Wednesday, January 8, 2025
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दिवेर का युद्ध (136)

दिवेर का युद्ध हल्दीघाटी के युद्ध से भी अधिक परिणाम देने वाला था किंतु इतिहासकारों ने जानबूझ कर इस युद्ध की उपेक्षा की है क्योंकि इस युद्ध में महाराणा प्रताप ने मुगलों में कसकर मार लगाई थी और प्रताप का मेवाड़ के बहुत से भूभाग पर फिर से अधिकार हो गया था।

मेवाड़ नरेश महाराणा प्रताप अकबर के मीना बाजार को हिकारत भरी दृष्टि से देखता था और उसे गौरवहीन पुरुषों, निर्लज्जा नारियों एवं अकबर जैसे स्त्री-लोलुप ग्राहकों का व्यापार मानता था।

जब हल्दीघाटी के युद्ध को सात साल बीत गए और अकबर किसी भी प्रकार से महाराणा प्रताप को नहीं झुका सका तो वह हार-थक कर बैठ गया। इस पर महाराणा प्रताप ने अपने उन क्षेत्रों को फिर से अपने अधीन करने का निश्चय किया जो अकबर की सेना ने विगत वर्षों में छीन लिए थे। अक्टूबर 1583 में महाराणा ने कुंभलगढ़ पर अधिकार करने की योजना बनाई।

महाराणा ने सबसे पहले दिवेर थाने पर आक्रमण किया जहाँ अकबर की ओर से सुल्तान खाँ नामक थानेदार नियुक्त था। प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान उदयपुर में उपलब्ध सूर्यवंश नामक ग्रंथ में लिखा है कि जब प्रताप की सेना ने दिवेर पर आक्रमण किया तो आसपास के पांच और मुगल थानेदार अपनी-अपनी सेनाएं लेकर दिवेर पहुँच गये।

प्रताप की सेना दिवेर के बाहर मोर्चा बांधकर बैठ गई। एक दिन जब मुगलों की सेना घाटी में गश्त लगाने निकली तो महाराणा प्रताप ने उस पर धावा बोल दिया। प्रताप के वीर सैनिक सोलंकी परिहार ने सुल्तान खाँ के हाथी के पांव काट दिये।

महाराणा प्रताप ने अपने भाले से हाथी के कुंभ स्थल को फोड़ दिया। महाराणा के कुंवर अमरसिंह ने भी भाले से वार किया जिससे हाथी के कुंभ स्थल के दो टुकड़े हो गये और वह मर गया।

 कुंअर अमरसिंह ने सुल्तान खाँ की छाती में अपना भाला दे मारा। अमरसिंह के एक ही वार से थानेदार की मृत्यु हुई। थाने के दूसरे अधिकारी भी मारे गये तथा थाने पर महाराणा का अधिकार हो गया।

इसके बाद वहाँ पहुँचे आसपास के चौदह मुगल थानेदार भी प्रताप का सामना करने का साहस नहीं जुटा पाये। दीवेर के युद्ध के बाद अमरसिंह ने एक ही दिन में मेवाड़ से मुगलों के पांच थाने हटा दिये।

 अमरकाव्य वंशावली ने लिखा है कि यह क्रम शेष 36 थाने उठाये जाने तक जारी रहा। इसके बाद महाराणा ने कुम्भलगढ़, जावर एवं चावण्ड को जीत लिया।

कर्नल टॉड ने दिवेर के युद्ध को मेवाड़ का मेरेथान कहा है। दिवेर का युद्ध तथा मेरेथान युद्ध में कुछ समानता अवश्य है। मेरेथान का प्रसिद्ध रणक्षेत्र ग्रीस देश की राजधानी एथेंस से 22 मील पूर्वोत्तर में स्थित ऐटिका प्रांत में है। यहाँ ई.पू. 490 में यूनानियों का ईरानियों से विकट युद्ध हुआ था जिसमें यूनानी सेनापति मिल्टियाडेस ने अद्भुत वीरता दिखाई तथा ईरानियों को अपने देश से मार भगाया।

दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप ने मुगलों से अपनी धरती ठीक उसी तरह वापस छीन ली थी जिस तरह मेरेथान के युद्ध में यूनानियों ने ईरानियों को अपने देश से बाहर निकाल दिया था।

मेवाड़ में अपने थानेदारों का पराभव देखकर अकबर ने मिर्जा खाँ अर्थात् अब्दुर्रहीम खानखाना को मेवाड़ भेजा ताकि वह महाराणा को समझा-बुझाकर अकबर की अधीनता स्वीकार करवाये। मिर्जा खाँ ने भामाशाह से बात की किंतु भामाशाह ने उसके प्रस्ताव को अस्वीकार दिया।

इसके बाद महाराणा प्रताप ने अपने ही कुल के उन दो राजाओं को दण्डित करने का निर्णय लिया जिन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। कर्नल जेम्स टॉड ने एनल्स एण्ड एण्टिक्विटीज ऑफ राजस्थान में लिखा है कि महाराणा ने बांसवाड़ा एवं डूंगरपुर पर आक्रमण किया तथा उनके शासकों से अधीनता स्वीकार करवाई।

ई.1576 में हल्दीघाटी में हुई मुगलों की पराजय का बदला ई.1584 तक नहीं लिया जा सका था, इसलिये अकबर की उद्विग्नता बढ़ती ही जाती थी। हल्दीघाटी की असफलता के बाद से, अकबर हिन्दू सेनापतियों को महाराणा प्रताप के विरुद्ध नहीं भेज रहा था किंतु जब समस्त मुस्लिम सेनापति भी प्रताप के विरुद्ध असफल सिद्ध हुए तो 6 दिसम्बर 1584 को अकबर ने जगन्नाथ कच्छवाहा को प्रताप के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिये भेजा।

अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है कि मिर्जा जफर बेग को बख्शी बनाकर उसके साथ किया गया। मुंशी देवीप्रसाद ने लिखा है कि जगन्नाथ कच्छवाहा दो वर्ष तक पहाड़ों में भटकता रहा किंतु महाराणा का बाल भी बांका नहीं कर सका।

ई.1586 में वह चुपचाप काश्मीर चला गया। अकबर समझ चुका था कि हिन्दुओं के इस सूर्य को ढंक लेना उसके वश की बात नहीं। अकबर के सेनापति एक-एक करके पराजय का कलंकित जीवन जीने पर विवश हुए थे। अतः अकबर ने जगन्नाथ कच्छवाहे के बाद फिर किसी सेनापति को मेवाड़ अभियान पर नहीं भेजा।

जगन्नाथ कच्छवाहा के लौट जाने के बाद महाराणा प्रताप 11 वर्ष तक अपनी प्रजा का सुखपूर्वक पालन करता रहा। इस बीच महाराणा प्रताप ने एक वर्ष की अवधि में ही अकबर के उन समस्त थानों को उठा दिया जो अकबर ने प्रताप के जीवन काल में मेवाड़ से छीने थे।

मुंशी देवी प्रसाद तथा कविराज श्यामलदास ने लिखा है कि ई.1586 तक केवल चित्तौड़गढ़ एवं माण्डलगढ़ को छोड़कर महाराणा प्रताप ने पूरा मेवाड़ अपने अधीन कर लिया।

कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है कि मुगलों का गर्व धूल में मिलाने के बाद महाराणा प्रतापसिंह ने कच्छवाहों को दण्डित करने का संकल्प लिया। प्रताप ने आम्बेर राज्य पर आक्रमण करके कच्छवाहों के धनाढ्य नगर मालपुरा को लूट कर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। प्रबल प्रतापी कच्छवाहे जिनका डंका पूरे भारत में बजता था, महाराणा प्रताप के विरुद्ध कुछ न कर सके।

मुंशी देवीप्रसाद ने लिखा है कि मालपुरा को नष्ट करने के बाद महाराणा प्रताप का शेष जीवन सुख और शांति से व्यतीत हुआ। उसने उजड़े हुए मेवाड़ को फिर से बसाया, उदयपुर नगर में श्रेष्ठ लोगों को लाकर उनका निवास करवाया तथा मुगलों के विरुद्ध अपना साथ देने वाले अपने सरदारों की प्रतिष्ठा और पद में वृद्धि की तथा उन्हें बड़ी-बड़ी जागीरें दीं।

कविराज श्यामलदास ने अपने ग्रंथ वीर विनोद में लिखा है कि चावण्ड के महलों में निवास करते हुए ही जनवरी 1597 को महाराणा का स्वर्गवास हुआ। महाराणा प्रताप की मृत्यु पर चारण दुरसा आढ़ा ने अकबर के दरबार में यह छप्पय कहा था-

अस लेगो अणदाग, पाघ लेगो अणनामी।

गौ आडा गवडाय, जिको बहतो धुर वामी।

नवरोजे नह गयो, न गौ आतसां नवल्ली।

न गौ झरोखाँ हेठ, जेठ दुनयाण दहल्ली।।

गहलोत राण जीती गयो, दसण मूंद रसणा डसी।

नीसास मूक भरिया नयण, तो मृत शाह प्रतापसी।

अर्थात्-

हे गुहिलोत राणा प्रतापसिंह! तेरी मृत्यु पर बादशाह ने दांतों के बीच जीभ दबाई और निःश्वास के साथ आंसू टपकाये क्योंकि तूने अपने घोड़ों को दाग नहीं लगने दिया, अपनी पगड़ी को किसी के आगे नहीं झुकाया, तू अपना यश कमा गया,

तू अपने राज्य के धुरे को बांयें कंधे से चलाता रहा, नौरोजे में नहीं गया। न आतसों (बादशाही डेरों) में गया। कभी झरोखे के नीचे खड़ा न रहा और तेरा रौब दुनियां पर गालिब था, अतः तू हर तरह से विजयी हुआ।

अकबर के दरबारी एवं अपने समय के श्रेष्ठ कवि, बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीराज राठौड़ ने महाराणा प्रताप की मृत्यु पर उसे श्रद्धांजलि देते हुए कहा-

माई एहा पूत जण, जेहा रांण प्रताप।

अकबर सूतो ओझकै, जांण सिरांणे सांप।।

अर्थात्- हे माता! राणा प्रताप जैसे पुत्रों को जन्म दे जिसके भय से अकबर बादशाह कच्ची नींद सोता था, मानो उसके सिराहने सांप बैठा हो।

इस प्रकार दिवेर का युद्ध ही मेवाड़ के इतिहास में निश्चयात्मक परिणाम देने वाला सिद्ध हुआ।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

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