ जरूरी चीज देनी है।’
– ‘यदि वह विक्षिप्त है तो उसे भगाओ वहाँ से और यदि विक्षिप्त नहीं है तो जानने का प्रयास करो कि वह वास्तव में कौन है और क्या चाहता है?’ महंतजी ने ऊंघते हुए कहा। महंतजी अपने विश्राम में किसी तरह का खलल नहीं चाहते थे।
– ‘महाराज! वह चिचिलाती धूप में मंदिर के दरवाजे के सामने बैठा रो रहा है।’
– ‘तो रोने दो उसे। थोड़ी देर में चला जायेगा।’
सेवकों ने फिर से मुख्य द्वार पर आकर देखा, खान उसी तरह बैठा हुआ रो रहा था। सेवकों को लौट आया देखकर वह पुनः खड़ा हो गया- ‘पूछ आये महंतजी से? अब तो खोलो कपाट।’
सेवक उसकी बात का जवाब न देकर चुपचाप लौटने लगे। कपाट खुलते न देखकर खान और भी अधीर हो गया। उसने वहीं खड़े होकर जोर जोर से गाना आरंभ किया-
कमल – दल नैननि की उनमानि ।
बिसरत नाहिं सखी मो मन ते मंद मंद मुसकानि।।
यह दसननि दुति चपला हूँ ते महा चपल चमकानि।
वसुधा की सबकरी मधुरता सुधा पगी बतरानि।
चढ़ी रहे चित उर बिसाल की मुकुलमाल थहरानि।
नृत्य समय पीतांबर हू की फहरि फहरि फहरानि।
अनुदित श्री वृंदावन ब्रज वे आवन आवन जानि।
अब रहीम चित्त ते न टरति है सकल स्याम की बानि।।
जाने क्या था खान के शब्दों में कि सेवक वहीं ठहर कर सुनने लगे। अचानक उन्होंने देखा कि मंदिर के कपाट स्वतः खुलने लगे और एक बालक बाहर आया। उसने खान का हाथ पकड़ कर पूछा- ‘क्यों रहीम! क्यों रोते हो?’
– ‘कोई मुझे भीतर नहीं जाने देता।’
– ‘क्या करोगे भीतर जाकर? मैं तो यहीं आ गया।’ बालक ने खान का हाथ थाम कर कहा।
– ‘तुम कौन हो?’
– ‘मुझे नहीं जानते?’
– ‘नहीं!’
– ‘मैं तुम्हारा गोविंददेव।’
– ‘अच्छा बताओ तो मैं आपके लिये क्या लाया हूँ?’ खान ने पूछा।
– ‘तुम मुझे अपना मन देने लाये थे, मैंने तुम्हारा मन ले लिया। अब और क्या काम है?’ बालक ने मुस्कुरा कर पूछा।
– ‘प्रसाद चाहिये।’
– ‘ये लो, प्रसाद भी लो और अब जाओ वापिस।’ बालक ने अपनी मुठ्ठी में से खान को प्रसाद दिया।
– ‘मैं ऐसे नहीं जाऊँगा।’
– ‘तो फिर कैसे जाओगे?’
– ‘तुम्हें छिपा कर जाऊँगा।’
– ‘क्यों? छिपा कर क्यों?’
– ‘ताकि कोई तुम्हें देख नहीं सके।’
– ‘तुम मुझे कहाँ छुपाओगे रहीम? जहाँ भी छुपाओगे कोई न कोई ढूंढ ही लेगा।’
– ‘एक जगह है मेरे पास, वहाँ आपको कोई नहीं ढूंढ सकेगा।’
– ‘कौनसी जगह है?’
– ‘मेरे हृदय में बहुत अंधेरा है नाथ। आप वहाँ छिपकर रहिये। आप को वहाँ कोई भी नहीं ढूंढ सकेगा।
नवनीतसार मपह्यत्य शंकया स्वीकृतं यदि पलायनं त्वया।
मानसे मम घनान्धतामसे नन्दनन्दन कथे न लीयसे।’
खान फिर से रो-रो कर गाने लगा।
– ‘अच्छा तो ठीक है मैं तुम्हारे हृदय में छुप कर रहूंगा। देखो, किसी को बता न देना।’
– ‘नहीं नाथ! मैं किसी को नहीं बताऊँगा।’
– ‘अच्छा, अब यहाँ से चलें! यह महंतजी के विश्राम का समय है।’
मंदिर के सेवकों ने जब यह दृश्य देखा तो उनकी आँखें फटी की फटी रह गयीं। उन्होंने दौड़कर महंतजी को सारा किस्सा बताया। महंतजी शैय्या त्याग कर खड़ाऊँ की खट्-खट् करते हुए जब तक द्वार पर आये तब तक द्वार पर कोई नहीं रह गया था। न खान और न प्रसाद देने वाला बालक।[2]
[1] रत्नाकरोऽस्ति सदनं गृहिणी च पद्मा
किं देयमस्ति भवते जगदीश्वराय।
राधागृहीतमनसे मनसे च तुभ्यं
दत्तं मया निजमनस्तदिदं गृहाण।।- खानखाना कृत।
[2] विद्या निवास मिश्र रहीम र्गंथावली की भूमिका में इस घटना का उल्लेख किया गया है।