नवम्बर 1554 में हुमायूँ अकबर को अपने साथ लेकर भारत अभियान के लिए चल पड़ा। उस समय हुमायूँ का छोटा पुत्र मिर्जा हकीम केवल छः माह का शिशु था जिसे हुमायूँ ने काबुल में ही छोड़ दिया था।
ई.1540 में जिस समय हुमायूँ भारत छोड़कर गया था, उस समय शेराशाह सूरी के राज्य का उदय हो रहा था और जब ई.1554 में हुमायूँ वापस लौट रहा था, तब शेरशाह का राज्य किसी धूमकेतु की तरह अपनी चमक बिखेकर लुप्त हो रहा था। इस समय शेरशाह सूरी की सल्तनत खण्ड-खण्ड हो चुकी थी। बची-खुची सल्तनत में भी तीन सुल्तान हो गए थे जो एक दूसरे के प्राणों के प्यासे थे। उन तीनों में से किसी को होश नहीं था कि हुमायूँ रूपी आफत उनके सिर पर मण्डरा रही है।
हुमायूँ के भारत में प्रवेश करने से पहले हमें उस शेरशाह सूरी के सम्बन्ध में कुछ चर्चा करनी चाहिए जिसने ई.1540 में हुमायूँ से उसकी सल्तनत छीनी थी। हुमायूँ पर विजय प्राप्त करने के बाद शेरशाह सूरी केवल 5 वर्ष ही शासन कर सका। ई.1545 में कालिंजर दुर्ग पर किए गए अभियान में अपनी ही तोप के फट जाने से शेरशाह की मृत्यु हो गई।
शेरशाह सूरी ने अपने शासन की पांच साल की संक्षिप्त अवधि का अधिकांश भाग युद्ध के मैदानों में व्यतीत किया था और उसने आगरा तथा दिल्ली में कुछ महीने ही बिताए थे। इस कारण शेरशाह को अपनी सल्तनत को व्यवस्थित करने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिला था। फिर भी भारतीय इतिहासकारों ने शेरशाह सूरी के शासनतंत्र, करप्रणाली, अर्थव्यवस्था, भूमि-प्रबंधन, न्याय व्यवस्था, यातायात व्यवस्था, कृषि प्रबंधन तथा सार्वजनिक निर्माण के इतने गुण गाए हैं कि भारत के इतिहास के आधे पन्ने शेरशाह सूरी के गुणगान से भर गए हैं और वह मौर्य सम्राटों चंद्रगुप्त मौर्य एवं अशोक तथा गुप्त सम्राटों समुद्रगुप्त एवं चंद्रगुप्त द्वितीय से भी अधिक सफल एवं महान् ठहरा दिया गया है।
इन इतिहासकारों के ग्रंथों को पढ़कर ऐसा लगता है कि आज भारत में शासन व्यवस्था के जो विभिन्न तत्व मौजूद हैं वे शेरशाह सूरी द्वारा ही निर्मित किए गए थे। उससे पहले भारत में कुछ भी नहीं था। भारत के लोगों को न तो भूमि की नपाई करनी आती थी, न सड़कें बनानी आती थीं, न सड़कों के किनारे पेड़ लगाने आते थे, न प्याऊ और धर्मशालाओं के बारे में कोई चिंतन था। न कोई डाक-व्यवस्था उपलब्ध थी। दूरस्थ-व्यापार और वाणिज्य के बारे में तो कोई सोच भी नहीं सकता था! जबकि ऐसा बिल्कुल भी नहीं था। भारत में शासन के ये तत्व हजारों साल से व्यवहार में लाए जा रहे थे।
शेरशाह सूरी की प्रशंसा में लिखा गया अधिकांश इतिहास साम्यवादी विद्वानों, मुस्लिम इतिहासकारों एवं जवाहरलाल नेहरू के समाजवादी चिंतन से ग्रस्त लेखकों द्वारा लिखा गया है। इन इतिहासकारों की सम्मति में शेरशाह सूरी की शासन व्यवस्थाओं का मुकाबला भारत का केवल एक ही शासक कर सका था और वह था शेरशाह का परवर्ती बादशाह जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर!
इतिहास लेखन की दृष्टि से यह एक शर्मनाक स्थिति है किंतु अन्य भारतीय इतिहासकारों ने भी इन इतिहासकारों की तुष्टिकरण करने वाली लेखनी को सामान्यतः चुनौती नहीं दी है। वस्तुतः भारत विश्व के प्राचीनतम देशों में से एक है। इस देश में शासन व्यवस्था, कर प्रणाली, कृषि प्रबंधन, अर्थव्यवस्था, भूमि प्रबंधन, न्याय व्यवस्था, यातायात व्यवस्था तथा सार्वजनिक निर्माण के तत्व विगत हजारों वर्षों से मौजूद हैं।
भारत में हजारों ऐसे ग्रंथ थे जो भारत की प्राचीन शासन व्यवस्थाओं एवं प्रणालियों की जानकारी देते थे किंतु उन्हें शक, कुषाण, हूण, तुर्क एवं मुगल आदि बर्बर आक्रांताओं द्वारा जलाकर नष्ट कर दिया गया। फिर भी अथर्ववेद, मनुस्मृति तथा आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य का अर्थशास्त्र जैसे कुछ ग्रंथ अब भी हमारे पास उपलब्ध हैं जो भारत देश की प्राचीनतम प्रशासनिक व्यवस्थाओं एवं प्रणालियों की जानकारी देते हैं।
भारतीय इतिहासकारों द्वारा कहा जाता है कि शेरशाह सूरी ने जी.टी. रोड अर्थात् ग्रांड ट्रंक रोड का निर्माण करवाया। इससे बड़ा झूठ और कोई हो नहीं सकता! भारत भूमि के पूरब से पश्चिम तक जाने वाला यह विशाल मार्ग न केवल महात्मा बुद्ध के काल में भी अस्तित्व में था, अपितु महात्मा बुद्ध से भी हजारों साल पहले उपलब्ध था जिस पर विशाल वाणिज्यिक सार्थवाह बंगाल के समुद्री तट से लेकर हिंदुकुश पर्वत तक विचरण किया करते थे।
कौटिल्य की पुस्तक अर्थशास्त्र के अनुसार मौर्यकाल में भारत में आन्तरिक व्यापार की सुविधा के लिए बड़े-बड़े राजमार्ग उपलब्ध थे। पाटलिपुत्र से पश्चिमोत्तर को जाने वाला मार्ग 1500 कोस लम्बा था। दूसरा महत्वपूर्ण मार्ग हैमवतपथ था जो हिमालय की ओर जाता था। दक्षिण भारत के विभिन्न हिस्सों में जाने के लिए भी अनेक मार्ग बनाए गए थे। कौटिल्य के अनुसार दक्षिणापथ में भी वह मार्ग सबसे अधिक महत्वपूर्ण था जो खानों से होकर जाता है जिस पर गमनागमन बहुत होता है और जिस पर परिश्रम कम पड़ता है।
केवल इसी एक तथ्य से इस बात की पोल खुल जाती है कि भारतीय इतिहासकारों ने शेरशाह सूरी के विषय में कितना पिष्टपेषण किया है और तुष्टिकरण की कैसी सीमाएं लांघी हैं!
कुछ इतिहासकारों ने तो शेरशाह सूरी को राष्ट्रनिर्माता तक घोषित कर दिया है। जब हम इस विषय में विचार करते हैं तो पाते हैं कि शेरशाह ने मुसलमान प्रजा को हिन्दू प्रजा की अपेक्षा अधिक सुविधायें दीं तथा अफगानों को अन्य मुसलमानों की अपेक्षा आर्थिक एवं राजनीतिक उन्नति के अधिक अवसर उपलब्ध करवाए।
शेरशाह ने हिन्दुओं तथा मुसलमानों के मुकदमों का निर्णय करने के लिये अलग-अलग कानून बनाए। हिन्दुओं पर जजिया पूर्ववत् जारी रखा। उसके राज्य में हिन्दू अपने धर्म का पालन तभी कर सकते थे जब वे जजिया चुका दें। उसने हिन्दुओं के राज्यों का उन्मूल करने में साधारण नैतिकता का भी पालन नहीं किया और हिन्दुओं को शासन तथा सेना में उच्च पद नहीं दिये।
ऐसी स्थिति में शेरशाह को भारत राष्ट्र का निर्माता नहीं माना जा सकता। हाँ, वह भारत में द्वितीय अफगान राष्ट्र का निर्माता अवश्य था जिसमें इस देश के बहुसंख्य हिन्दुओं के लिए बराबरी का स्थान नहीं था। फिर भी इतना अवश्य कहा जा सकता है कि शेरशाह सूरी का शासन उसके पूर्ववर्ती तुर्क शासकों एवं बाबर तथा हुमायूँ के शासन से अच्छा था। शेरशाह के शासन में उत्तर भारत के हिन्दुओं पर वैसे अत्याचार नहीं हुए थे जैसे अत्याचार उसके पूर्ववर्ती अफगान शासकों के काल में हुए थे!
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता