Saturday, February 22, 2025
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अकबर का गोगूंदा अभियान (132)

जब अकबर के सारे सेनापति मिलकर भी महाराणा प्रताप को नहीं घेर सके तो महाराणा प्रताप को ढूंढने अकबर स्वयं गोगूंदा आया! अकबर का गोगूंदा अभियान भी कुछ काम न आया। अकबर महाराणा प्रताप की हत्या करना चाहता था किंतु हत्या करना तो दूर वह महाराणा की छाया को भी नहीं छू पा रहा था।

हल्दीघाटी के युद्ध से पहले, हल्दीघाटी के युद्ध के दौरान तथा युद्ध समाप्ति के बाद अकबर की सेना के भय का स्तर क्या था? अबुल फजल तथा मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी ने अकबर की सेना के भय का उल्लेख किया है जिससे इस बात का अनुमान लगाया जाना सहज है कि इस युद्ध में अकबर के सैनिक बड़ी संख्या में मरे थे।

महाराणा प्रताप तथा उसकी सेना मानसिंह तथा उसकी सेना को ठोक-पीट कर पहाड़ियों में चली गई थी जबकि मानसिंह की सेना गोगूंदा की पहाड़ियों में कैद होकर रह गई थी।

मुहम्मद हुसैन आजाद ने अपनी रचना अकबरी दरबार में हल्दीघाटी के युद्ध का वर्णन करते हुए यह लिखकर अकबर की सेना की हार की पुष्टि की है कि भले ही अकबर की सेना महाराणा की सेना से बहुत बड़ी थी किंतु सैनिकों की संख्या युद्ध में जीत-हार का निर्णय नहीं कर सकती। इस पंक्ति का सीधा-सीधा अर्थ यह है कि अकबर नहीं महाराणा जीता था।

हल्दीघाटी की विफलता के बाद अकबर की क्रोधाग्नि और भी भड़क उठी। अकबर किसी भी कीमत पर महाराणा प्रताप हत्या करना चाहता था जबकि उसके सेनापति प्रताप को छू भी नहीं पा रहे थे।

इधर शाही सेनाओं के मेवाड़ से अजमेर चले जाने के बाद महाराणा प्रतापसिंह ने अपनी सेना के साथ गुजरात की तरफ अभियान किया तथा बादशाही थानों को लूटकर हल्दीघाटी के युद्ध में हुए व्यय की क्षतिपूर्ति करने लगा। इस पर अकबर ने स्वयं गोगूंदा जाने का विचार किया ताकि महाराणा प्रताप को ढूंढकर मारा जा सके।

अकबर के दरबारी लेखक अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है कि 13 अक्टूबर 1576 को अकबर अजमेर से गोगूंदा के लिये रवाना हुआ। उसके गोगुंदा पहुँचने से पहले ही महाराणा प्रताप पहाड़ों में चला गया। अकबर ने गोगूंदा पहुँचकर कुतुबुद्दीन खाँ, राजा भगवंतदास और कुंवर मानसिंह को महाराणा प्रताप को ढूंढने के लिए पहाड़ों में भेजा।

कुतुबुद्दीन खाँ, राजा भगवंतदास और कुंवर मानसिंह जहाँ-जहाँ गये, वहाँ-वहाँ महाराणा उन पर हमला करता रहा। अंत में उन्हें परास्त होकर बादशाह के पास लौटना पड़ा।

अबुलफजल ने उनकी पराजय का हाल छिपाकर इतना ही लिखा है- ‘वे राणा के प्रदेश में गये परन्तु उसका कुछ पता न लगने से बिना आज्ञा ही लौट आये जिस पर अकबर ने अप्रसन्न होकर उनकी ड्यौढ़ी बंद कर दी। जो माफी मांगने पर बहाल की गई।’

मुंशी देवी प्रसाद ने ‘महाराणा श्री प्रतापसिंहजी का जीवन चरित्र’ में लिखा है कि इसके बाद अकबर बांसवाड़ा की तरफ गया। वह 6 माह तक राणा के मुल्क में या उसके निकट रहा परन्तु राणा ने उसकी परवाह तक न की। बादशाह के मेवाड़ से चले जाने पर राणा भी पहाड़ों से उतरकर शाही थानों पर हमला करने लगा और मेवाड़ में होकर जाने वाले शाही लश्कर का आगरे का रास्ता बंद कर दिया। अकबर का गोगूंदा अभियान विफल हो गया।

अबुल फजल लिखता है कि यह समाचार पाकर बादशाह ने भगवन्तदास, कुंवर मानसिंह, बैराम खाँ के पुत्र मिर्जा खाँ अर्थात् अब्दुर्रहीम खानखाना, कासिम खाँ और मीरबहर आदि को राणा पर भेजा।

मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी ने लिखा है कि मैं उस समय बीमारी के कारण बसावर में रह गया था और बांसवाड़ा के रास्ते से लश्कर में जाना चाहता था किंतु अब्दुल खाँ ने वह रास्ता बंद और कठिनतापूर्ण बताकर मुझे लौटा दिया। फिर मैं सारंगपुर, उज्जैन के रास्ते से दिवालपुर में जाकर बादशाह के पास उपस्थित हुआ।

मुंशी देवी प्रसाद ने लिखा है कि मुगल सेनापति महाराणा को काबू में न ला सके। वे महाराणा को पकड़ने का बहुत प्रयास करते थे परन्तु कभी भी सफल न हो सके। मुगल सेनापति, किसी पहाड़ पर राणा के पड़ाव की सूचना पाकर उसे घेरते किंतु महाराणा दूसरे पहाड़ से निकलकर मुगलों पर छापा मारता था।

इस दौड़-धूप का फल यह हुआ कि उदयपुर और गोगूंदा से शाही थाने उठ गये और मोही का थानेदार मुजाहिद बेग मारा गया।

राजप्रशस्ति महाकाव्य सर्ग 4 के संदर्भ से मुंशी देवी प्रसाद ने लिखा है कि एक बार महाराणा के सैनिकों ने शाही सेना पर आक्रमण किया जिसमें मिर्जा खाँ अर्थात् अब्दुर्रहीम खानखाना की औरतें कुंवर अमरसिंह के द्वारा पकड़ी गईं।

महाराणा ने उनका बहिन-बेटी की तरह सम्मान कर प्रतिष्ठा के साथ उन्हें अपने पति के पास पहुँचा दिया। महाराणा के इस उत्तम बर्ताव के कारण मिर्जा खाँ उस समय से ही मेवाड़ के महाराणाओं के प्रति सद्भाव रखने लगा।

हल्दीघाटी की पराजय की कसक अकबर के हृदय से जाती नहीं थी। वह अपने जीवन काल में महाराणा को मृत देखना चाहता था।

मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है कि 15 अक्टूबर 1578 को अकबर ने पुनः भारी सैन्य तैयारी के साथ शाहबाज खाँ मीरबख्शी को कुंवर मानसिंह, राजा भगवन्तदास, पायन्द खाँ मुगल, सैय्यद कासिम, सैय्यद हाशिम, सैय्यद राजू, उलगअसद तुर्कमान, गाजी खाँ बदख्शी, शरीफ खाँ अतगह, मिर्जा खाँ अर्थात् अब्दुर्रहीम खानखाना और गजरा चौहान आदि के साथ मेवाड़ पर चढ़ाई करने भेजा।

मुंशी देवीप्रसाद ने लिखा है कि अकबर की लगभग समस्त सेना शाहबाज खाँ मीरबख्शी को दे दी गई किंतु भयभीत मीरबख्शी ने इस सेना को भी अपर्याप्त समझा तथा अकबर से और सेना की मांग की। अकबर ने अपनी बची-खुची सेनाओं को शेख इब्राहीम फतहपुरी के नेतृत्व में मेवाड़ के लिये रवाना किया।

अबुल फजल ने लिखा है- ‘शाहबाज खाँ कुम्भलगढ़ को विजय करने का विचार करके आगे बढ़ा। उसने राजा भगवानदास तथा कुंवर मानसिंह को इस विचार से कि वे राजपूत होने के कारण राणा से लड़ने में सुस्ती करेंगे, उन्हें बादशाह के पास भेज दिया। इस तरह उसने हिन्दू सेनापतियों को इस युद्ध से पूरी तरह अलग कर दिया और शरीफ खाँ, गाजी खाँ आदि को साथ लेकर कुम्भलगढ़ की ओर बढ़ा तथा कुम्भलगढ़ के नीचे की समतल भूमि पर स्थित केलवाड़ा पर अधिकार कर लिया।’

कविराज श्यामलदास ने वीर विनोद में लिखा है कि- ‘इसके बाद मुगल सैनिक, पहाड़ी पर चढ़ने लगे।’

कुम्भलगढ़ का दुर्ग चित्तौड़ के समान एक अलग पहाड़ी पर स्थित नहीं है किंतु पहाड़ी की विस्तृत श्रेणी के सबसे ऊँचे स्थान पर बना हुआ है जिससे उस पर घेरा डालना सहज काम नहीं है। राजपूत शाही फौज पर पहाड़ों की घाटियों से आक्रमण करने लगे।

एक रात उन्होंने मुगलों की सेना पर छापा मारा और मुगलों के चार हाथी दुर्ग में लाकर महाराणा को भेंट किये। शाही सेना ने नाडोल एवं केलवाड़ा की तरफ से नाकाबंदी करके दुर्ग को घेरना आरम्भ किया।

तब महाराणा ने यह सोचकर कि किले में रसद का आना कठिन हो जायेगा, वह राव अखैयराज सोनगरा के पुत्र भाण सोनगरा को कुंभलगढ़ का दुर्गपति नियुक्त करके राणपुर चला गया। महाराणा प्रताप की माँ अखैराज सोनगरा की पुत्री थी और भाण सोनगरा महाराणा प्रताप का मामा था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

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