हल्दीघाट का युद्ध हारने के बाद जब मानसिंह अकबर के पास अजमेर गया तब अकबर ने मानसिंह की ड्यौढ़ी बंद कर दी। हल्दीघाटी के अभियान में आसफ खाँ भी बड़े सेनापति के रूप में भेजा गया था। इसलिए अकबर ने जिस तरह मानसिंह की ड्यौढ़ी बंद की थी, उसी तरह आसफ खाँ की भी ड्यौढ़ी बंद कर दी गई।
हल्दीघाटी का युद्ध रुक जाने के बाद अकबर की सेना अरावली के पहाड़ों में चूहों की तरह फंस गई और भूख से तड़पने लगी। भूख और कुपोषण के कारण बहुत से मुगल सैनिक बीमार पड़कर मरने लगे।
इतना होने पर भी मानसिंह तथा आसफ खाँ अपनी सेना को मेवाड़ की पहाड़ियों से निकालकर अजमेर की तरफ नहीं ले जा सके। इसके दो कारण थे, पहला तो यह कि मानसिंह तथा आसफ खाँ को भय था कि यदि वे बिना अतिरिक्त मुगल सेना आए अपने स्थान से निकलने का प्रयास करेंगे तो महाराणा के राजपूत एवं भील सैनिक मुगलों को मच्छरों की तरह मार देंगे।
दूसरा कारण यह था कि उन्हें भय था कि यदि वे महाराणा को परास्त किए बिना ही बादशाह के पास लौट कर गए तो अवश्य ही अकबर नाराज होकर उन्हें दण्डित करेगा। मानसिंह तथा आसफ खाँ के इस भय से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अकबर ने उन्हें क्या आदेश देकर युद्ध करने के लिए भेजा होगा!
या तो महाराणा को मारकर लौटना, या फिर मत लौटना। ऐसा ही कुछ शाही आदेश मानसिंह तथा आसफ खाँ के लिए रहा होगा।
इसलिए उन दोनों ने एक उपाय सोचा। उन्होंने बड़बोले मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी को अकबर की सेवा में भेजने का निश्चय किया ताकि मुल्ला बदायूंनी बादशाह अकबर के सामने जाकर शाही सेना की जीत की डींगें हांक सके।
अकबर के मन में अपनी जीत के प्रति विश्वास उत्पन्न करने के लिए मानसिंह तथा आसफ खाँ ने शाही सेना की विजय के लिखित वृत्तांत के साथ महाराणा प्रताप के रामप्रसाद नामक हाथी को प्रमाण के रूप में भेजा।
मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है कि रामप्रसाद हाथी लूट में हाथ लगा था, जिसको बादशाह ने कई बार राणा से मांगा था, परंतु दुर्भाग्यवश राणा नटता ही रहा था। स्पष्ट है कि बदायूंनी ने भी अबुल फजल की तरह झूठ बोलने में कोई परहेज नहीं किया है।
क्योंकि परिस्थितियां स्वयं स्पष्ट करने में सक्षम हैं कि न तो अकबर को महाराणा प्रताप के रामप्रसाद नामक हाथी के बारे में कुछ पता होगा। न अकबर ने महाराणा से कभी हाथी मांग कर स्वयं को छोटा करने का प्रयास किया होगा।
मुल्ला बदायूंनी लिखता है कि मैं बागोर और मांडलगढ़ होता हुआ आम्बेर पहुँचा। लड़ाई की खबर सर्वत्र फैल गई थी किंतु मैं मार्ग में उस लड़ाई में महाराणा की हार के सम्बन्ध में जो कुछ कहता, लोग उस पर विश्वास नहीं करते थे।
फिर टोडा और बसावर होता हुआ मैं फतहपुर पहुँचा, जहाँ राजा भगवानदास के द्वारा बादशाह की सेवा में उपस्थित हुआ और अमीरों के पत्र तथा राणा का हाथी बादशाह के नजर किया।
मुल्ला बदायूंनी लिखता है कि बादशाह ने पूछा इस हाथी का क्या नाम है?’ मैंने निवेदन किया कि ‘रामप्रसाद’। इस पर बादशाह ने कहा कि यह विजय पीर की कृपा से हुई है इसलिये इसका नाम ‘पीरप्रसाद’ रखा जाये।
फिर बादशाह ने मुझ से पूछा कि अमीरों ने तुम्हारी बड़ी प्रशंसा लिखी है, परन्तु सच-सच कहो कि तुम कौनसी सेना में रहे और तुमने वीरता का क्या काम किया? फिर मैंने सारा हाल निवेदन किया जिस पर बादशाह ने प्रसन्न होकर मुझे 96 अशर्फियां बख्शीं।’
पाठकों को स्मरण होगा कि जब बदायूंनी ने अकबर से मानसिंह तथा आसफ खाँ के साथ महाराणा प्रताप के विरुद्ध जेहाद में जाने की अनुमति मांगी थी, तब भी अकबर ने बदायूंनी को 96 अशर्फियां देकर विदा किया था।
कहा नहीं जा सकता कि अकबर मुल्ला बदायूंनी की उन बातों से कितना सहमत और कितना संतुष्ट हुआ होगा जो बातें बदायूंनी ने अकबर को मानसिंह तथा आसफ खाँ की विजय के बारे में बताई होंगी किंतु अकबर को अधिक दिनों तक अंधेरे में नहीं रखा जा सकता था।
कुछ ही दिनों में अकबर के सामने स्थितियां स्वतः स्पष्ट होती चली गईं और वह समझ गया कि मुगलों ने हल्दीघाटी में जबर्दस्त मार खाई है।
उधर मानसिंह और आसफ खाँ भी समझ चुके थे कि महाराणा प्रताप की सेना ने मुगल सेना को गोगूंदा में बंदी बना लिया है। फिर भी वे अकबर को भुलावे में रखने के लिये अपनी जीत के समाचार भेजता रहे तथा मेवाड़ से सुरक्षित रूप से निकलने का उपाय ढूंढते रहे।
महाराणा की सेना मुगल सेना से बहुत छोटी थी किंतु राणा का भय मुगल सैन्य में इस कदर व्याप्त था कि भोजन प्राप्ति के लिये गोगूंदा से निकली मुगल टुकड़ी, छोटा सा खटका होते ही कोसों दूर भाग जाती थी।
चिलचिलाती धूप, गर्म लू के थपेड़ों और कहीं भी किसी भी समय राणा के सैनिकों के टूट पड़ने का भय मुगल सेना को काल की तरह खाने लगा। उस पर महाराणा ने पहले ही दिन मुगल सेना की रसद सामग्री छीन ली थी। इस कारण मुगल सैनिक पहाड़ों में लगे आम के पेड़ों से आम तोड़कर खाने लगे। ज्यादा आम खाने से बहुत से सैनिक बीमार पड़ गये।
अकबर समझ चुका था कि हल्दीघाटी में उसके हाथ कुछ नहीं आया अपितु उसने खोया ही है फिर भी अकबर ने इस तरह का अभिनय किया मानो हल्दीघाटी में मुगल सेना को भारी विजय मिली हो तथा उसकी बहुत बड़ी इच्छा पूरी हो गई हो।
इसलिये 29 सितम्बर 1576 को अकबर ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती के उर्स पर अजमेर आया और वहाँ से उसने 6 लाख रुपये और कुछ सामान मक्का और मदीना के योग्य पुरुषों को बांटने के लिये देकर सुल्तान ख्वाजा को रवाना किया।
बदायूंनी ने लिखा है कि अकबर ने कुतुबुद्दीन मुहम्मद खाँ, कुलीज खाँ और आसफ खाँ को यह आज्ञा देकर भेजा कि वे गोगूंदा से ख्वाजा का साथ छोड़ दें, राणा के मुल्क में सब जगह फिरें और जहाँ कहीं उसका पता लगे, वहीं उसको मार डालें।
मानसिंह को गोगून्दा में रहते हुए चार माह बीत गये थे किंतु उससे कुछ भी न बन पड़ा जिससे बादशाह ने मानसिंह, आसफ खाँ और काजी खाँ को वहाँ से चले आने की आज्ञा लिख भेजी।
शाही सेना गोगूंदा में कैदियों की तरह पड़ी हुई थी। जब कभी थोड़े से आदमी रसद का सामान लाने के लिये जाते तो उन पर राजपूत धावा करते थे।
कविराज श्यामलदास ने वीर विनोद में लिखा है कि इन आपत्तियों से घबराकर शाही सेना राजपूतों से लड़ती-भिड़ती अजमेर के लिए रवाना हो गई। मार्ग में महाराणा की सेना ने उन्हें जगह-जगह घेरा और बहुत से मुगल सैनिकों को मार डाला।
जब मानसिंह, आसफ खाँ और काजी खाँ अजमेर पहुँचे तो अकबर ने मानसिंह तथा आसफ खाँ की गलतियों के कारण उन दोनों की ड्यौढ़ी बंद कर दी। इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि वे कौनसी गलतियां थीं जिनके कारण अकबर ने अपने सेनापतियों को अपने दरबार में आने से मना कर दिया।
मुगलों के काल में किसी राजा या सेनापति को ड्यौढ़ी बंद की सजा बहुत अपमानजनक मानी जाती थी। इसका अर्थ यह था कि पराजित या अपराधी व्यक्ति बादशाह के महल की ड्यौढ़ी नहीं लांघ सकता था। अर्थात् बादशाह उसका मुंह नहीं देखता था। जब मानसिंह की ड्यौढ़ी बंद की गई तो मानसिंह का बड़ा अपमान हुआ।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!