भारत में भू-राजस्व व्यवस्था की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारत में वैदिक काल से ही राजा को प्रजा से भोग प्राप्त करने का अधिकार था। भोग, किसी भी प्रकार के उत्पादन का प्रायः छठा अंश होता था जो प्रजा से राजन्य को मिलता था और राजन्य उसके बदले में अपनी प्रजा की शत्रुओं से सुरक्षा करता था तथा प्रजा की आध्यात्मिक उन्नति के प्रयास करता था। प्रान्तीय शासक जो कि राजन्य के लिये भोग एकत्र करते थे भोगिक अथवा भोगपति कहलाते थे। यही वैदिक व्यवस्था आगे चलकर भू-राजस्व व्यवस्था के रूप में विकसित हुई।
हिन्दू शासकों के काल में भू-राजस्व वसूली व्यवस्था
गुप्तकाल में राज्य की आय का मुख्य साधन भूमिकर था, जिसे भाग, भोग या उद्रेग कहते थे। यह उपज का 1/6 भाग अर्थात् लगभग 16.6 प्रतिशत होता था। चंद्रगुप्त मौर्य के शासन में राज्य की आय का प्रधान साधन भूमि-कर था। राज्य द्वारा किसानों से उपज का चौथा भाग अर्थात् 25 प्रतिशत कर के रूप में लिया जाता था। विशिष्ट परिस्थितियों में केवल आठवां भाग अर्थात् 12.5 प्रतिशत कर के रूप में लिया जाता था। सम्राट को किसानों से पशु भी भेंट के रूप में मिलते थे। नगरों में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के विक्रय-मूल्य का दसवां भाग राज्य को कर के रूप में मिलता था। हर्षवर्धन भी गुप्तों की भांति अपनी प्रजा से उपज का केवल छठा भाग कर के रूप में लेता था। राजपूत शासक भी उपज का 1/6 से लेकर 1/4 अंश भू-राजस्व के रूप में प्राप्त करते रहे।
दिल्ली सल्तनत काल में भू-राजस्व वसूली व्यवस्था
दिल्ली सल्तनत काल में कुतुबुद्दीन ऐबक ने लगान-सम्बन्धी पुराने नियम ही चालू रखे किंतु उसके बाद के मुस्लिम शासकों ने भू-राजस्व लगभग दो से तीन गुना तक बढ़ा दिया। राजस्व वसूली का काम हिन्दू अधिकारी ही करते रहे। अलाउद्दीन खिलजी के शासन में किसान की फसल में से 50 प्रतिशत हिस्सा राज्य का होता था। किसानों को चारागाह तथा मकान का भी कर देना पड़ता था। उसने लगान वसूली के लिए सैन्य अधिकारी नियुक्त किये तथापि वह पुरानी व्यवस्था को पूरी तरह नष्ट नहीं कर सका। लगान वसूली का कार्य अब भी हिन्दू मुकद्दम, खुत तथा चौधरी करते थे जिन्हें कुछ विशेषाधिकार प्राप्त थे। सुल्तान ने उनके समस्त विशेषाधिकारों को समाप्त करके उनका वेतन निश्चित कर दिया। खुत तथा बलहर अर्थात् हिन्दू जमींदारों पर इतना अधिक कर लगाया गया कि वे निर्धन हो गये। मुहम्मद बिन तुगलक ने दोआब पर कर में भारी वृद्धि की। बरनी के अनुसार बढ़ा हुआ कर, प्रचलित करों का दस तथा बीस गुना था। किसानों पर भूमि कर के अतिरिक्त घरी अर्थात गृह-कर तथा चरही अर्थात् चरागाह-कर भी लगाया गया। प्रजा को इन करों से बड़ा कष्ट हुआ। शेरशाह सूरी ने पैदावार का एक तिहाई अर्थात् 33 प्रतिशत हिस्सा लगान के रूप में लेना निश्चित किया।
मुगल काल में भू-राजस्व वसूली व्यवस्था
मुगल काल में भू-राजस्व उपज का 1/2 अर्थात् 50 प्रतिशत भू-राजस्व के रूप में देना पड़ता था। किसानों द्वारा घोर परिश्रम करने के बाद फसल तैयार होती थी, किन्तु भू-राजस्व एवं अन्य करों तथा चुंगियों को चुकाने के बाद उनके पास इतना अनाज बड़ी कठिनाई से बचता था कि वे अपना तथा अपने परिवार का पेट पाल सकें। जहांगीर तथा शाहजहां के समय में भी यही व्यवस्था चलती रही। औरंगजेब ने अकबर के समय के लगान (भू-राजस्व) निर्धारण का तरीका बदल दिया। औरंगजेब से पहले, सरकारी अधिकारी लगान वसूल करते थे किन्तु औरंगजेब ने किसानों से लगान वसूलने के लिये ठेकेदारी प्रथा आरम्भ की। ठेकेदार, किसानों से मनमाना लगान वसूलने लगे। इससे किसानों की दशा बिगड़ गई। दक्षिण के युद्धों में अत्यधिक धन की हानि होने से औरंगजेब ने किसानों एवं जनसाधारण पर कर बढ़ा दिये। इससे मुगल सल्तनत में असन्तोष बढ़ गया और विद्रोह की ज्वाला प्रज्वलित हो उठी। स्वयं औरंगजेब ऐसी स्थिति देखकर कहा करता था कि उसकी मृत्यु के बाद कैसा प्रलय आयेगा?
ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बंगाल में दीवानी के अधिकार
बक्सर युद्ध के बाद 1765 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बंगाल प्रांत की दीवानी के अधिकार प्राप्त किये जिससे भू-राजस्व वसूली का दायित्व कम्पनी का हो गया। यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के समय में भी भू-राजस्व ही कम्पनी की आय का मुख्य स्रोत बन गया। जिस समय कम्पनी ने यह दायित्व ग्रहण किया, उस समय बंगाल में राजस्व के तीन स्रोत थे-
(1.) माल: इसमें भू-राजस्व तथा नमक-कर सम्मिलित थे।
(2.) सेर: इसमें आयात-निर्यात-कर तथा पथ-कर सम्मिलित थे।
(3.) बाजी-जमा: इसमें आबकारी-कर, जुर्माना तथा अन्य कर सम्मिलित थे।
उपरोक्त तीनों स्रोतों में भू-राजस्व सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि वह राज्य की आय का 80 प्रतिशत था। मुगल काल से बंगाल में भू-राजस्व की वसूली के लिये सुदृढ़ व्यवस्था की गई थी जो कम्पनी का शासन प्रारम्भ होने तक ज्यों की त्यों थी।
भू-राजस्व वसूली के प्रमुख अधिकारी
ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा बंगाल में दीवानी का अधिकार प्राप्त करने के समय भू-राजस्व वसूली के प्रमुख अधिकारी इस प्रकार से थे-
कानूनगो: मुगल काल में भू-अभिलेखों को तैयार करने तथा उनके रख-रखाव का काम कानूनगो करता था। कानूनगो का पद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि वह जमींदारों के कार्यों पर दृष्टि रखता था, राजकोष में नियमित राजस्व जमा करता था तथा किसानों के हितों का ध्यान रखता था। मुगल सल्तनत के पतन के साथ ही कानूनगो का पद वंशानुगत हो गया। फलस्वरूप अब वह न तो राज्य के हितों की देखभाल करता था और न किसानों के हितों का ध्यान रखता था, वरन् जमींदारों के साथ मिलकर किसानों पर अत्याचार करने लगा।
आमिल: मुगलकालीन बंगाल में भू-राजस्व की वसूली आमिल करता था।
फौजदार: सीमान्त क्षेत्रों में जमींदारों से वसूली फौजदार करता था। मुगलों के बाद यह कार्य ऐसे व्यक्ति करने लगे जो स्थानीय क्षेत्रों में प्रभाव रखते थे। फलस्वरूप दूरस्थ क्षेत्रों का भू-राजस्व सीमित होता गया तथा किसान भूमि के वंशानुगत मालिक हो गये।
कम्पनी द्वारा राजस्व वसूली व्यवस्था में परिवर्तन
नायब दीवान: 1765 ई. में कम्पनी ने जब बंगाल में दीवानी का अधिकार प्राप्त किया, तब कम्पनी केवल भू-राजस्व प्राप्त करने की इच्छुक थी, न कि भूमि की स्थिति के बारे में चिन्तित थी। इसलिये कम्पनी ने भू-राजस्व की वसूली का कार्य दो नायब दीवानों को सौंप दिया। दोनों नायब दीवान भू-राजस्व वसूल करके, नवाब के कोष में रुपया जमा करा देते थे और नवाब के कोष से यह राशि कम्पनी के कोष में स्थानान्तरित कर दी जाती थी। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, कम्पनी की माँग में वृद्धि होती गई और वह भू-राजस्व की वसूली से सन्तुष्ट नहीं हुई। कम्पनी समझती थी कि नायब दीवानों द्वारा भू-राजस्व की रकम बीच में ही रख ली जाती है तथा किसान भी अपने हिस्से से अधिक का लगान अपने पास रख लेते हैं।
जिला निरीक्षक: 1769 ई. में कम्पनी द्वारा भू-राजस्व की वसूली के निरीक्षण के लिए जिला निरीक्षकों की नियुक्ति की गई। जिला निरीक्षक स्वयं भ्रष्ट थे। अतः यह व्यवस्था भी पर्याप्त प्रतीत नहीं हुई।
भू-राजस्व नियंत्रण परिषदें: कम्पनी द्वारा 1770 ई. में दो भू-राजस्व नियंत्रण परिषदें स्थापित की गईं। एक बंगाल के लिए, जिसका मुख्यालय मुर्शिदाबाद में रखा गया और दूसरी बिहार के लिए, जिसका मुख्यालय पटना रखा गया। ये दोनों परिषदें नायब दीवानों के कार्यों का निरीक्षण करती थीं।
भू-राजस्व नियन्त्रण समिति: भू-राजस्व नियंत्रण परिषदों के काम का निरीक्षण करने के लिये कलकत्ता में एक भू-राजस्व नियन्त्रण समिति स्थापित की गई।
कलक्टर: 1772 ई. में वारेन हेस्टिंग्ज ने भू-राजस्व प्रशासन में क्रांतिकारी सुधार लाते हुए दोनों नायब दीवानों का पद समाप्त कर अँग्रेजी निरिक्षकों को जिलों में राजस्व वसूल करने का काम सौंपा। इन निरीक्षकों को कलेक्टर (संग्राहक) पदनाम दिया गया। कलेक्टर की सहायता के लिए भारतीय दीवान नियुक्त किये गये। कलेक्टर का मुख्य कार्य लगान वसूल करना, लगान-पंजिका तैयार करना तथा दीवानी न्याय प्रदान करना था। सूबे का भू-राजस्व प्रशासन, गवर्नर तथा उसकी कौंसिल के हाथ में केन्द्रित कर दिया गया तथा इस कार्य के लिए उसे रेवेन्यू बोर्ड (राजस्व मण्डल) कहा जाने लगा। बोर्ड की सहायता के लिए एक भारतीय अधिकारी की नियुक्ति की गई जो राय-रायन कहलाता था।
पाँच वर्षीय बंदोबस्त
वारेन हेस्टिंग्स (1772-85 ई.) ने 1772 ई. में लगान वसूली के लिए एक वर्षीय समझौता प्रणाली निरस्त करके, पाँच वर्षीय समझौता प्रणाली लागू की। इस प्रणाली के अंतर्गत अधिकतम बोली लगाने वाले व्यक्ति को पाँच वर्ष के लिए लगान वसूली का कार्य सौंपा जाता था। सामान्यतः इस कार्य के लिए जमींदारों को प्राथमिकता दी जाती थी।
प्रांतीय परिषदों की स्थापना
वारेन हेस्टिंग्ज द्वारा स्थापित उपरोक्त व्यवस्था विशेष कारगर सिद्ध नहीं हुई। अतः नवम्बर 1773 में गवर्नर तथा उसकी कौंसिल ने एक नई योजना स्वीकृत की जो दो भागों में थी- प्रथम भाग की योजना अस्थायी थी जिसे तुरन्त लागू करना था तथा दूसरे भाग की योजना स्थायी थी, जिसे भविष्य में लागू करना था। अस्थाई योजना को 1774 ई. में लागू कर दिया गया। इस योजना के अनुसार बंगाल प्रेसीडेन्सी को छः डिवीजनों में विभक्त किया गया- कलकत्ता, मुर्शिदाबाद, पटना, बर्दवान, दीनाजपुर और ढाका। प्रत्येक डिवीजन में एक प्रान्तीय परिषद स्थापित की गई जिसमें कम्पनी के पाँच वरिष्ठ अधिकारी होते थे। पाँच सदस्यों की इस परिषद में दो सदस्य गवर्नर की कौंसिल के सदस्य होते थे। परिषद को सहायता देने के लिये एक भारतीय अधिकारी नियुक्त किया गया, जो परिषद के लिए दीवान के रूप में कार्य करता था। कलेक्टरों को वापिस बुला लिया गया तथा उन्हें प्रान्तीय परिषदों के मुख्यालायों पर नियुक्त करके उन्हें इन परिषदों को सहायता देने को कहा गया। कलेक्टरों के स्थान पर भारतीय राजस्व अधिकारी नियुक्त किये गये जिन्हें नायब कहा जाता था। ये नायब भू-राजस्व वसूल करते थे और दीवानी अदालतों की अध्यक्षता करते थे।
एक वर्षीय व्यवस्था
वारेन हेस्टिंग्स ने 1772 ई. में जो पाँच वर्षीय समझौता प्रणाली लागू की थी, उसकी अवधि 1777 ई. में समाप्त हो रही थी। बंगाल कौंसिल में इस बारे में भारी मतभेद उत्पन्न हो गये कि भू-राजस्व व्यवस्था की क्या प्रणाली हो? अतः कम्पनी के संचालकों ने कौंसिल द्वारा अन्तिम निर्णय लेने तक एक वर्षीय बन्दोबस्त लागू करने को कहा। इस कारण 1778 ई. से नीलामी पुनः प्रतिवर्ष होने लगी जिससे कम्पनी को भू-राजस्व की हानि हुई।
प्रांतीय परिषदों की समाप्ति तथा राजस्व समिति की स्थापना
1781 ई. में योजना का स्थायी भाग लागू किया गया। प्रान्तीय परिषदें समाप्त करके कलेक्टरों को वापिस केन्द्र में बुला लिया गया। जिलों का भू-राजस्व प्रशासन नायबों के पास ही रखा गया। रंगपुर, चित्रा और भागलपुर आदि कुछ जिलों में फिर से ब्रिटिश कलेक्टरों की नियुक्ति की गई। केन्द्र में चार सदस्यों की नई राजस्व समिति बनाई गई जिसमें कम्पनी के सर्वोच्च अधिकारी रखे गये। उनकी सहायता के लिए एक भारतीय दीवान रखा गया। राय-रायन के पद को बनाये रखा गया किन्तु वह दीवान के कार्र्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। राजस्व समिति के सदस्यों को स्थिर वेतन देने के स्थान पर, प्राप्त होने वाले भू-राजस्व का दो प्रतिशत देना तय किया गया। समिति के अध्यक्ष को अधिक हिस्सा दिया जाता था। गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल इस राजस्व समिति से निरन्तर संपर्क बनाये रखती थी ताकि समय-समय पर निर्देश दे सके तथा उसका निरीक्षण कर सके।
जिलों में कलक्टरों की पुनः नियुक्ति
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि अभी तक कम्पनी भू-राजस्व व्यवस्था के लिए रास्ता खोज रही थी। इसीलिए हेस्टिंग्ज एक के बाद दूसरा प्रयोग करता रहा, जिसमें उसे सफलता नहीं मिली। फिर भी, राजस्व मण्डल की स्थापना तथा कलेक्टर के पद का सृजन, भू-राजस्व के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कदम थे। फरवरी 1785 में वारेन हेस्टिंग्ज के जाने के बाद मेकफर्सन ने कार्यवाहक गवर्नर जनरल के रूप में कार्य किया। उसके समय में कलेक्टरों को वापिस जिलों में भेज दिया गया तथा जिलों का पुनर्गठन कर उन्हें राजस्व मण्डल का नाम दिया गया। गवर्नर जनरल की कौंसिल के सदस्य को इसका अध्यक्ष एवं पांचवा सदस्य नियुक्त किया गया।
शिरेस्तेदार की नियुक्ति
जुलाई 1786 में मुख्य शिरेस्तेदार का नया पद सृजित किया गया, जो कानूनगो से भू-राजस्व के अभिलेख एवं सूचनाएँ एकत्रित करता था।
पांच वर्षीय बन्दोबस्त से जमींदारों में असंतोष
1772 ई. में जब पाँच वर्षीय बन्दोबस्त लागू किया गया, उस समय अधिक बोली लगाने वाले जमींदार को लगान वसूली का ठेका दे दिया गया। इससे नये जमींदारों का जन्म हुआ। वे पहले एक किरायेदार की भाँति थे, जो भूमि का निश्चित किराया दिया करते थे किन्तु अब वे भूमि के स्वामित्व की माँग करने लगे। दूसरी और जिन जमींदारों को अपदस्थ किया गया था, वे मुआवजे की माँग कर रहे थे क्योंकि उनकी स्थिति वंशानुगत हो चुकी थी। वे अपनी रैय्यत से भू-राजस्व वसूल करते थे, जिनमें से 9/10 भाग राज्य में जमा करा देते थे।
इंग्लैण्ड में भारतीय जमींदारों के प्रति सहानुभूति
वारेन हेस्टिंग्ज के समय कौंसिल के एक सदस्य फ्रांसिस ने जमींदारों के साथ भूमि का स्थायी प्रबन्ध करने की वकालात की थी ताकि प्रणाली में स्थिरता आ सके, किन्तु हेस्टिंग्ज, जमींदारों के साथ उनके जीवन भर के लिए अथवा दूसरी पीढ़ी तक के लिए समझौता चाहता था। इसलिए जब 1777 ई. में पाँच वर्षीय बन्दोबस्त की अवधि समाप्त हुई तब कम्पनी के संचालकों ने कौंसिल द्वारा अन्तिम निर्णय लेने तक एक वर्षीय बन्दोबस्त लागू करने को कहा। कौंसिल में इस सम्बन्ध में विचार-विमर्श चलता रहा। 1780 ई. में इंग्लैण्ड में फ्रांसिस के मत को काफी समर्थन प्राप्त हो गया। इधर भारत में गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्ज द्वारा चेतसिंह के साथ किये गये दुर्व्यवहार के कारण बिहार के जमींदारों ने विद्रोह कर दिया था तथा इंग्लैण्ड में यह विचार प्रबल हो रहा था कि जमींदारों के साथ सद्भावपूर्ण व्यवहार करके उन्हें ब्रिटिश शासन के समर्थक वर्ग के रूप में परिवर्तित किया जाए। 1784 ई. में पिट्स इण्डिया एक्ट पारित हुआ जिसमें भूमि का स्थायी बन्दोबस्त करने को कहा गया तथा जमींदारों के पक्ष में सहानुभूति व्यक्त की गई।
कार्नवालिस के सुधार
सितम्बर 1786 में लॉर्ड कार्नवालिस गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। कम्पनी के संचालकों ने कार्नवालिस को जमींदारों के साथ उदार शर्र्ताें पर समझौता करने का आदेश दिया ताकि जमींदारों से समय पर तथा नियमित रूप से भू-राजस्व प्राप्त होता रहे। इस समय सर जॉन शोर, राजस्व मण्डल का अध्यक्ष था। उसने राजस्व सम्बन्धी मामलों में पर्याप्त अनुभव प्राप्त कर लिया था। मुख्य शिरेस्तेदार जेम्स ग्राण्ट राजस्व अभिलेखों की जानकारी प्राप्त कर रहा था। कुछ ही समय में वह भी राजस्व सम्बन्धी मामलों का ज्ञाता हो गया।
कार्नवालिस के प्रारम्भिक सुधार
कार्नवालिस ने इन अनुभवी अधिकारियों के सहयोग से कुछ प्रारम्भिक सुधार किये। जिलों की संख्या 35 से घटाकर 23 कर दी। कलेक्टरों की शक्तियों में वृद्धि करके उन्हें दीवानी न्याय के अधिकार दे दिये। कुछ समय बाद उन्हें फौजदारी न्याय के अधिकार भी दे दिये। कलेक्टरों के वेतन में वृद्धि की गई तथा उन्हें वेतन के अतिरिक्त भू-राजस्व वसूली का कमीशन भी मिलने लगा।
1777 ई. में जो एक वर्षीय व्यवस्था की गई थी, वह उस समय तक के लिए थी जब तक कि कार्नवालिस भू-राजस्व व्यवस्था का पूरा अध्ययन करके कोई स्थायी योजना न बना ले। अतः कार्नवालिस ने कुछ प्रारम्भिक परिवर्तन करके आवश्यक सूचनाएँ एकत्र कीं तत्पश्चात् भू-राजस्व प्रणाली पर नियमित विचार-विमर्श आरम्भ हुआ। इस विचार-विमर्श के दौरान दो प्रकार की विचारधाराएँ सामने आईं।
जेम्स ग्राण्ट का मत
जेम्स ग्राण्ट ने दस्तावेजों के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि जमींदारों की तो कोई स्थिति ही नहीं है, न तो उन्हें भूमि का स्वामी माना जा सकता हैं और न भू-राजस्व एकत्रित करने से सम्बन्धित राज्य का अधिकारी ही माना जा सकता है। अतः जेम्स ग्राण्ट का विचार था कि स्थायी व्यवस्था के स्थान पर कोई दीर्घ अवधि की व्यवस्था की जाये और राज्य को भूमि का स्वामी माना जाय, ताकि राज्य को यह अधिकार हो कि वह किसानों से किसी भी सीमा तक अपनी भू-राजस्व की माँग बढ़ा सके।
सर जॉन शोर का मत
सर जॉन शोर चाहता था कि जमींदारों को ही भूमि का वास्तविक स्वामी माना जाये। राज्य की ओर से भू-राजस्व की माँग संविदा के सिद्धान्त पर आधारित होनी चाहिए तथा निर्धारित सीमा से ऊपर उसमें वृद्धि नहीं की जानी चाहिए। वह भी कोई दीर्घ अवधि की व्यवस्था जमींदारों के साथ मिलकर करने का पक्षपाती था ताकि उन्हें भूमि के विकास हेतु प्रोत्साहन मिल सके, इससे राज्य की भी समृद्धि होगी। सर जॉन शोर भी कोई स्थायी प्रबन्ध करने के पक्ष में नहीं था, क्योंकि उसका विचार था कि राज्य में भू-राजस्व वसूल करने वाला विभाग अभी अपरिपक्व है तथा भू-राजस्व सम्बन्धी जो सूचनाएँ एकत्रित की गई हैं, वे स्थायी प्रबन्ध के लिए अपर्याप्त हैं। लॉर्ड कार्नवालिस, यद्यपि सर जॉन शोर के विचारों से सहमत था किन्तु वह उसके इस विचार से सहमत नहीं था कि जमींदारों से स्थायी व्यवस्था करने के लिए पर्याप्त सूचनाएँ नहीं हैं।
दस वर्षीय बंदोबस्त (1790 ई.)
कार्नवालिस स्वयं इंग्लैण्ड में भू-स्वामी था और भारत में जमींदारों का ऐसा वर्ग तैयार करना चाहता था जो साम्राज्य का सुदृढ़ आधार बने। वह कम्पनी के संचालकों से विस्तृत निर्देश लेकर भारत आया था। पिट्स इण्डिया एक्ट (1784 ई.) में भी स्थायी प्रबन्ध करने की बात कही गई थी, इससे वह बहुत उत्साहित था। अतः 1790 ई. में उसने जमींदारों से दस वर्षीय समझौता कर लिया। उसने घोषित किया कि इसे स्थायी भी किया जा सकता है। कम्पनी के संचालक मण्डल ने दस वर्षीय समझौते का अनुमोदन करते हुए कहा कि यदि यह समझौता सफल रहता है तो इसे स्थायी कर दिया जाये।
भू-राजस्व संग्रहण में बेतहाशा वृद्धि
1764-65 ई. में मीर जाफर के शासन काल में बंगाल से 8.17 लाख पौण्ड भू-राजस्व एकत्रित किया गया था। कम्पनी द्वारा दीवानी का अधिकार प्राप्त करने के पहले ही वर्ष में अर्थात् 1765-66 ई. में कम्पनी द्वारा 14.70 लाख पौण्ड भू-राजस्व कर एकत्रित किया गया। हेस्टिंग्ज तथा कार्नवालिस द्वारा किये गये उपायों का परिणाम यह हुआ कि 1790-91 ई. में कम्पनी ने 26.80 लाख पौण्ड भू-राजस्व एकत्रित किया गया। अर्थात् बंगाल की दीवानी का अधिकार प्राप्त करनके 26 वर्ष की अवधि में भू-राजस्व संग्रहण 328 प्रतिशत (3.28 गुना) पहुंच गया किंतु सर जॉन शोर को अब भी संतोष नहीं था। वह भारतीय किसानों को पूरी तरह चूसने पर तुला था।
स्थायी बंदोबस्त (1793 ई.)
तीन वर्ष बाद बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल के अध्यक्ष डूण्डास ने इस समझौते को स्थायी करने का अनुरोध किया किन्तु सर जॉन शोर स्थायी प्रबन्ध के पक्ष में नहीं था। अतः डूण्डास ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री विलियम पिट्स से विचार-विमर्श किया। पिट्स ने इसे स्थायी करने के आदेश दिये। तदनुसार 22 मार्च 1793 को कार्नवालिस ने इस प्रबन्ध को स्थायी करने की घोषणा की। 1793 ई. के स्थायी प्रबन्ध में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गईं-
(1.) जमींदारों को भूमि का वास्तविक स्वामी मान लिया गया तथा उसे पैतृक और हस्तांतरणीय बना दिया गया किन्तु यह भी कहा गया कि यदि जमींदार पूर्व निर्धारित तिथि तक के सूर्यास्त तक कम्पनी सरकार को लगान नहीं चुकायेंगे, तो उनकी भूमि का कोई भाग, उस भू-राजस्व की वसूली के लिए, राज्य बेच सकेगा। यह व्यवस्था इंग्लैण्ड की जमींदारी प्रथा से प्रेरित थी।
(2.) चूँकि राज्य, भू-राजस्व संग्रहण क दायित्व से मुक्त हो गया है, अतः जमींदारों से किसी अन्य कर का दावा नहीं किया जायेगा।
(3.) जमींदारों से जो राजस्व की दर निश्चित की गई वह 1765 ई. की दर से दुगुनी थी, क्योंकि कम्पनी का कहना था कि इस स्थायी प्रबन्ध के बाद यदि उत्पादन बढ़ता है और राज्य की समृद्धि होती है तो भी राज्य को इस दर में वृद्धि करने का अधिकार नहीं होगा। न्यायालय से स्वीकृति प्राप्त किये बिना इस दर में वृद्धि नहीं की जा सकेगी।
(4.) जमींदारों से समस्त न्यायिक अधिकार छीन लिये गये।
(5.) जमींदार तथा उनकी रैय्यत के बीच सम्बन्धों के बारे में जमींदारों को स्वतंत्र कर दिया गया किन्तु जमींदारों से कहा गया कि वे अपनी रैय्यत को पट्टे जारी करें, जिनमें जमींदारों एवं रैय्यत के बीच पारस्परिक सम्बन्धों का उल्लेख हो। यदि कोई जमींदार, रैय्यत को दिये गये पट्टे का उल्लंघन करेगा तो रैय्यत को उसके विरुद्ध न्यायालय में जाने का अधिकार होगा।
स्थायी भू-प्रबन्ध की विशेषताएँ
भूमि की उपज का उपभोग करने वाले तीन पक्ष होते थे- सरकार, जमींदार और किसान। कार्नवालिस ने सरकार के लिए राजस्व निर्धारित करके तथा जमींदारों के अधिकारों की घोषणा करके, सरकार और जमींदारों के हितों की तो रक्षा की, किन्तु किसानों को जमींदारों की दया पर छोड़ दिया। कार्नवालिस ने उन समस्त लोगों को जमींदार मान लिया जो 1793 ई. में भू-स्वामी थे। इस प्रबन्ध द्वारा कार्नवालिस ने भूमि को सम्पत्ति मानकर उसके स्वामी को बेचने, दान देने अथवा दूसरे को हस्तांतरित करने का अधिकार प्रदान कर दिया। ऐसा करते समय सरकार से पूर्व अनुमति लेना आवश्यक नहीं था। 1793 ई. के पहले जमींदार को लगान वसूल करने का अधिकार अवश्य था किन्तु भूमि को सम्पत्ति नहीं माना गया था। इसलिए कोई भी जमींदार भूमि को न बेच सकता था, न दान दे सकता था और न हस्तान्तरित कर सकता था।
स्थायी बन्दोबस्त के सम्बन्ध में विद्वानों के मत
बंगाल के इस स्थायी बन्दोबस्त के सम्बन्ध में विद्वानों ने अलग-अलग मत व्यक्त किये हैं। कुछ विद्वानों ने इसे श्रेष्ठ व्यवस्था बताया है तो कुछ विद्वानों ने इसकी जमकर आलोचना की है। जे. सी. मार्शमेन के अनुसार- ‘यह साहसिक, निर्भीक एवं बुद्धिमत्तापूर्ण कदम था….. लोगों के हृदय में पहली बार अपनी धरती के प्रति अटल अधिकार और अविचल लगाव के भाव पैदा किये। फलस्वरूप आबादी बढ़ी। खेती-बाड़ी का विकास हुआ तथा लोगों के स्वभाव तथा सुविधाओं में एक क्रमिक प्रगति स्पष्टतः दिखाई देने लगी।’
इसके विपरीत टी. आर. होम्स ने इसकी आलोचना करते हुए लिखा है- ‘स्थायी बन्दोबस्त एक भयंकर भूल थी। छोटे किसानों को इससे कोई लाभ प्राप्त नहीं हुआ। जमींदार भी बार-बार लगान चुकाने में असफल रहे जिससे उनकी जागीर सरकार के लाभ के लिए बेच दी गई।’
इसी प्रकार बैवरिज ने लिखा है- ‘जमींदारों के साथ समझौता करके एक भयंकर भूल तथा अन्याय-संगत बात की गई।’
बन्दोबस्त के गुण
(1.) इस व्यवस्था से राज्य की आय में पर्याप्त वृद्धि हुई, क्योंकि जो भू-राजस्व की दर निश्चित की गई थी, वह 1765 ई. की प्रचलित दर से लगभग दुगुनी थी।
(2.) इस व्यवस्था से पूर्व बार-बार भू-राजस्व निर्धारण में सरकार को समय और धन की हानि उठानी पड़ रही थी किन्तु अब स्थायी व्यवस्था होने से समय और धन की काफी बचत हो गयी।
(3.) कम्पनी की वार्षिक आय निश्चित हो गई जिससे अब कम्पनी को यह जानकारी हो गयी कि कितनी वार्षिक आय किस समय प्राप्त होगी। इसके आधार पर अब आर्थिक योजनाओं के निर्माण का कार्य सरल हो गया।
(4) स्थायी व्यवस्था लागू होने से कम्पनी के अधिकांश अधिकारी राजस्व कार्य से मुक्त हो गये जिससे उनकी सेवाएं प्रशासन के दूसरे कार्यों में उपलब्ध होने लगीं तथा कम्पनी अन्य प्रशासनिक सुधारों के बारे में सोचने लगी।
(5.) जमींदारों के साथ समझौता करके अँग्रेजों ने एक ऐसे वर्ग का सृजन किया जिस पर अँग्रेज अपने अस्तित्त्व के लिए निर्भर रह सकते थे। इस प्रकार समाज में एक स्वामिभक्त वर्ग का निर्माण हो गया, जो संकट के समय अँग्रेजों का पक्ष ग्रहण कर सकता था।
(6.) भू-राजस्व की दर निश्चित हो जाने से भूमि के विकास के लिए पूँजी लगाने तथा उत्पादन में वृद्धि होने की आशा की जा सकती थी, क्योंकि अब फसल हो या न हो, वार्षिक भू-राजस्व तो चुकाना ही था। अतः बंगाल में अधिक से अधिक भूमि को खेती योग्य बनाया गया, जिससे नये गाँव बसने लगे।
(7.) कृषि उत्पादन में वृद्धि होने से सम्पन्नता में वृद्धि होना स्वाभाविक था। भू-राजस्व सदैव के लिए निश्चित हो जाने से इस सम्पन्नता का राज्य को कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं था किन्तु इससे राज्य को परोक्ष लाभ मिलने की आशा थी, क्योंकि कृषि उत्पादन का विकास होने से व्यापार एवं लोगों के जीवन-स्तर में सम्पन्नता आना स्वाभाविक था तथा राज्य मनोरंजन कर, व्यापार कर और अन्य आर्थिक गतिविधियों पर कर ले सकता था।
(8.) इस व्यवस्था के लागू होने से पूरे बंगाल में एकरूपता आ गई। जमींदारों से न्यायिक शक्तियाँ छीन लिये जाने से दोहरा लाभ हुआ। अब जमींदार कृषि पर अधिक ध्यान दे सकते थे और न्यायिक शक्तियाँ ऐसे लोगों को हस्तान्तरित कर दी गईं जो इस कार्य में प्रशिक्षित थे।
(9.) इस व्यवस्था के समर्थकों का कहना है कि यदि इसमें जमींदारों का पक्ष लिया गया था तो रैय्यत के हितों की भी पूर्णतः उपेक्षा नहीं की गई थी क्योंकि जमींदारों के लिये अनिवार्य कर दिया गया कि वह रैय्यत को पट्टे दे। यदि वे रैय्यत के अधिकारों का अतिक्रमण करते तो रैय्यत को न्यायालय में जाने का अधिकार था।
बन्दोबस्त के दोष
(1.) हमारे देश में किसान ही भूमि का मालिक समझा जाता था और वह अपनी सुरक्षा के लिए राजा को कर देता था। स्थायी प्रबन्ध के अन्तर्गत जमींदारों के साथ समझौता करके किसानों से भूमि का स्वामित्व छीन लिया गया। मेटकॉफ ने लिखा है- ‘हमने एक स्वामी वर्ग तैयार कर देश की समस्त सम्पत्ति को नष्ट कर दिया और दूसरों की सम्पत्ति उस स्वामी वर्ग के अधीन कर दी।’
(2.) स्थायी बन्दोबस्त में भू-राजस्व की दर बहुत ऊँची निर्धारित की गई। जो जमींदार इस दर से लगान नहीं चुका सके, उनकी भूमि राज्य द्वारा बेच दी गई तथा इस कारण अनेक जमींदारों को उनके वंशानुगत अधिकार से वंचित कर दिया गया।
(3.) जो जमींदार कठिन परिश्रम करके राज्य की माँग के सामने टिक गये, वे आगे चलकर इतने धनवान हो गये कि गाँवों को छोड़कर शहरों में चले गये ओर वहाँ बड़ी विलासिता से रहने लगे। इससे एक परजीवी वर्ग की उत्पत्ति हुई, जो भूमि धारण तो करता था किन्तु उसकी देखभाल नहीं करता था। ऐसे जमींदारों ने रैय्यत से भू-राजस्व वसूल करने के लिए अपने एजेण्ट नियुक्त किए जो गाँवों में उप भू-स्वामी बन गये। ये एजेण्ट किसानों से अधिक-से-अधिक कर वसूल करने के लिए किसानों का शोषण करने लगे, जिससे किसानों की स्थिति दयनीय होती चली गई।
(4.) जमींदारों ने हर स्थान पर अपनी रैय्यत को पट्टे जारी नहीं किये और जहाँ पट्टे जारी किये उनका पूरी तरह से पालन नहीं किया। यद्यपि रैय्यत को जमींदारों के विरुद्ध न्यायालय में जाने का अधिकार था किंतु ऐसा करने के लिए उसे साधन उपलब्ध नहीं कराये गये। जमींदारों के पास समस्त तरह के साधन उपलब्ध होने से वह स्वेच्छा से जैसा चाहे कर सकता था।
(5.) भू-राजस्व स्थायी तौर पर निश्चित कर देने से राज्य को होने वाली आय भी निश्चित हो गई। भूमि की पैदावार यदि दस गुना भी बढ़ जाये तो भी इसका लाभ राज्य को नहीं मिल सकता था। इस व्यवस्था से राज्य के भावी लाभ पर प्रतिबन्ध लग गया। सेटनकार ने लिखा है- ‘स्थायी बन्दोबस्त से कुछ जमींदारों के हित प्राप्त किये गये, किसानों के हितों को स्थगित कर दिया गया और राज्य के हितों का सदैव के लिए बलिदान कर दिया गया।’
(6.) इस व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष यह था कि रैय्यत जो भूमि की वास्तविक मालिक थी, उसे अपने ही भूमि पर किरायेदार बना दिया गया।
(7.) इस व्यवस्था से राष्ट्रीयता को आघात पहुंचा। जमींदार वर्ग ब्रिटिश सत्ता का स्वामिभक्त बन गया। जब देश में राष्ट्रीय आन्दोलन आरम्भ हुए, तब इस वर्ग ने ब्रिटिश सरकार से सहयोग करके जनता की राष्ट्रीय भावनाओं का दमन किया।
(8.) बंगाल के स्थायी बन्दोबस्त का दुष्प्रभाव भारत के अन्य ब्रिटिश प्रान्तों पर भी पड़ा। कम्पनी बंगाल में भू-राजस्व नहीं बढ़ा सकती थी इसलिये उसने इस क्षति की पूर्ति अपने अन्य प्रान्तों में लगान की दर ऊँची करके की।
स्थायी बन्दोबस्त का कृषकों पर दुष्प्रभाव
स्थायी बंदोबस्त व्यवस्था से कम्पनी और जमींदारों को तो लाभ हुआ किंतु किसानों की आर्थिक, सामाजिक एवं नैतिक दशा पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।
(1.) जमींदार भूमि के स्वामी हो गये इसलिये वे कृषकों का शोषण तथा उत्पीड़न करने लगे।
(2.) किसानों से भूमि का स्वामित्व छिन जाने से वे निर्धन हो गये। भूमि का वास्तविक स्वामी होते हुए भी उन्हें अपनी ही भूमि पर किरायेदार बना दिया गया।
(3.) इस व्यवस्था में ऊपरी स्तर पर सामन्तवाद तथा निम्न-स्तर पर दास-प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिला।
(4.) जिस समय स्थायी बन्दोबस्त किया गया था उस समय भूमि की नाप ठीक से नहीं की गई थी।
(5.) भू-राजस्व की दर जल्दबाजी में तय की गई। सरकार ने यह निश्चित नहीं किया कि वे किसानों से कितना लगान लेंगे। अतः किसानों से अधिक लगान वसूल किया जाने लगा।
(6.) किसानों के अधिकारों की रक्षा हेतु कोई समुचित व्यवस्था नहीं की गई।
(7.) स्थायी बन्दोबस्त के अन्तर्गत किसानों पर लगान का भार इतना अधिक बढ़ गया कि लगान चुकाने के लिए किसान प्रायः साहूकार से ऋण लेने लगे। ऋण पर ब्याज का बोझ प्रति वर्ष बढ़ जाता था। इससे किसानों का पोर-पोर ऋण में डूब गया।
(8.) इस व्यवस्था के लागू होने के बाद अधिकतर जमींदारों ने भूमि सुधार की ओर कोई ध्यान नहीं दिया, क्योंकि उनका ध्यान केवल अधिकतम लगान वसूल करने पर केन्द्रित था। इससे कृषि एवं किसानों की दशा बिगड़ने लगी।
(9.) इस व्यवस्था में किसानों को पूर्ण रूप से जमींदारों पर आश्रित कर दिया गया।
(10.) स्थायी बन्दोबस्त से जमींदारों से वसूल की जाने वाली भू-राजस्व की दर बहुत ऊँची निर्धारित की गई। इस कारण बहुत से जमींदार, किसानों का बल पूर्वक शोषण करने लगे और शीघ्र ही धनवान बनकर बड़े-बड़े नगरों में जाकर विलासिता से रहने लगे। इससे एक परजीवी वर्ग की उत्पत्ति हुई, जो भूमि धारण तो करता था, किन्तु उसकी देखभाल नहीं करता था।
(11.) गाँवों से अनुपस्थित रहने वाले जमींदारों ने किसानों से भू-राजस्व वसूल करने के लिये अपने एजेण्ट नियुक्त किये जिससे बिचौलिये वर्ग का सृजन हुआ। यह एक दूसरा परजीवी वर्ग था जो असंवैधानिक एवं अमानवीय रूप से किसानों का शोषण करने लगा।
(12.) सरकार ने किसानों का शोषण को रोकने के लिए कोई कानून नहीं बनाया किंतु जमींदारों के अधिकारों में वृद्धि कर दी। नई स्थिति में किसानों और सरकार के बीच अनेक मध्यस्थ उत्पन्न हो गये। इन मध्यस्थों का उद्देश्य किसानों से अधिकतम लगान वसूल करना था। ये लोग किसानों से दुर्व्यवहार करते थे। किसानों की दशा पर ध्यान देने वाला कोई नहीं था। अशिक्षित होने के कारण किसानों को भू-राजस्व की दर ज्ञात नहीं थी, जिसका लाभ जमींदार और उसके कारिन्दे उठाते थे।
(13.) इस व्यवस्था में किसानों को पट्टे देने की अनिवार्यता रखी गई थी किन्तु बहुत से जमींदारों ने अपनी रैय्यत को पट्टे जारी नहीं किये और जहाँ पट्टे जारी किये गये उनका पूरी तरह से पालन नहीं किया गया।
(14.) रैय्यत अपनी सुरक्षा के लिए जमींदारों के विरुद्ध न्यायालय में जा सकती थी किन्तु ऐसा करने के लिए किसानों के पास साधन नहीं थे। जमींदारों के पास सब तरह के साधन उपलब्ध होने से वह जैसा चाहे कर सकता था। इस प्रकार स्थायी बन्दोबस्त के अन्तर्गत जमींदारी प्रथा सामाजिक एवं आर्थिक शोषण का यंत्र बन गई।
(15.) यदि कार्नवालिस द्वारा 1790 ई. में किये गये दस-वर्षीय समझौते को कुछ वर्ष तक चालू रखा जाकर उसके परिणामों का आकलन किया गया होता तो स्थाई बंदोबस्त के समय, इस व्यवस्था से उत्पन्न बुराइयों को दूर किया जा सकता था किंतु कार्नवालिस की श्रेष्ठ योजना ने धैर्य के अभाव में किसानों की स्थिति को बदतर बना दिया।
(16.) कार्नवालिस के बाद के गवर्नर जनरलों ने किसानों की दुर्दशा की ओर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि उन्हें अपने निश्चित भू-राजस्व से मतलब था। जब यह नियमित रूप से नहीं मिलता था तो कम्पनी, जमींदारों को उनकी जमींदारी से बेदखल करके उनकी जमीन बेचकर अपनी रकम वसूल कर लेती थी। 1793 से 98 ई. की पांच वर्ष की अवधि में बंगाल में 1701 जमींदारियाँ नीलाम की गईं। पुराने के स्थान पर नये जमींदार के आने से किसानों की दशा और भी दयनीय हो गयी।