ब्रिटिश शासन में राजकारी कार्यालयों एवं न्यायालयों में उर्दू भाषा का प्रयोग एक बड़ा मुद्दा बन गया था।
डिसमिस दावा तोर है सुन उर्दू बदमास (5)
उस काल में भारत का शासन दो भागों में विभक्त था। पहला भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा प्रत्यक्ष शासित था जिसमें बहुत सारे सरकारी विभागों के साथ-साथ पुलिस एवं न्यायालयों आदि की व्यवस्था की गई थी।
दूसरा भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ अधीनस्थ संधियों से बंधे हुए देशी रजवाड़ों द्वारा शासित था जो हजारों साल पुरानी हिन्दू नीति से शासन करते थे।
ब्रिटिश-भारत के सरकारी कार्यालयों तथा न्यायालयों में अरबी लिपि में अरबी-फारसी मिश्रित उर्दू भाषा में लिखा-पढ़त की जाती थी। उस काल में भारत में अंग्रेजी भाषा को जानने वाले कर्मचारी नहीं मिलते थे।
मुसलमानी राज्य समाप्त हो जाने पर भी जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने ई.1837 में अपने सरकारी कार्यालयों एवं न्यायालयों में फारसी लिपि में लिखी जाने वाली वाली उर्दू भाषा के प्रयोग को मान्यता दी तो हिन्दुओं को अरबी-फारसी युक्त उर्दू भाषा सीखनी पड़ती थी। कुछ समय तक तो यह स्थिति चलती रही किंतु इसका परिणाम यह हुआ कि अब हिन्दू युवक देवनागरी लिपि को भूलने लगे तथा फारसी लिपि में प्रयुक्त उर्दू में पारंगत होने का प्रयास करने लगे।
यह स्थिति देखकर उत्तर भारत के हिन्दुओं में असंतोष उभरा। इस काल में उत्तर भारत का हिन्दू चाहने लगा था कि जिस प्रकार अंग्रेजी सरकार ने मुसलमानी राज की अनेक प्रथाओं को बदला है, उसी प्रकार मुसलमानी राज्य के अन्य चिह्नों को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाए जिनमें से भाषा एवं लिपि का प्रश्न प्रमुख था।
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अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति को बेहद क्रूरता पूर्वक कुचलने के लिए अंग्रेजों के अपने देश इंग्लैण्ड में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारियों की कड़ी आलोचना हुई। लंदन की संसद में विपक्षी सांसदों ने भारतीयों के नरसंहार पर खूब हो-हल्ला मचाया जिसके कारण ब्रिटिश सरकार को भारत से कम्पनी सरकार का शासन हटाकर इंगलैण्ड की महारानी का शासन स्थापित करना पड़ा।
ब्रिटिश क्राउन के शासन में अंग्रेज अधिकारियों की क्रूरता में पहले की अपेक्षा कमी आई क्योंकि अब वे कम्पनी बोर्ड के प्रति नहीं, अपितु ब्रिटिश संसद के प्रति जवाबदेह थे।
जब हिन्दुओं ने देवनागरी लिपि वाली हिन्दी भाषा के लिए आवाज उठानी आरम्भ की तो अंग्रेज अधिकारियों ने भारत में उर्दू-फारसी के स्थान पर अंग्रेजी भाषा को बढ़ावा देने के प्रयास किए। सरकारी नौकरियों में भी उन्हीं को प्राथमिकता दी जाने लगी जिन्हें फारसी लिपि वाली उर्दू के साथ-साथ रोमन लिपी वाली अंग्रेजी आती हो।
इस कारण भारत के मध्यम वर्गीय हिन्दू परिवारों के लड़कों ने उर्दू-फारसी के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा का ज्ञान लेना भी आरम्भ किया जबकि मुसलमान लड़के अंग्रेजी सीखने में पिछड़ गए। उस काल में बहुत कम मुसलमान परिवार ऐसे थे जो अंग्रेजी भाषा सीख सके। जब अंग्रेजी पढ़-पढ़कर हिन्दू लड़के बड़ी संख्या में महारानी की सरकार के कार्यालयों में बाबू बनने लगे तो उन्होंने अपनी लगन एवं प्रतिभा से अंग्रेजी शासन का हृदय जीत लिया। इस प्रकार एक बार फिर से मुसलमानों की जगह हिन्दुओं को अंग्रेजी सरकार के लिए अधिक विश्वसनीय एवं योग्य माना जाने लगा।
ब्रिटिश क्राउन का शासन हो जाने पर भी इस काल में भारतीय युवकों को अंग्रेजी के साथ-साथ अरबी-फारसी का ज्ञान होना आवश्यक था क्योंकि मालगुजारी (भूराजस्व) तथा भूमि सम्बन्धी सभी पुराने अभिलेख (रिकॉर्ड) फारसी लिपि एवं फारसी भाषा में लिखे हुए थे। इस कारण केवल अंग्रेजी सीखने मात्र से काम नहीं चल सकता था।
इस काल के हिन्दुओं ने न केवल संस्कृत तथा उससे विकसित हुई हिन्दी को हिन्दू धर्म के अनिवार्य अंग के रूप में देखा अपितु धोती, तिलक, जनेऊ और आयुर्वेद को भी हिन्दू धर्म का अनिवार्य अंग मानकर हिन्दुओं को भारत में मुसलमानी राज्य आरम्भ होने से पहले की जीवन पद्धति पर ले आने के लिए प्रयास आरम्भ किए।
हिन्दुओं की इस प्रवृत्ति में वृद्धि होते हुए दुखकर भारत के मुसलमान जो कि कुरान, अजान, मस्जिद आदि से पहले से ही निरंतर जुड़े हुए थे, अब दाढ़ी, जालीदार गोल टोपी, बुर्का, हिजाब, उर्दू भाषा और यूनानी चिकित्सा पद्धति को अपने मजहब का अनिवार्य अंग मान कर, बड़े आग्रह के साथ उनसे चिपक गए।
डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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