बदख्शां के मिर्जा को अकबर ने धन-दौलत एवं हाथी घोड़े भिजवाए। पाठकों को स्मरण होगा कि बाबर ने अपने एक भाई के पुत्र मिर्जा सुलेमान को बदख्शां का शासक बनाया था। हुमायूँ ने भी अपने इस चचेरे भाई को बदख्शां का शासक बनाए रखा था।
अकबर ने दरबारी मुल्लाओं से सिंहासन बत्तीसी एवं अथर्ववेद के फारसी अनुवाद तैयार करवाए तथा अपने परिवार के सदस्यों को मक्का भेजकर वहाँ के लोगों के लिए बहुत सा धन एवं उपहार भिजवाए। इससे अकबर की ख्याति पूरे मध्य-एशिया में तेजी से फैलने लगी।
ई.1576 में अकबर का चाचा मिर्जा सुलेमान जो कि बदख्शां का शासक था, अकबर से शरण मांगने भारत आया।
जब तक हुमायूँ अफगानिस्तान में रहा, मिर्जा सुलेमान ने हुमायूँ के प्रति निष्ठा का प्रदर्शन किया था किंतु जब हुमायूँ ने दूसरी बार हिंदुस्तान पर अधिकार जमाया तो मिर्जा सुलेमान गद्दारी करने पर उतर आया। उसने काबुल पर अधिकार करने का कई बार प्रयास किया।
जब मिर्जा सुलेमान सेना के बल पर काबुल पर अधिकार नहीं कर सका तो उसने काबुल के शासक मिर्जा हकीम खाँ से अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। मिर्जा हकीम हुमायूँ का छोटा पुत्र तथा अकबर का सौतेला भाई था।
एक बार मिर्जा सुलेमान ने अपने जवांई मिर्जा हकीम को मारने तथा काबुल पर अधिकार करने का प्रयास किया था। तब अकबर ने पंजाब से सेना भिजवाकर हकीम खाँ के राज्य की रक्षा की थी।
जब हकीम खाँ अकबर द्वारा भेजी गई सेना की सहायता से अपने श्वसुर मिर्जा सुलेमान को परास्त करके फिर से काबुल पर अधिकार करने में सफल रहा तो मिर्जा सुलेमान बदख्शां लौट गया तथा वहीं पर शासन करने लगा।
मिर्जा सुलेमान अपना बचा हुआ जीवन शांति से बदख्शां में निकाल सकता था किंतु उसकी दो बेगमों के बीच ऐसा झगड़ा उठ खड़ा हुआ कि मिर्जा सुलेमान को अपने राज्य से हाथ धोना पड़ा और अपने भतीजे अकबर से शरण प्राप्त करने के लिए भारत की ओर भागना पड़ा।
बदख्शां के शासक मिर्जा सुलेमान की पत्नी हरम बेगम एक वीर महिला थी। वह अफगानिस्तान के किबचाक कबीले के सरदार की बेटी थी और हाथ में हथियार लेकर युद्धक्षेत्र में जाया करती थी।
एक बार जब हुमायूँ को उसके सौतेले भाई कामरान ने काबुल से निकाल दिया था, तब इसी हरम बेगम ने हुमायूँ को एक सेना बनाकर दी थी जिसके बल पर हुमायूँ काबुल पर फिर से अधिकार कर सका था।
हरम बेगम न केवल सुंदर, वीर और महत्वाकांक्षिणी थी, अपितु वह शासन कार्य में भी दक्ष थी। उसका अपने पति पर इतना अधिकार था कि बदख्शां का शासन प्रायः वही चलाया करती थी।
एक बार मिर्जा कामरान ने हरम बेगम पर मोहित होकर उसे अपने पास आने का निमंत्रण भेजा था ताकि कामरान हरम बेगम को भोग सके। तब हरम बेगम ने अपने जेठ हुमायूँ, पति सुलेमान तथा पुत्र मिर्जा इब्राहीम के हाथों कामरान को दण्डित करवाया था। इसका इतिहास हम ‘बाबर के बेटों की दर्द भरी दास्तान‘ में लिख चुके हैं।
जब हुमायूँ ने कामरान की आंखें फोड़कर उसे मक्का भिजवा दिया तब कामरान की पत्नी खानिम बेगम ने कामरान के साथ मक्का न जाकर अपने पीहर काशगर जाकर रहने का विचार किया। जब वह काबुल से काशगर जा रही थी तो मार्ग में बदख्शां से होकर निकली।
मिर्जा सुलेमान ने खानिम बेगम की बड़ी आवभगत की। हरम बेगम की तरह खानिम बेगम भी बला की खूबसूरत थी। इसलिए मिर्जा सुलेमान की नीयत बिगड़ गई और उसने खानिम बेगम की लल्लो-चप्पो करके उससे विवाह कर लिया।
हरम बेगम अपनी इस नई सौत को सहन नहीं कर सकी तथा उसने खानिम बेगम से दुश्मनी बांध ली। कुछ समय बाद जब हरम बेगम के पुत्र मिर्जा इब्राहीम की मृत्यु हो गई तब खानिम बेगम ने प्रयास किया कि मिर्जा इब्राहीम की जागीर खानिम के बेटे मिर्जा शाहरुख को मिल जाए।
हरम बेगम ने खानिम के इस प्रयास का विरोध किया। उसने अपने पक्ष के अमीरों से मिलकर खानिम बेगम तथा उसके पुत्र मिर्जा शाहरुख के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया।
दूसरी तरफ खानिम बेगम भी बदख्शां के कुछ अमीरों को अपने पक्ष में लेकर हरम बेगम के विरुद्ध डट गई। कुछ समय बाद हरम बेगम खुद ही मर गई। अब बदख्शां में शांति स्थापित हो जानी चाहिए थी किंतु दोनों बेगमों के बीच शुरु हुआ झगड़ा, अब चाचा-भतीजे का झगड़ा हो गया जो कि अब सौतेले पिता-पुत्र भी थे।
खानिम बेगम चाहती थी कि मिर्जा सुलेमान, पंद्रह साल के मिर्जा शाहरुख को बदख्शां का सुल्तान बना दे। मिर्जा सुलेमान शाहरुख को बदख्शां का शासक नहीं बनाना चाहता था क्योंकि मिर्जा शाहरुख कामरान का बेटा था, न कि सुलेमान का। बदख्शां के बहुत से अमीर खानिम बेगम के रूपजाल में फंस कर मिर्जा शाहरुख के साथ हो गए और मिर्जा सुलेमान कमजोर पड़ गया।
मिर्जा सुलेमान अपने जवांई मिर्जा हकीम खाँ के पास पहुंचा ताकि वह काबुल से सेना प्राप्त करके मिर्जा शाहरुख को परास्त कर सके। मिर्जा हकीम खाँ ने अपने चाचा जो कि उसका श्वसुर भी था, की कोई सहायता नहीं की तथा उसे भारत जाने की सलाह दी।
मिर्जा सुलेमान अपने ही पुत्रों, भतीजों एवं जवांई की तरफ से निराश होकर भारत में शरण पाने के लिए रवाना हुआ जहाँ का शासक अकबर भी उसका भतीजा ही था।
जब अकबर को ज्ञात हुआ कि मिर्जा सुलेमान फतहपुर सीकरी आ रहा है तो अकबर ने उसके स्वागत में नगर एवं महल सजाने के आदेश दिए। दीवाने-आम में भी खूब सजावट की गई।
फतहपुर सीकरी में आने वाली सड़क के दोनों तरफ पांच हजार हाथी-घोड़े एवं ऊँट सजाकर खड़े किए गए। कुछ चीतों को भी कीमती कपड़ों से सजाकर खड़ा किया गया। अकबर के अमीरों ने मार्ग में कई कोस आगे बढ़कर मिर्जा सुलेमान का स्वागत किया।
स्वयं अकबर भी सीकरी से तीन कोस अर्थात् लगभग 10 किलोमीटर आगे आया। जब सुलेमान का घोड़ा आता हुआ दिखाई दिया तो अकबर ने घोड़े से उतरकर तथा कुछ दूर पैदल चलकर अपने चचेरे-चाचा का स्वागत किया। सुलेमान ने भी घोड़े से उतरकर अपने भतीजे का सिजदा किया।
अकबर ने मिर्जा सुलेमान को गले लगा लिया। अकबर ने वे दिन अपनी आंखों से देखे थे जब संसार में कोई भी शहजादा अकबर के पिता का साथ देने को तैयार नहीं था, तब अकबर के इसी चचेरे चाचा ने अकबर के पिता का साथ दिया था और कई बार उसके प्राण बचाए थे। अकबर ने मिर्जा सुलेमान से कहा कि आप चिंता न करें, मैं पंजाब से एक सेना खानेजहाँ के नेतृत्व में बदख्शां भेजूंगा ताकि कृतघ्न कामरान के कृतघ्न पुत्र मिर्जा शाहरुख को बदख्शां से निकाला जा सके। अकबर ने बड़ी संख्या में हाथी-घोड़े एवं धन-दौलत उपहार के रूप में सुलेमान को भेंट किए।