हल्दीघाटी की ललकार आज भी इतिहास के नेपथ्य से निकलकर भारतीयों के मन-मस्तिष्क को आह्लादित करती है। हल्दीघाटी जैसा युद्ध भारत के इतिहास में महाभारत के बाद से लेकर आज तक के काल में कोई दूसरा नहीं हुआ।
कुछ इतिहासकार यह मानते हैं कि महाराणा प्रताप द्वारा हिन्दू धर्म एवं हिन्दू जाति के नाम पर अकबर के विरुद्ध जातीय संघर्ष किया गया।
कुछ इतिहासकारों द्वारा लिखा गया है कि महाराणा प्रताप का यह संघर्ष राष्ट्रीय गौरव से परिपूर्ण था और हिन्दू धर्म एवं हिन्दू जाति के गौरव की रक्षा के लिए किया गया था जबकि कुछ इतिहासकारों के अनुसार महाराणा प्रताप का यह कार्य अदूरदर्शिता पूर्ण था।
इतिहासकारों का एक तीसरा पक्ष भी है जो यह मानता है कि महाराणा प्रताप द्वारा अकबर के विरुद्ध किया गया संघर्ष हिन्दू जाति के गौरव की रक्षा के लिए नहीं किया गया था अपितु अपने तुच्छ राज्य की रक्षा के लिए किया गया था।
इन इतिहासकारों के अनुसार चूंकि महाराणा प्रताप अदूरदर्शी तथा अव्यवहारिक था, इसलिए उसने अपनी प्रजा को सुलह एवं शांति के मार्ग पर ले जाने की बजाय युद्ध एवं विनाश की विभीषिका में झौंक दिया!
महाराणा प्रताप के विरोध में तर्क देने वालों का कहना है कि यदि महाराणा प्रताप हिंदू जाति तथा हिंदू धर्म की रक्षा के लिये संघर्ष करता तो महाराणा प्रताप को अफगानों की सहायता प्राप्त नहीं हुई होती और महाराणा प्रताप अपनी सेना के एक अंग का संचालन हकीम खाँ सूरी को न सौंपता।
महाराणा के विरोधी इतिहासकारों के अनुसार अकबर तथा प्रताप के बीच का युद्ध हिंदू जाति और मुसलमान जाति के बीच का युद्ध नहीं था क्योंकि एक ओर तो हकीम खाँ सूरी मुसलमान होकर भी हिंदू राजा महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ रहा था तो दूसरी तरफ राजकुमार मानसिंह हिंदू होकर भी मुसलमान बादशाह अकबर के लिए लड़ रहा था। यदि यह हिंदू-मुस्लिम युद्ध होता तो अकबर अपनी सम्पूर्ण सेना का संचालन कुंवर मानसिंह को न सौंपता।
इन लोगों के अनुसार यदि हल्दीघाटी का युद्ध हिन्दू जाति, हिन्दू धर्म तथा हिन्दू देश की स्वतन्त्रता की रक्षा का युद्ध होता तो अन्य हिन्दू नरेश भी महाराणा प्रताप के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर अकबर के विरुद्ध लड़े होते किंतु उस काल के अधिकांश हिन्दू राजा अकबर की तरफ से लड़े थे।
महाराणा प्रताप के विरोधी मत के लोगों के अनुसार कुछ लेखकों का यह कहना कि अकबर के काल में महाराणा तथा उसके पक्ष के राजपूतों को छोड़कर शेष हिन्दू नरेश कायर हो गये थे और उनका इतना अधिक नैतिक पतन हो गया था कि वे अपने थोड़े से स्वार्थ के लिए अपनी स्वतन्त्रता, अपने धर्म तथा मान-सम्मान को मुगलों के हाथ बेच देने के लिए उद्यत हो गये थे, किसी भी प्रकार स्वीकार्य नहीं है।
महाराणा के विरोधियों के अनुसार चूंकि प्रताप मेवाड़ राज्य तथा सिसोदियों की राज्यसत्ता की रक्षा के लिये लड़ रहा था, इस कारण इस युद्ध से अन्य हिन्दू राज्यों को विशेष उत्तेजना नहीं मिली।
कुछ विद्वानों का कहना है कि राजपूताना के राजपूत राज्यों को मेवाड़ की साम्राज्यवादी नीति का अनुभव हो चुका था और मेवाड़़ के प्रतापी राजाओं ने उनके साथ जो व्यवहार किया था उनमें मेवाड़ के प्रति पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया था। अब वे मेवाड़ के नेतृत्व में संगठित होने के लिए तैयार नहीं थे।
इन विद्वानों के अनुसार अकबर भी जातीयता अथवा धार्मिक भावना से प्रेरित होकर महाराणा के विरुद्ध युद्ध नहीं कर रहा था। मेवाड़ पर आक्रमण अकबर की साम्राज्यवादी नीति का एक अंग था।
यदि मेवाड़ गैर-हिन्दू राज्य होता तो भी अकबर उस पर उसी प्रकार आक्रमण करता, जिस प्रकार उसने अन्य हिन्दू अथवा अन्य मुसलमान राज्यों पर किया था। इन लोगों के अनुसार अकबर ने विशुद्ध राजनीतिक उद्देशय से मेवाड़ पर आक्रमण किया था न कि मजहबी उद्देश्य से।
यदि हम महाराणा प्रताप के विरोधियों के तर्कों को स्वीकार करते हैं तो हमें स्पष्ट भान हो जाता है कि हम मध्य-ऐशियाई देशों से खलीफा की सेना के रूप में भारत में प्रवेश करने वाली एवं बाबर की सेना के रूप में भारत पर अधिकार करने वाली एक विदेशी जाति, विदेशी संस्कृति एवं विदेशी राज्यसत्ता के विरुद्ध महाराणा प्रताप, उसके पूर्वजों एवं उसके वंशजों द्वारा द्वारा किए गए संर्घष को नकारते हैं।
निश्चित रूप से महाराणा प्रताप ही नहीं अपितु सम्पूर्ण गुहिल राजवंश द्वारा पहले तुर्कों एवं बाद में मुगलों के विरुद्ध किया गया संघर्ष राष्ट्रीय संघर्ष था, हिन्दू अस्मिता की रक्षा के लिए किया गया संघर्ष था।
यदि यह भी मान लिया जाए कि महाराणा प्रताप, उसके पूर्वज एवं उसके वंशज केवल अपने राज्य की रक्षा के लिए लड़ रहे थे, तब भी विदेशियों के विरुद्ध गुहिलों द्वारा किए गए संघर्ष का मूल्य कम नहीं हो जाता। न ही हल्दीघाटी की ललकार धीमी पड़ती है।
महाराणा प्रताप के विरोधी इस प्रश्न का जवाब कभी नहीं दे पाते कि जब अन्य हिन्दू राजा, यहाँ तक कि सैंकड़ों सालों तक महाराणाओं के अधीन रहने वाले हिन्दू राजा भी मुगलों की अधीनता स्वीकार करके अपने राज्यों को सुरक्षित रख पा रहे थे, तब महाराणा प्रताप अकबर की अधीनता स्वीकार करके अपना राज्य कैसे गंवा देते!
निश्चित ही है कि महाराणा अपने राज्य की रक्षा के लिए नहीं अपितु राष्ट्रीय गौरव एवं हिन्दुओं की जातीय गौरव की रक्षा के लिए लड़ रहे थे। वे राज्य की सुरक्षा के लिए नहीं अपितु अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए लड़ रहे थे।
महाराणा प्रताप के संघर्ष की विराटता के पक्ष एवं उनके विरोध में विचार रखने वालों द्वारा प्रस्तुत तथ्यों पर विचार करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि महाराणा प्रताप एक आदर्शवादी राजा था।
वह प्राचीन क्षत्रियों के आदर्शों पर चलते हुए हिन्दू जाति तथा धर्म के गौरव को बनाये रखने के लिये, अपने क्षत्रियपन को बचाए रखने के लिए, अपने कुल की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए जीवन भर कठिन संघर्ष करता रहा।
महाराणा ने किसी भी प्रकार के लालच में आए बिना, अकबर से संघर्ष किया, उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की। महाराणा ने अफगानों की सहायता इसलिये स्वीकार की क्योंकि उस काल में अफगान, मुगलों के सबसे बड़े शत्रु थे और वे स्वेच्छा से मुगलों के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे।
यह भी स्पष्ट है कि महाराणा का हिन्दुत्व काल्पनिकता तथा कोरी भावुकता से प्रेरित नहीं था जिसमें हकीम खाँ सूरी जैसे अफगान तोपचियों की सेवा लेने का भी साहस न हो! हिन्दू जाति तथा हिन्दू गौरव की रक्षा का अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि महाराणा के लिये अफगान मित्र भी अस्पर्श्य हो जाते।
महाराणा पर थोथे आदर्श, काल्पनिकता तथा कोरी भावुकता का आरोप तभी लग सकता था जब वह मुगलों के साथ-साथ अफगानों को भी अपना शत्रु बना लेता। जब अकबर हिंदुओं की तलवार से हिंदुओं को मार सकता था तो महाराणा भी अफगानों की तोपों से मुगलों को मार सकता था।
इसमें कोई दो राय नहीं कि अकबर मुगल राज्य की स्थापना के लिये लड़ रहा था जबकि महाराणा प्रताप हिन्दू गौरव की रक्षा के लिये लड़ रहा था। इस सम्पूर्ण विवेचना से यही निष्कर्ष निकलता है कि हल्दीघाटी की ललकार विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध राष्ट्रीय संघर्ष के जारी रहने की घोषणा थी!
जिन परिस्थितियों में हल्दीघाटी का युद्ध हुआ, उन्हें देखते हुए कहा जा सकता है कि भारत के राष्ट्रीय गौरव की किलकारी थी हल्दीघाटी की ललकार!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!