अकबर ने एक धूर्त व्यक्ति को अपने दरबार में अथर्ववेद के फारसी अनुवाद के काम पर रख लिया जो मूलतः ब्राह्मण था और यह कहता था कि वह अथर्ववेद को पढ़कर मुसलमान बना है क्योंकि अथर्ववेद में लिखा है कि ब्राह्मण भी मांस खा सकता है। अकबर उस धूर्त की धूर्तता को नहीं समझ सका और उस धूर्त ने अकबर की मूर्खता का खूब लाभ उठाया।
अकबर ने सैनिक व्यय की पूर्ति तथा शाही खजाने में वृद्धि के लिए भू-राजस्व से होने वाली आय को बढ़ाने का विचार किया तथा इसके लिए पूरी सल्तनत में भूमि की नाप-जोख करके प्रत्येक एक करोड़ की आय वाली इकाई पर करोड़ियों की नियुक्ति की।
करोड़ियों को यह दायित्व दिया गया कि वे भूमि कर वसूलने के साथ-साथ अपने क्षेत्र में स्थित समस्त बंजर भूमि को तीन साल की अवधि में उपजाऊ भूमि में बदल दें ताकि शाही खजाने में अधिक कर प्राप्त हो सके।
जिन बेईमान करोड़ियों ने शहंशाह की इच्छा के अनुरूप काम नहीं किया तथा किसानों को परेशान किया, राजा टोडरमल ने उन करोड़ियों को हथकड़ी, बेड़ी एवं डण्डा लगाकर जेलों में बंद कर दिया जहाँ उनमें से अधिकांश करोड़ी मृत्यु को प्राप्त हो गए।
हमने पिछले कुछ आलेखों में चर्चा की थी कि अकबर को हिन्दुओं के प्रसिद्ध ग्रंथों में छिपा ज्ञान प्राप्त करने का चस्का लग गया था और वह चाहता था कि अन्य मुस्लिम अमीर एवं शहजादे भी इन ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त करें।
इसलिए अकबर ने महाभारत आदि कुछ ग्रंथों का फारसी में अनुवाद करवाया जिनकी चित्रित प्रतियों को अकबर के अमीरों ने बड़ी ऊंची कीमत देकर खरीदा।
जब इन पुस्तकों को लोकप्रियता मिलने लगी तो अकबर ने मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी को निर्देश दिए कि वह सिंहासन बत्तीसी का फारसी में अनुवाद करके बादशाह की सेवा में प्रस्तुत करे।
बदायूंनी की सहायता के लिए एक हिन्दू विद्वान को भी नियुक्त किया गया ताकि वह बदायूंनी को सिंहासन बत्तीसी के मर्म की जानकारी दे सके। इस ग्रंथ में उज्जैन के एक प्राचीन राजा विक्रमादित्य की बुद्धिमत्ता की बत्तीस कहानियां लिखी गई हैं।
हिन्दुओं में मान्यता है कि ये कहानियां कपोल-कल्पित नहीं हैं, अपितु सत्य-घटनाओं पर आधारित हैं। हिन्दुओं का यह भी मानना है कि उज्जैन का राजा विक्रमादित्य चमत्कारी एवं बुद्धिमान पुरुष था जिसने अपनी प्रजा का धर्मपूर्वक पालन किया था।
हिन्दू मानते हैं कि सिंहासन बत्तीसी की कथाओं की घटनाएं राजा विक्रमादित्य के साथ वास्तव में घटित हुई थीं। कुछ लोग इस विक्रमादित्य को ईसा की प्रथम शताब्दी में हुए उज्जैन का राजा शकारि विक्रमादित्य मानते हैं जिसने अयोध्याजी में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का नवनिर्माण करवाया था तथा भारत-भूमि को शकों से मुक्त करवाकर शकारि संवत् चलाया था जिसे अब शक संवत् कहा जाता है। भारत सरकार आज भी इस शक-संवत के कैलेण्डर को मान्यता देती है।
जब अकबर ने सिंहासन बत्तीसी की कथाओं को सुना तो वह राजा विक्रमादित्य से बहुत प्रभावित हुआ तथा उसने मुल्ला बदायूंनी ने आदेश दिया कि वह इस पुस्तक का फारसी में अनुवाद करे।
मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी ने सिंहासनी बत्तीसी के फारसी अनुवाद का शीर्षक ‘नामा-ए-खिराद-अफ्जा’ अर्थात् बौद्धिक आनंद की पुस्तक रखा। जब अकबर ने इस पुस्तक के अनुवाद को पढ़ा तो अकबर बड़ा प्रसन्न हुआ। अकबर ने इस अनुवाद को अपने व्यक्तिगत पुस्तकालय में सम्मिलित कर लिया।
मुल्ला बदायूंनी लिखता है कि इन्हीं दिनों दक्षिण भारत से एक ब्राह्मण अकबर के दरबार में आया। उसका मूल नाम पण्डित भावन था। उसने हिन्दू धर्म छोड़कर इस्लाम ग्रहण कर लिया था।
बदायूंनी ने लिखा है कि पण्डित भावन का दावा था कि उसने अथर्ववेद को पढ़कर हिन्दू से मुसलमान होने की प्रेरणा प्राप्त की है क्योंकि अथर्ववेद में लिखा है कि विशेष परिस्थिति में हिन्दू भी गाय का मांस खा सकता है और शव को जलाने के स्थान पर धरती में गाड़ भी सकता है।
भावन का दावा था कि अथर्ववेद में एक श्लोक है जिसमें यह कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति इस श्लोक को नहीं पढ़ेगा तो वह नहीं बचेगा। इस श्लोक में अल अक्षरों का बारम्बार प्रयोग हुआ है।
मुल्ला बदायूंनी का मानना था कि यह श्लोक ‘ला-इलाह-इलिल्लाह’ से मेल खाता है। इसी से भावन को हिन्दू धर्म छोड़कर इस्लाम अपनाने की प्रेरणा मिली थी।
वस्तुतः पण्डित भावन ने अकबर की कृपा पाने के लिए हिन्दू धर्म छोड़कर इस्लाम अपनाया था और अपनी तरफ से मनगढ़ंत बातें अकबर और मुल्ला बदायूंनी को सिखाई थीं। इस प्रकार भावन ने अकबर को जमकर मूर्ख बनाया तथा अकबर की मूर्खता का जमकर लाभ उठाया।
अकबर ने मुल्ला बदायूंनी से कहा कि वह अथर्ववेद का फारसी में अनुवाद करे तथा इस कार्य में अथर्ववेद के विद्वान पण्डित भावन की भी सहायता ले जो कि अब मुसलमान हो गया था।
मुल्ला बदायूंनी लिखता है कि इस पुस्तक के बहुत से विचार इस्लाम के नियमों से मेल खाते हैं किंतु मुल्ला बदायूंनी को उसके बहुत से अंशों का फारसी में अनुवाद करने में कठिनाई आई।
यहाँ तक कि पण्डित भावन भी अथर्ववेद के उन अंशों के अर्थ नहीं बता सका। इससे स्पष्ट है कि पण्डित भावन एक धूर्त व्यक्ति था। उसे अथर्ववेद का कुछ भी ज्ञान नहीं था।
उसने अकबर को मूर्ख बनाकर पद, प्रतिष्ठा एवं धन ऐंठने के उद्देश्य से अथर्ववेद में एक ऐसी ऋचा घुसाने का असफल प्रयास किया जिससे लगे कि अथर्ववेद में अल्लाह शब्द का उल्लेख किया गया है तथा जो कोई भी व्यक्ति इस ऋचा को नहीं पढ़ेगा, वह धरती पर जीवित नहीं बचेगा।
जब मुल्ला बदायूंनी ने अकबर को बताया कि मैं अथर्ववेद के कुछ अंश समझने में असमर्थ हूँ तथा पण्डित भावन भी इस कार्य में मेरी सहायता नहीं कर पा रहा है तो अकबर ने आदेश दिया कि इस कार्य में शेख फैजी, तथा हाजी इब्राहीम की सहायता ली जाए। अकबर की मूर्खता यह अकबर की मूर्खता का एक और उदाहरण था, जो लोग संस्कृत और फारसी दोनों भाषाओं को अच्छी तरह नहीं जानते थे, वे किसी संस्कृत ग्रंथ का फारसी में अनुवाद कैसे कर सकते थे?
अकबर की मूर्खता के ऐसे और भी उदाहरण इतिहास में देखने को मिलते हैं। मुल्ला बदायूंनी लिखता है कि हाजी इब्राहीम की बड़ी इच्छा थी कि वह अथर्ववेद के फारसी अनुवाद का काम करे किंतु वह कुछ भी नहीं कर सका।
इसी वर्ष अकबर की बुआ गुलबदन बेगम जो हुमायूँ की बहिन तथा बाबर की पुत्री थी, हज करने के लिए आगरा से रवाना हुई। बाबर की दौहित्री सलीमा बेगम जो कि मूलतः बैराम खाँ की बीवी थी और अब अकबर की बीवी के रूप में सुल्तान बेगम कहलाती थी, भी गुलबदन बेगम के साथ हज पर गई।
पाठकों को स्मरण होगा कि सलीमा बेगम बाबर की बेटी गुलरुख बेगम की पुत्री थी।
गुलबदन बेगम और सलीमा बेगम एक साल तक गुजरात में ठहरी रहीं और उसके बाद वे मुसलमानों के चार धामों अर्थात् कर्बला, कुम, मशहद और मक्का के लिए रवाना हुईं। जब वे भारत के लिए लौटने लगीं तो मार्ग में उनका जहाज टूट गया।
इस कारण उन्हें एक साल तक अदन में रुकना पड़ा। जब वे लौटकर आगरा आईं तो अकबर ने उनका बड़ा स्वागत किया। उसके बाद प्रतिवर्ष शाही परिवार के एक सदस्य को बहुत सारा धन एवं उपहार देकर मक्का भेजा जाने लगा। मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है कि इस प्रकार शाही खजाने के भारी खर्च पर सोना और अन्य बहुमूल्य नजरानों के साथ शहंशाह अपने परिवार के लोगों को मक्का भेजने लगा। इससे अकबर की ख्याति मध्यएशिया में तेजी से फैलने लगी। पांच-छः साल तक यह क्रम जारी रखा गया किंतु बाद में इसे बंद कर दिया गया।
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