वर्ष 2024 के आरम्भ में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का उद्घाटन होने के साथ ही यद्यपि रामजन्मभूमि संघर्ष का पटाक्षेप हो चुका है तथापि इस विषय पर वामपंथी इतिहासकारों का मकड़जाल अपने पीछे कई प्रश्न छोड़ गया है।
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का धरती पर कब अवतरण हुआ, उनका प्राकट्य किस स्थान पर हुआ, उनकी लीलाएं कहाँ-कहाँ हुईं, आदि विषयों पर इतिहास और पुरातत्व के साथ-साथ हिन्दुओं की धार्मिक मान्यताएं एवं जनभावनाएं भी महत्व रखती हैं किंतु वामपंथी इतिहासकारों ने इन समस्त दृष्टिकोणों की उपेक्षा करके अपनी वही घिसी-पिटी राजनीति का निर्वहन किया जो वे देश की आजादी के बाद से ही करते आए हैं।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक के. के. मुहम्मद ने वामपंथी इतिहासकारों का मकड़जाल खुल कर देश के सामने रखा है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक के. के. मुहम्मद ने मलयालम में लिखी अपनी आत्मकथा- ‘न्यांन एन्ना भारतियन’ यानी ‘मैं एक भारतीय’ में पुरातात्विक महत्व के कुछ साक्ष्यों की चर्चा की है। जनवरी 2016 में प्रकाशित इस पुस्तक के लेखक मुहम्मद ई.1976-77 में अयोध्या में हुए उत्खनन और अध्ययन से जुड़े रहे थे।
वे प्रोफेसर बी. बी. लाल के नेतृत्व में गठित उस पुरातत्व दल के सदस्य थे जिसने दो महीने अयोध्या में रहकर उत्खनन किया था। इस दल को वहाँ एक प्राचीन मंदिर के अवशेष दिखे और उनसे यह स्पष्ट हुआ कि बाबरी मस्जिद का निर्माण मंदिर की अवशेष सामग्री से ही हुआ था।
के. के. मुहम्मद ने लिखा है कि बाबरी मस्जिद की दीवारों पर मंदिर के स्तंभ थे। ये स्तंभ काले पत्थरों से बने थे। स्तंभों के निचले भाग पर पूर्ण कलशम जैसी आकृतियां मिलीं, जो 11वीं और 12वीं सदी के मंदिरों में दिखाई देती हैं। वहाँ ऐसे एक-दो नहीं, अपितु 1992 में मस्जिद विध्वंस के पहले तक 14 स्तंभ मौजूद थे।
के. के. मुहम्मद ने लिखा है कि मस्जिद के पीछे और किनारे वाले हिस्सों में एक चबूतरा भी मिला जो काले बेसाल्ट पत्थरों से निर्मित है। इन साक्ष्यों के आधार पर दिसंबर 1990 में उन्होंने कहा कि वहाँ एक मंदिर ही था।
मुहम्मद के अनुसार तब तक यह ज्वलंत मुद्दा बन गया था, फिर भी बहुत से उदारवादी मुसलमानों ने बाबरी मस्जिद को हिंदुओं को सौंपने पर सहमति व्यक्त की किंतु उनमें सार्वजनिक रूप से ऐसा कहने की हिम्मत नहीं थी।
मुहम्मद ने लिखा है कि यदि तब बात आगे बढ़ती तो अयोध्या विवाद का पटाक्षेप हो सकता था। कठिनाई यह हुई कि इस विवाद में वामपंथी इतिहासकार कूद पड़े और उन्होंने उन मुसलमानों के पक्ष में तर्क प्रस्तुत किए जो मंदिर स्थल को हिंदुओं को सौंपने के पक्ष में नहीं थे।
के. के. मुहम्मद ने एस गोपाल, रोमिला थापर और बिपिन चंद्रा जैसे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के इतिहासकारों का विशेष रूप से उल्लेख किया जिन्होंने रामायण की ऐतिहासिकता पर प्रश्न उठाने के साथ ही कहा कि 19वीं शताब्दी से पहले मंदिर विध्वंस के कोई साक्ष्य नहीं हैं।
इन वामपंथी इतिहासकारों ने यहाँ तक कहा कि अयोध्या तो बौद्ध और जैन धर्म का केंद्र था। प्रोफेसर आर. एस0 शर्मा, अख्तर अली, डी. एन. झा, सूरज भान और इरफान हबीब भी उनके साथ हो गए। इस खेमे में सिर्फ सूरजभान ही पुरातत्व विशेषज्ञ थे। उन्होंने इसी रूप में अनेक सरकारी बैठकों में भाग लिया था।
इनमें से अधिकांश बैठकें इरफान हबीब के नेतत्व में हुई थीं जो उस समय भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष भी थे। तत्कालीन सदस्य सचिव एम. जी. एस. नारायणन ने परिषद परिसर में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी की बैठक का विरोध भी किया था, किंतु इस आपत्ति का उन पर कोई असर नहीं हुआ।
उन्होंने मीडिया में अपने संबंधों का प्रयोग करके अयोध्या मामले में तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया। वामपंथी इतिहासकारों की बातों ने उन उदार मुसलमानों का रुख भी बदल दिया जो पहले हिन्दुओं से समझौते के पक्ष में थे।
मुहम्मद इसके लिए प्रमुख मीडिया समूहों को भी दोषी मानते हैं जो लगातार इन वामपंथी इतिहासकारों को प्राथमिकता देते रहे। वामपंथी इतिहासकारों ने समझौते की संभावना सदैव के लिए समाप्त कर दी। यदि उसी समय समझौता हो गया होता तो देश में हिंदू-मुस्लिम सम्बन्ध में इतनी कटुता न आई होती और इसके साथ ही कई अन्य मामले भी सुलझ जाते।
वामपंथी इतिहासकारों की कुचेष्टाओं और इलेक्ट्रोनिक मीडिया की नासमझी की देश को भारी कीमत चुकानी पड़ी। भारतीय नागरिक सेवा के एक अधिकारी एरावतम महादेवन ने लिखा है कि ‘यदि इतिहासकारों और पुरातत्वविदों में मतभेद हैं तो उस स्थान की दोबारा खुदाई से इसे हल किया जा सकता है किंतु किसी ऐतिहासिक गलती को सुलझाने के लिए किसी ऐतिहासिक दस्तावेज को ध्वस्त करना गलत है।’
बाबरी विध्वंस के बाद मिले अवशेषों में मुहम्मद ने ‘विष्णुहरि’ दीवार सबसे महत्वपूर्ण बताई। इस पर 11वीं-12वीं शताब्दी में नागरी लिपि एवं संस्कृत भाषा में एक शिलालेख खुदा मिला है कि यह मंदिर विष्णु (भगवान श्रीराम विष्णु के ही अवतार हैं) को समर्पित है जिन्होंने बाली और दस सिरों वाले रावण का वध किया था।
वर्ष 2003 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के निर्देशानुसार हुई खुदाई में भी 50 से भी अधिक मंदिर स्तंभ मिले। इनमें मंदिर के शीर्ष पर पाई जाने वाली अमालका और मगरप्रणाली अति महत्वपूर्ण हैं। यहाँ से कुल मिलाकर 263 प्रमाण प्राप्त हुए।
उनके आधार पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने निष्कर्ष निकाला कि बाबरी मस्जिद के नीचे मंदिर था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने भी इसे स्वीकार किया।
मुहम्मद यह भी लिखते हैं कि खुदाई के दौरान बहुत सतर्कता बरती गई ताकि पक्षपात के आरोप न लगें। खुदाई दल में सम्मिलित 131 कर्मचारियों में 52 मुसलमान थे। इस खुदाई समिति में बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी की ओर से इतिहासकार सूरज भान, सुप्रिया वर्मा, जया मेनन और इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त एक मजिस्ट्रेट भी थे।
के. के. मुहम्मद के अनुसार इलहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद भी वामपंथी इतिहासकार अपने दुष्प्रचार में लगे रहे।
कविता नायर-फोंडेकर को दिए गए साक्षात्कार में मुहम्मद ने कहा, ‘मुझे लगता है कि मुसलमान बाबरी मामले का हल चाहते थे किंतु वामपंथी इतिहासकारों ने उन्हें बरगलाया। इन इतिहासकारों को पुरातात्विक साक्ष्यों की जरा भी जानकारी नहीं थी। उन्होंने मुस्लिम समुदाय के सामने गलत जानकारी रखी।
मार्क्सवादी इतिहासकारों और कुछ अन्य बुद्धिजीवियों की जुगलबंदी मुसलमानों को ऐसी अंधेरी सुरंग में ले गई जहाँ से वापसी संभव नहीं थी। वह ऐतिहासिक भूल थी।’
के. के. मुहम्मद ने यह भी लिखा है, ‘हिंदुओं के लिए अयोध्या उतना ही महत्वपूर्ण है जितना मुसलमानों के लिए मक्का-मदीना। मुसलमान इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि मक्का-मदीना गैर-मुसलमानों के नियंत्रण में चले जाएं।’
वे लिखते हैं- ‘हिंदू बहुल देश होने के बावजूद अयोध्या में ऐतिहासिक मंदिर गैर-हिंदुओं के कब्जे में चला गया जो किसी भी सामान्य हिंदू को बहुत पीड़ा देता होगा। मुसलमानों को हिंदुओं की भावनाएं समझनी चाहिए। यदि हिंदू यह मानते हैं कि बाबरी मस्जिद राम का जन्म-स्थान है तो मुस्लिम दृष्टिकोण से भी उस जगह से मोहम्मद नबी का ताल्लुक नहीं हो सकता।’
मुहम्मद ने अपनी आत्मकथा में कई स्पष्टीकरण किए हैं और कहा है कि ‘वामपंथी इतिहासकारों ने तथ्यों को विरुपित किया। वे आज भी इस रुख पर अडिग हैं कि बाबरी मस्जिद ढांचे के नीचे राम मंदिर मौजूद था और इसे साबित करने के लिए उनके पास तथ्यों की भी कमी नहीं है। ‘
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज भी इन्हीं वामपंथी इतिहासकारों द्वारा लिखा गया भारत का इतिहास देश के समस्त विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है, उस इतिहास की फिर से समीक्षा किए जाने की आवश्यकता है ताकि देश के गौरवशाली अतीत को देश के नागरिकों के समक्ष पूरी सच्चाई के साथ रखा जा सके।
हमारी युवा पीढ़ी श्रीराम जन्मभूमि के इतिहास को पढ़कर ही भौतिकवाद की चमक से दूर रह सकती है तथा अपने देश से वैसा ही प्रेम कर सकती है जैसा वीर सावरकर, लाला लाजपतराय, सुभाष चंद्र बोस और भगतसिंह जैसे लाखों नौजवानों ने आजादी की लड़ाई के समय किया था।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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