भारत की गोरी सरकार का 1909 ई. का अधिनियम मार्ले-मिण्टो सुधार एक्ट कहलाता है। यह कांग्रेस की 1907 ई. की सूरत फूट का लाभ उठाने, कांग्रेस के उग्रवादी नेताओं को हतोत्साहित करने, उदारवादी नेताओं की पीठ थपथपाने, क्रांतिकारी आंदोलन को कुचलने और अलगाववादी-मुसलमानों को प्रसन्न करके उन्हें कांग्रेस तथा राष्ट्रीय आन्दोलन से दूर रखने की एक सोची-समझी तथा सुनिश्चित रणनीति थी। भारतीयों को 1909 ई. के सुधारों से सन्तोष नहीं हुआ और देश में दिन-प्रतिदिन राजनीतिक असन्तोष के साथ-साथ क्रान्तिकारी एवं आतंकवादी गतिविधियों में वृद्धि होती चली गई। 1914 ई. में प्रथम विश्व युद्ध आरम्भ हुआ। तिलक और ऐनीबीसेंट ने मिलकर होमरूल आन्दोलन चलाया। भारतीय जनता पुनः संघर्ष के रास्ते पर चल पड़ी। सरकार को विश्व युद्ध में भारतीयों के सहयोग की आवश्यकता थी। कांग्रेस की अपील पर भारतीयों ने इस युद्ध में अँग्रेजों का पूरा सहयोग दिया।
1916 ई. में इतिहास का पहिया एक बार फिर से सीधी दिशा में घूम गया जब बाल गंगाधर तिलक के प्रयासों से कांग्रेस के नरम दल और गरम दल (उदारवादी एवं उग्रवादी) पुनः एक हो गये। इसी काल में कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों एक ही मंच पर आकर अँग्रेजों से अधिक सुधारों की मांग करने लगीं। इस बीच इंग्लैण्ड की सरकार ने मेसोपोटामिया में तुर्की के विरुद्ध युद्ध का संचालन भारत सरकार को सौंपा। भारत सरकार मेसोपोटामिया के मोर्चे पर असफल रही। इस पर इंग्लैण्ड में बड़ा विवाद उठा और मेसोपोटामिया कमीशन की नियुक्ति की गई। इस कमीशन ने भारत सरकार को दोषी ठहराया, उसकी कड़ी आलोचना की तथा उसे सर्वथा अयोग्य बताया। उसने तत्कालीन भारतीय शासन-प्रणाली को त्रुटिपूर्ण बताते हुए उसमें सुधारों की मांग की। फलस्वरूप भारत सचिव चेम्बरलेन को त्यागपत्र देना पड़ा और मांटेग्यू ने उसका स्थान ग्रहण किया।
भारत सरकार अधिनियम-1919 (मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार)
प्रथम विश्व युद्ध जीतने के लिये इंग्लैण्ड को हर हालत में भारतीयों के सहयोग की आवश्यकता थी। इसलिये भारत सचिव मांटेग्यू ने 20 अगस्त, 1917 को इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ कॉमन्स में एक ऐतिहासिक घोषणा की। उसने कहा- ‘सम्राट की सरकार की नीति जिससे भारत सरकार भी पूर्णतः सहमत है, यह है कि भारतीय शासन के प्रत्येक विभाग में भारतीयों का सम्पर्क उत्तरोत्तर बढ़े और उत्तरदायी शासन प्रणाली का क्रमिक विकास हो, जिसमें अधिकाधिक प्रगति करते हुए भारत में स्वशासन प्रणाली स्थापित हो और वह ब्रिटिश साम्राज्य का एक अंग बनकर रहे। उन्होंने यह तय कर लिया है कि जितना शीघ्र हो इस दिशा में ठोस रूप में कुछ कदम उठाये जाएं।’
इस घोषणा में कोई ठोस एवं स्पष्ट व्यवस्था नहीं थी कि कौनसे कदम उठाये जायेंगे। भारत के विभिन्न पक्षों में इस घोषणा पर मिलीजुली प्रतिक्रिया हुई। कांग्रेस के नरम दल ने उसका स्वागत मैग्नाकार्टा के रूप में किया, जबकि गरम दल नेताओं ने इसको शब्दों का जाल बताकर राष्ट्रीयता को अवरुद्ध करने की दिशा में एक षड़यन्त्र बताया। जन-साधारण ने इसे संवैधानिक सुधारों की दिशा में महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखा। जब इसके प्रारूप का प्रकाशन हुआ तो भारतीयों को आशा की अपेक्षा निराशा अधिक हुई क्योंकि प्रस्तावित योजना में भारतीयों की प्रगति का मूल्यांकन, ब्रिटिश सरकार के हाथों में रखा गया और एकदम उत्तरदायी सरकार की स्थापना नहीं की गयी, जो कि भारतीयों की प्रमुख मांग थी। मांटेग्यू की रिपोर्ट के आधार पर 2 जून 1919 को एक विधेयक ब्रिटिश संसद में रखा गया। 18 दिसम्बर 1919 को यह विधेयक संसद द्वारा पारित कर दिया गया तथा 23 दिसम्बर 1919 को इंग्लैण्ड के बादशाह ने इसे स्वीकृति प्रदान कर दी जिससे यह कानून बन गया।
अधिनियम को पारित करने के कारण
1919 ई. के सुधार अधिनियम को पारित करने के निम्नलिखित कारण थे-
(1.) मार्ले-मिन्टो सुधार अधिनियम-1909 के द्वारा गोरी सरकार ने मुसलमानों की निष्ठा क्रय करने और हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य उत्पन्न करने का प्रयास किया था परन्तु बाद में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं जिनके कारण मुसलमान भी अँग्रेजों के विरोधी बन गये और 1916 ई. में वे कांग्रेस के साथ मिलकर स्वराज की मांग करने लगे।
(2.) तिलक और ऐनीबीसेंट के होमरूल आन्दोलन ने भारतीयों में नवीन आशा का संचार किया। सरकार ने आन्दोलन को क्रूर तरीके से दबाने का प्रयास किया। इससे जन असन्तोष और अधिक भड़क उठा। इसे शान्त करना आवश्यक था।
(3.) केन्द्रीय विधान परिषद् के 19 निर्वाचित सदस्यों ने भारत मंत्री को भारत में सुधारों के सम्बन्ध में एक प्रस्ताव भिजवाया था।
(4.) कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष कांग्रेस लीग योजना के नाम से सुधारों की एक योजना प्रस्तुत की थी।
(5.) मेसोपोटामिया कमीशन की रिपोर्ट में भारतीय शासन प्रणाली को त्रुटिपूर्ण बताते हुए उसमें सुधारों की मांग की गई थी।
(6.) प्रथम विश्व युद्ध के काल में भारतीयों का सहयोग प्राप्त करने के लिये ब्रिटिश सरकार ने, युद्ध समाप्ति के बाद भारतीयों को स्वराज्य देने की बात कही थी। युद्ध समाप्ति के बाद जब भारतीयों को कुछ भी नहीं मिला तो उनका आक्रोश चरम पर पहुंच गया। भारतीयों के असन्तोष को कम करने के लिये मार्ले-मिन्टो सुधार अधिनियम के माध्यम से उत्तरदायी शासन की स्थापना का नाटक रचा गया।
मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट
नवम्बर 1917 में भारत सचिव मांटेग्यू दिल्ली आये। उन्होंने गवर्नर जनरल चेम्सफोर्ड के साथ भारत के प्रमुख नगरों का दौरा किया। मांटेग्यू ने भारतीय सेना के प्रमुख अधिकारियों तथा विभिन्न प्रतिनिधि मण्डलों से विचार-विमर्श करके प्रस्तावित सुधारों के बारे में उनके सुझाव प्राप्त किये। तत्पश्चात् एक रिपोर्ट तैयार की गई जिसे मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट कहते हैं। 8 जुलाई 1918 को यह रिपोर्ट प्रकाशित कर दी गई। इस रिपोर्ट के मुख्य बिन्दु इस प्रकार से थे-
(1.) जहाँ तक सम्भव हो, स्थानीय संस्थाओं पर जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों का नियन्त्रण हो, सरकार का हस्तक्षेप कम से कम हो।
(2.) प्रान्तों में आंशिक उत्तरदायी सरकारें स्थापित की जायें और प्रान्तों को पहले की अपेक्षा अधिक शक्तियां दी जायें।
(3.) ब्रिटिश संसद के प्रति भारत सरकार की जिम्मेदारी ज्यों की त्यों बनी रहे किन्तु केन्द्रीय विधान परिषद् का विस्तार किया जाये ताकि यह भारत सरकार को पहले से अधिक प्रभावित कर सके।
(4.) भारत सरकार पर, भारत सचिव का नियन्त्रण कम कर दिया जाये।
(5.) सिक्ख, ईसाई और आंग्ल-भारतीयों को भी अलग प्रतिनिधित्व दिया जाये।
भारत सरकार अधिनियम 1919
मांटेग्यू-चैम्सफोर्ड रिपोर्ट के आधार पर 1919 ई. में ब्रिटिश संसद में एक विधेयक पारित किया गया। इसे मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार अधिनियम अथवा भारत सरकार अधिनियम 1919 कहते हैं। इस अधिनियम को 1921 ई. में लागू किया गया। इस अधिनियम के अन्तर्गत निम्नलिखित संवैधानिक परिवर्तन किये गये-
(क) गृह सरकार
भारत सचिव: भारत में ब्रिटिश शासन प्रणाली के अंतर्गत भारत के शासन को दो भागों में बांटा गया था- एक भाग इंग्लैण्ड में कार्य करता था और दूसरा भारत में। शासन का इंग्लैण्ड वाला भाग गृह सरकार कहलाता था। इसके पांच मुख्य अंग थे- बादशाह, मन्त्रिमण्डल, संसद, भारत सचिव और भारत परिषद् (इण्डिया कौंसिल)। इनमें भारत सचिव और भारत परिषद् सर्वाधिक महत्त्वूपर्ण थे। भारत सचिव, भारत के शासन सम्बन्धी मामलों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी था। अब तक भारत सचिव को भारतीय राजस्व में से वेतन मिलता था। भारतीयों ने इस प्रणाली के विरुद्ध अनेक बार विरोध प्रदर्शित किया था। अतः 1919 ई. के अधिनियम द्वारा भारत सचिव का वेतन इंग्लैण्ड के कोष से दिये जाने की व्यवस्था की गई। 1919 के अधिनियम के द्वारा भारत सचिव की शक्तियों में मामूली कमी की गई। प्रान्तों में जो विषय भारतीय मंत्रियों को दिये गये, उन्हें हस्तान्तरित विषय कहा गया तथा जो विषय गवर्नर के पास रखे गये, उन्हें रक्षित विषय कहा गया। हस्तान्तरित विषयों में भारत सचिव का हस्तक्षेप निम्नलिखित बातों तक सीमित कर दिया गया –
(1.) ब्रिटिश साम्राज्य के हितों की रक्षा करना।
(2.) गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद् को 1919 के अधिनियम के अन्तर्गत जो कार्य सौंपे गये है, उनकी देखभाल करना तथा उनके उचित कार्यों का समर्थन करना।
(3.) केन्द्रीय विषयों के शासन की देखभाल करना।
(4.) भारतीय हाईकमिश्नर, भारतीय नौकरियों और अपने ऋण लेने के अधिकारों की रक्षा करना।
(5.) केन्द्र तथा प्रान्तों के रक्षित विषयों पर भी भारत सचिव का नियन्त्रण कुछ ढीला कर दिया गया। इस अधिनियम के पूर्व जो भी विधेयक केन्द्रीय अथवा प्रान्तीय विधान सभाओं में प्रस्तुत किये जाते थे, उनमें भारत सचिव की पूर्व स्वीकृति आवश्यक थी। इस अधिनियम में यह व्यवस्था की गई कि कुछ विशेष मामलों से सम्बन्धित विधेयक जैसे- विदेशी मामले, सीमा शुल्क, सैनिक मामले, मुद्रा तथा सार्वजनिक ऋण आदि को छोड़कर शेष विषयों में भारत सचिव की पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होगी। प्रान्तों के मामलों के सम्बन्ध में यह निश्चित कर दिया गया कि किसी भी बिल को भारत सचिव के पास तब तक नहीं भेजा जायेगा, जब तक कि गवर्नर जनरल उसकी स्वीकृति के बारे में कोई रुकावट उत्पन्न न करे।
(6.) भारत सचिव की पूर्व-स्वीकृति के बिना, गवर्नर जनरल, भारत में कोई भी महत्त्वपूर्ण नियुक्ति नहीं करेगा तथा कोई भी महत्त्वपूर्ण पद कम नहीं करेगा।
भारत परिषद्: भारत परिषद् के संगठन में भी सुधार किया गया। अधिनियम के पूर्व भारत परिषद् का सारा व्यय भारत के राजस्व से वसूल किया जाता था। अब इस परिषद् के अधिकारियों, कर्मचारियों तथा कार्यकाल के समस्त खर्चे इंग्लैण्ड के खजाने से देने की व्यवस्था की गई। यह भी व्यवस्था की गई कि भारत परिषद् में कम से कम आठ तथा अधिक से अधिक बारह सदस्य होंगे। इनमें से आधे सदस्य ऐसे होंगे जिन्हें भारत में सेवा करने का कम से कम दस वर्ष का अनुभव हो। भारत परिषद् के सदस्यों का कार्यकाल 7 वर्ष से घटाकर 5 वर्ष कर दिया गया तथा उनका वेतन 1000 पौंड से बढ़ाकर 1200 पौंड वार्षिक कर दिया गया।
हाई कमिश्नर: इस अधिनियम के अन्तर्गत पहली बार हाई कमिश्नर के पद का सृजन किया गया। इससे पूर्व भारत सरकार के लिए भण्डारों की समस्त आवश्यक वस्तुएं और मशीनें भारत सचिव लन्दन में खरीदता था। इस अधिनियम में यह तय किया गया कि हाई कमिश्नर, भारत सरकार की समस्त आवश्यक वस्तुएं लन्दन में खरीदेगा। इसके अतिरिक्त वह इंग्लैण्ड में पढ़ने वाले भारतीय विद्यार्थियों की सुविधाओं और आवश्यकताओं पर ध्यान देगा। हाई कमिश्नर की नियुक्ति सपरिषद् गवर्नर जनरल करेगा। उसका वेतन भारतीय कोष से दिया जायेगा। उसे साधारणतः 6 वर्ष के लिये नियुक्त किया जायेगा।
उपर्युक्त परिवर्तनों से गृह-सरकार पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि इस अधिनियम के बाद भी उसकी वैधानिक सर्वोच्चता ज्यों की त्यों बनी रही। गवर्नर जनरल और उसकी सरकार के समस्त सदस्यों को गृह-सरकार का आदेश मानना तथा उनके द्वारा निर्धारित नीति पर चलना अनिवार्य था।
(ख) केन्द्रीय सरकार
गवर्नर जनरल और उसकी कार्यकारिणी: इस अधिनियम द्वारा केन्द्रीय कार्यकारिणी परिषद् की रचना और उसकी शक्तियों में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं किया गया। भारत की समस्त कार्यकारिणी शक्ति सपरिषद् गवर्नर जनरल में निहित थी। गवर्नर जनरल की शक्तियां पहले की भांति असीमित, निरंकुश और अनुत्तरदायी थीं। भारत की शान्ति एवं व्यवस्था के लिए वह भारत सचिव के प्रति उत्तरदायी था और भारत सचिव ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था। अपने विशेषाधिकारों, कार्यपालिका, व्यवस्थापिका तथा वित्तीय शक्तियों के कारण गवर्नर जनरल तानाशाह कहा जा सकता था। वह भारत में ब्रिटिश ताज का प्रतिनिधि था। उसकी नियुक्ति इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री की अनुशंसा पर इंग्लैण्ड के मुकुट द्वारा पांच वर्ष के लिए की जाती थी। गवर्नर जनरल अपनी कार्यकारिणी परिषद् का प्रधान होता था तथा उसकी अनुशंसा पर भारत सचिव कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों की नियुक्ति करता था। गवर्नर जनरल अपनी इच्छानुसार कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों में कार्य का विभाजन करता था और कार्यकारिणी परिषद् की बैठक बुलाता था। गवर्नर जनरल को ब्रिटिश भारत के हित, उसकी शान्ति और सुरक्षा आदि विषयों में अपनी कार्यकारिणी परिषद् की सम्मति मानने से मना करने का भी अधिकार था।
1919 ई. के अधिनियम में विदेश विभाग और राजनीतिक विभाग पर गवर्नर जनरल का सीधा नियंत्रण स्थापित किया गया। केन्द्रीय व्यवस्थापिका (विधान मण्डल) में कोई ऐसा प्रस्ताव जिसका सम्बन्ध सेना अथवा देशी राजाओं आदि से हो, बिना गवर्नर जनरल की पूर्व स्वीकृति के प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था। असाधारण परिस्थितियों में ब्रिटिश भारत तथा उसके किसी भाग की शान्ति एवं उत्तम शासन के लिए गवर्नर जनरल को 6 मास के लिये अध्यादेश जारी करने का अधिकार था।
गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में प्रधान सेनापति सहित 7 सदस्य थे। कार्यकारिणी के प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल पांच वर्ष था। 1919 ई. के अधिनियम के अन्तर्गत विधि-सदस्य की अर्हता में परिवर्तन किया गया। अब उसी व्यक्ति को इस पद पर नियुक्त किया जा सकता था जो भारत के उच्च न्यायालयों में कम से कम दस वर्ष तक एडवोकेट रहा हो। इस अधिनियम में यह भी कहा गया कि कार्यकारिणी में तीन सदस्य ऐसे होने चाहिए जिन्होंने ब्रिटिश ताज के अधीन कम से कम दस वर्ष सेवा की हो। इसके परिणामस्वरूप कार्यकारिणी में तीन भारतीय सदस्यों की नियुक्ति की गई किन्तु इन भारतीयों के हाथों में कोई वास्तविक शक्ति नहीं थी। कार्यकारिणी परिषद् केन्द्रीय विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी नहीं थी। कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य अपनी भावी उन्नति के लिए गवर्नर जनरल की अनुशंसाओं पर निर्भर रहते थे। इसलिये वे किसी भी मामले में गवर्नर जनरल को असन्तुष्ट नहीं करते थे। इस प्रकार कार्यकारिणी पर गवर्नर जनरल का पूरा नियंत्रण था।
केन्द्रीय व्यवस्थापिका: इस अधिनियम द्वारा पहली बार दो सदनों वाली केन्द्रीय व्यवस्थापिका की स्थापना की गई। पहले सदन को विधान सभा और दूसरे सदन को राज्य सभा कहा जाता था। विधान सभा 3 वर्ष के कार्यकाल के लिए तथा राज्य सभा 5 वर्ष के कार्यकाल के लिए निर्वाचित होती थी। गवर्नर जनरल इन सदनों को कार्यकाल समाप्त होने से पूर्व भी भंग कर सकता था। इनका संगठन इस प्रकार से किया गया था-
(1.) विधान सभा: विधान सभा में 145 सदस्य थे जिनमें 104 निर्वाचित सदस्य थे। निर्वाचित सदस्यों में से 52 सदस्य सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों से, 30 मुस्लिम, 2 सिक्ख, 9 यूरोपियन, 7 जमींदार तथा 4 भारतीय वाणिज्य के हितों का प्रतिनिधित्व करते थे। 41 मनोनीत सदस्यों में 26 सरकारी अधिकारी और 15 गैर-सरकारी सदस्य होते थे।
(2) राज्य सभा: इसकी अधिकतम संख्या 60 थी। इनमें से सरकारी सदस्यों की अधिकतम संख्या 20 हो सकती थी। शेष 40 सदस्यों में से 34 निर्वाचित (19 सामान्य निर्वाचन क्षेत्र से, 12 साम्प्रदायिक क्षेत्रों में से और 3 विशेष निर्वाचन क्षेत्रों से) होते थे। 6 गैर-सरकारी सदस्यों की नियुक्ति गवर्नर जनरल द्वारा की जाती थी।
विधान मण्डल का कार्यक्षेत्र: विधान सभा, केन्द्रीय सूची में उल्लिखित विषयों पर ब्रिटिश भारत के लिए कानून बना सकती थी। गवर्नर जनरल की पूर्व स्वीकृति से यह प्रान्तों के लिए भी कानून बना सकती थी किन्तु यह 1919 के अधिनियम में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती थी तथा ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती थी जो ब्रिटिश संसद के किसी कानून के विरुद्ध हो। केन्द्रीय बजट पहले विधान सभा में प्रस्तुत किया जाता था और फिर राज्य सभा में भेजा जाता था। बजट के लगभग 85 प्रतिशत भाग पर विधान सभा बहस तो कर सकती थी किन्तु मतदान नहीं कर सकती थी। शेष 15 प्रतिशत भाग के बारे में विधान सभा किसी खर्च के लिए मना कर सकती थी अथवा कोई कटौती कर सकती थी किन्तु यह किसी रकम को बढ़ा नहीं सकती थी।
कोई भी बिल, जब तक दोनों सदनों द्वारा पारित नहीं हो जाता था, कानून नहीं बन सकता था। बजट; राज्य सभा में उसी दिन प्रस्तुत किया जाता था, जिस दिन विधान सभा में प्रस्तुत किया जाता था। अन्य वित्त विधेयक पहले विधान सभा में प्रस्तुत किये जाते थे। राज्य सभा, वित्त विधेयक को अस्वीकार कर सकती थी अथवा संशोधनों के लिए लौटा सकती थी। यदि विधान सभा, राज्य सभा की अस्वीकृति या संशोधनों के सुझाव से सहमत न हो तो गवर्नर जनरल अपनी विशेष शक्तियों का उपयोग करके उसे स्वीकार कर सकता था।
केन्द्रीय विधान मण्डल का ढांचा अत्यन्त दोषपूर्ण था। गवर्नर जनरल तथा उसकी कार्यकारिणी, विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी नहीं थी। विधान मण्डल, गवर्नर जनरल तथा उसकी कार्यकारिणी के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करके उन्हें त्यागपत्र देने को बाध्य नहीं कर सकता था। वह केवल सार्वजनिक हितों के मामलों में प्रस्ताव कर सकता था किन्तु इन प्रस्तावों को मानना या न मानना गवर्नर जनरल की इच्छा पर निर्भर था। अतः विधान मण्डल के पास प्रभुत्व शक्ति का अभाव था। यह केवल कार्यकारिणी को प्रभावित कर सकता था। गवर्नर जनरल, विधान मण्डल द्वारा पारित किसी भी विधेयक को अस्वीकार अथवा संशोधित कर सकता था। आपातकाल में वह अध्यादेश प्रसारित कर सकता था। इससे स्पष्ट है कि गवर्नर जनरल भारतीय प्रशासन में सर्वेसर्वा था और केन्द्रीय विधान मण्डल उसके सामने असहाय था।
कार्य-शक्तियों का विभाजन: इस अधिनियम द्वारा प्रान्तों में आंशिक उत्तरदायी सरकारें स्थापित की गई थीं। अतः शासन सम्बन्धी समस्त विषयों को दो सूचियों मे विभाजित किया गया- केन्द्रीय सूची और प्रान्तीय सूची। जो विषय दोनों सूचियों में सम्मिलित होने से रह गये थे; वे केन्द्रीय सरकार के अर्न्तगत आ जाते थे। जिन विषयों के सम्बन्ध में सम्पूर्ण भारत अथवा एक से अधिक प्रान्तों में समान कानून की आवश्यकता अनुभव की गई, उन्हें केन्द्रीय सूची में रखा गया और प्रान्तीय हित के विषय प्रान्तीय सूची में रखे गये। केन्द्रीय सूची में 47 विषय थे, जैसे- प्रतिरक्षा, वैदेशिक सम्बन्ध, देशी रियासतों से सम्बन्ध, रेल, डाक व तार, सिक्के तथा नोट, सैन्य सम्बन्धी विषय, सार्वजनिक ऋण, दीवानी तथा फौजदारी कानून, सीमा शुल्क, रुई पर उत्पादन कर, नमक कर, आयकर आदि। प्रान्तीय सूची में 50 विषय रखे गये, जैसे- स्थानीय स्वशासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा चिकित्सा, शिक्षा, सार्वजनिक निर्माण कार्य, पुलिस तथा जेल, वन, सिंचाई, अकाल राहत, कृषि, भूमि कर, सहकारी संस्थाएं आदि। दोनों सूचियों के किसी विषय के सम्बन्ध में मतभेद होने पर उनका निर्णय गवर्नर जनरल करता था।
राजस्व विभाजन: प्रशासनिक अधिकारों की भांति राजस्व के साधनों को भी दो भागों- केन्द्रीय राजस्व तथा प्रान्तीय राजस्व में विभाजित किया गया। केन्द्रीय राजस्व में चुंगी, आयकर, रेल, डाक व तार, नमक, अफीम आदि रखे गये। प्रान्तीय राजस्व में भूमि कर, चुंगी, सिंचाई, स्टाम्प व रजिस्ट्रेशन आदि रखे गये। इस प्रकार राजस्व के प्रमुख स्रोत केन्द्र सरकार के पास थे।
(ग) प्रान्तीय शासन व्यवस्था
20 अगस्त 1917 को ब्रिटिश ताज की राजकीय घोषणा का लक्ष्य भारत को क्रमिक रूप से उत्तरदायी सरकार प्रदान करना था। इस दिशा में अग्रसर होने के लिए सबसे अधिक उपर्युक्त क्षेत्र प्रान्त ही थे परन्तु प्रान्तों में भी 1919 के अधिनियम द्वारा आंशिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को ही अपनाया गया, पूर्ण उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को नहीं। द्वैध शासन, केवल उन प्रान्तों में लागू किया गया जिनमें गवर्नर होते थे। जिन छोटे प्रान्तों में चीफ कमिश्नर थे, उनमें यह लागू नहीं किया गया।
द्वैध शासन प्रणाली: 1919 के अधिनियम के अन्तर्गत प्रान्तों में जो शासन व्यवस्था स्थापित की गई उसे द्वैध शासन प्रणाली कहा जाता है। द्वैध शासन का अर्थ है- दो शासकों का शासन। सम्पूर्ण प्रशासनिक विषयों को केन्द्रीय सूची और प्रान्तीय सूची में विभाजित किया गया। इस अधिनियम द्वारा पहली बार प्रान्तीय विषयों को भी दो भागों में बांटा गया- रक्षित विषय और हस्तान्तरित विषय। जिन विषयों को भारतीयों के हाथों में देने से ब्रिटिश सरकार को हानि नहीं थी, उन विषयों को हस्तान्तरित किया गया था तथा उनका शासन भारतीय मंत्रियों को सौंपा गया। उदाहरणार्थ- स्थानीय स्वशासन, चिकित्सा, सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं सफाई, यूरोपियनों एवं आंग्ल-भारतीयों की शिक्षा को छोड़कर शेष जनता की शिक्षा, सार्वजनिक कार्य, कृषि, सहकारी समितियां, मछली क्षेत्र, उद्योग-धन्धे, खाद्य वस्तुओं में मिलावट, जन्म तथा मृत्यु सम्बन्धी आंकड़े, तौल और माप आदि 22 विषय हस्तान्तरित रखे गये। शेष 28 विषय जो अधिक महत्त्वपूर्ण थे, वे रक्षित सूची में रखे गये, जैसे- भूमि कर, अकाल सहायता, न्यायिक प्रशासन, खनिज विकास, पुलिस, समाचार पत्र एवं छापाखानों पर नियन्त्रण, प्रान्तीय वित्त आदि।
दायित्व हस्तान्तरण: हस्तान्तरित विषयों का दायित्व भारतीय मंत्रियों को सौंपा गया, जो प्रान्तीय विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी होते थे। रक्षित विषयों का दायित्व गवर्नर तथा उसकी कार्यकारिणी परिषद् को सौंपा गया जो प्रान्तीय विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी न होकर भारत सचिव के प्रति उत्तरदायी होते थे। रक्षित विषयों पर प्रान्तीय विधान परिषद् का कोई नियन्त्रण नहीं था। जहाँ यह विवाद उत्पन्न हो जाता कि कोई विषय रक्षित है अथवा हस्तान्तरित, वहाँ गवर्नर अन्तिम निर्णय देता था। इस प्रकार, हस्तान्तरित विषयों के सम्बन्ध में केन्द्रीय नियंत्रण में शिथिलता दी गई।
द्वैध शासन प्रणाली की असफलता: इस अधिनियम के माध्यम से यह अपेक्षा की गई थी कि शासन के दोनों भाग (एक ओर गवर्नर तथा कार्यकारिणी परिषद् और दूसरी ओर गवर्नर तथा मंत्रिमण्डल) आपसी सहयोग से शासन का संचालन करेंगे परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं होने से द्वैध शासन व्यवस्था असफल हो गई। संयुक्त प्रवर समिति का मत था कि मन्त्रियों को संयुक्त उत्तरदायित्व के अनुसार काम करना चाहिए। इसलिए 1919 ई. के अधिनियम की एक धारा में, ‘हस्तान्तरित विषयों के सम्बन्ध में गवर्नर अपने मन्त्रियों की सलाह से कार्य करेगा’ की व्यवस्था की गई परन्तु अधिनियम में ‘मंत्री संयुक्त रूप से उत्तरदायी होंगे’ के लिए कोई नियम नहीं बनाया गया। अतः गवर्नर ने इसका लाभ उठाते हुए अलग-अलग मन्त्रियों से पृथक् विचार-विमर्श का तरीका अपनाया ताकि मन्त्रियों को दबा कर रखा जा सके।
प्रान्तीय कार्यपालिका: प्रान्तीय कार्यपालिका को भी दो भागों में बांटा गया। एक भाग तो गवर्नर और कार्यकारिणी परिषद् थी और दूसरा भाग गवर्नर और भारतीय मन्त्री थे। कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में कार्यकारिणी परिषद् में चार सदस्य थे, अन्य प्रान्तों में केवल दो सदस्य थे। यह व्यवस्था की गई कि कार्यकारिणी परिषद् में आधे सदस्य गैर-सरकारी भारतीय होंगे। कार्यकारिणी के समस्त सदस्य पांच वर्ष के लिए ब्रिटिश ताज द्वारा भारत सचिव की अनुंशसा पर नियुक्त किये जाते थे। व्यवहार में जिन व्यक्तियों के नाम की अनुंशसा गवर्नर जनरल करता था, भारत सचिव उन्हीं को स्वीकृति दे देता था। गवर्नर, प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद् का प्रधान होता था तथा वह कार्यकारिणी के किसी भी निर्णय की उपेक्षा कर सकता था।
हस्तान्तरित विषयों का शासन चलाने के लिए मन्त्री नियुक्त किये गये। उनकी अधिकतम संख्या निश्चित नहीं की गई। बम्बई, कलकत्ता एवं मद्रास में तीन मन्त्री नियुक्त किये गये और शेष प्रान्तों में दो मन्त्री नियुक्त किये गये थे। मन्त्रियों की नियुक्ति गवर्नर द्वारा की जाती थी तथा उसकी इच्छा रहने तक ही वे अपने पद पर बने रह सकते थे। मन्त्रियों की नियुक्ति विधान परिषद् के सदस्यों में से की जाती थी। यदि किसी ऐसे व्यक्ति को मन्त्री नियुक्त कर दिया जाता जो विधान परिषद् का सदस्य नहीं होता था, तो उसे 6 महीने में विधान परिषद् का सदस्य बनना होता था अथवा मन्त्री पद छोड़ना होता था। जिस मन्त्री में विधान परिषद् का विश्वास नहीं होता था, उसे भी पद छोड़ना होता था। गवर्नर को बिना कारण बताये मन्त्रियों को हटाने का अधिकार था। इस प्रकार, मन्त्रियों को विधान परिषद् तथा गवर्नर की दया पर छोड़ दिया गया था। इसलिए मन्त्रियों को अपने दो स्वामियों को प्रसन्न रखना पड़ता था। यदि मन्त्रियों की सलाह से प्रान्त की शान्ति या सुरक्षा में बाधा उत्पन्न होती हो अथवा अल्पसंख्यकों के हितों के विरुद्ध हो अथवा भारत सचिव व गवर्नर जनरल के आदेशों के विरुद्ध हो तो गवर्नर, मन्त्रियों की सलाह की उपेक्षा करके अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकता था। यदि किसी कारण से हस्तान्तरित विषयों का शासन इस अधिनियम के अनुसार नहीं चलाया जा सकता था, तो गवर्नर भारत सचिव की पूर्व स्वीकृति से इस अधिनियम को, अनिश्चित अवधि के लिये स्थगित कर सकता था। ऐसी स्थिति में हस्तान्तरित विषयों का प्रशासन रक्षित विषयों की तरह चलाया जा सकता था।
प्रान्तीय विधान मण्डल: 1919 के अधिनियम के द्वारा केन्द्र में कानून बनाने के लिए दो सदन रखे गये किंतु प्रान्तों में केवल एक ही सदन रखा गया। अतः प्रान्तीय विधान मण्डल से अभिप्राय केवल विधान परिषद् से है। इस अधिनियम के अन्तर्गत विधान परिषद के सदस्यों की संख्या में वृद्धि हो गई। प्रत्येक प्रान्त में इसके सदस्यों की संख्या भिन्न-भिन्न थी। मद्रास की विधान परिषद् के कुल सदस्यों की संख्या 132 थी, बम्बई 114, बंगाल 140, उत्तर प्रदेश 123, पंजाब 94, बिहार और उड़ीसा 103, मध्य प्रान्त 73, असम 531. यह व्यवस्था की गई कि विधान परिषद् में कम से कम 70 प्रतिशत सदस्य निर्वाचित होंगे। 20 प्रतिशत से अधिक सरकारी अधिकारी नहीं होंगे। कुछ मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य होते थे। गवर्नर की कार्यकारिणी के सदस्य विधान परिषद् के पदेन सदस्य होते थे। विधान परिषद् का कार्यकाल तीन वर्ष था किन्तु गवर्नर उसे, अवधि से पूर्व भी भंग कर सकता था और विशेष परिस्थिति में उसकी अवधि एक वर्ष के लिए बढ़ा भी सकता था।
यद्यपि प्रान्तों में निर्वाचित सदस्यों का बहुमत स्थापित कर दिया गया परन्तु मताधिकार इतना सीमित रखा गया कि 1920 ई. में ब्रिटिश भारत की 24 करोड़ 17 लाख जनसंख्या में से केवल 53 लाख लोगों को ही मताधिकार दिया गया। मताधिकार के लिए प्रत्येक प्रान्त में अलग अर्हताएं निर्धारित की गईं। सामान्यतः जो लोग देहाती क्षेत्रों में 10 रुपये से लेकर 50 रुपये तक प्रतिवर्ष भूमि कर देते थे, उन्हें मत देने का आधिकार दे दिया गया। नगरों में जो कम से कम 2000 रुपये वार्षिक आय पर आयकर देते थे या जिन्हें अपने मकान से कम से कम 36 रुपये वार्षिक किराया मिलता था या जो 36 रुपये वार्षिक किराया देते थे या जो नगरपालिका को कम से कम 3 रुपये वार्षिक टैक्स देते थे, वे अपना नाम मतदाता सूची में लिखवा सकते थे।
प्रान्तीय विधान परिषद् को यह अधिकार दिया गया कि वह अपने प्रान्त में अच्छी सरकार के लिए कानून बनाये। इस अधिनियम से पूर्व प्रत्येक बिल के लिए गवर्नर जनरल की आज्ञा लेना आवश्यक था किन्तु इस अधिनियम में यह तय किया गया कि कुछ विशेष मामलों को छोड़कर शेष के लिए गवर्नर जनरल की आज्ञा की आवश्यकता नहीं रहेगी परन्तु गवर्नर तथा गवर्नर जनरल को विशेष शक्तियां देकर विधान परिषद् के अधिकारों को सीमित कर दिया गया। विधान परिषद् को कई वित्तीय शक्तियां दी गईं परन्तु गवर्नर की विशेष शक्तियों द्वारा उन पर अनेक प्रतिबंध लगा दिये गये ताकि यदि विधान परिषद् गवर्नर की इच्छानुसार किसी मांग को पारित न करेे, तो गवर्नर अपनी विशेष शक्ति द्वारा पारित कर सके। बजट को दो भागों में बांट दिया जाता था। पहले भाग में वे रकमें सम्मिलित की जाती थीं जिन पर विधान परिषद् केवल बहस कर सकती थी, अपना मत नहीं दे सकती थी।
द्वैध शासन के दोष और उसकी असफलता के कारण
यद्यपि कांग्रेस ने द्वैध शासन प्रणाली का बहिष्कार किया था तथापि 1924 ई. में कांग्रेस की ओर से स्वराज पार्टी ने चुनावों में भाग लिया तथा विधान मण्डलों में प्रवेश कर इसे असफल बनाने का प्रयास किया। अतः सरकार ने मुडीमैन समिति की नियुक्ति की। इस समिति के यूरोपियन सदस्यों ने द्वैध शासन को मौलिक रूप से सही माना परन्तु समिति के भारतीय सदस्यों ने इसे गलत बताया। साइमन कमीशन ने भी द्वैध शासन प्रणाली के कई दोषों पर प्रकाश डाला। नेहरू रिपोर्ट में भी इसकी कटु आलोचना की गई। 1921 से 1937 ई. तक ब्रिटिश भारतीय प्रान्तों में द्वैध शासन पद्धति चालू रही परन्तु इसमें निहित दोषों के कारण इसका विफल होना निश्चित था। द्वैध शासन के निम्नलिखित दोष उसकी असफलता के कारण सिद्ध हुए-
(1.) सैद्धान्तिक दृष्टि से दोषपूर्ण: द्वैध शासन सैद्धान्तिक दृष्टि से दोषपूर्ण था। यह मान लिया गया था कि भारतीय अभी पूर्ण उत्तरदायी शासन के लिए अयोग्य हैं। इसलिए भारत में आरम्भ में आंशिक उत्तरदायी सरकार की स्थापना की जाये ताकि भारतीय मन्त्रियों को साधारण अधिकार मिल जायें और वास्तविक सत्ता अँग्रेजों के हाथों में बनी रहे। इसलिए भारतीयों का द्वैध शासन प्रणाली से असन्तुष्ट हो जाना स्वाभाविक था। प्रान्तीय सरकार को दो भागों में बांटना बिल्कुल गलत था जिसमें एक भाग विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी था और दूसरा अनुत्तरदायी था। इससे शासन की एकता तथा कार्यक्षमता नष्ट हो गई। सर रेजीनाल्ड क्राउक ने लिखा है- ‘द्वैध शासन एक प्रकार की वर्णसंकर व्यवस्था है जो कभी स्थाई नहीं रह सकती, क्योंकि किसी देश अथवा प्रांत के शासन का संचालन दो पृथक् अथवा स्वतंत्र मन्त्रिमण्डलों द्वरा सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता।’
(2.) विषयों का अवैज्ञानिक विभाजन: प्रान्तीय विषयों का रक्षित और हस्तांतरित विषयों में बंटवारा, सरकार की एकता को नष्ट करने वाला कदम था। इस विभाजन से नित्य नई समस्याएं उत्पन्न होती थीं। विषयों का बंटवारा भी अवैज्ञानिक ढंग से किया गया ताकि किसी भी मन्त्री के पास किसी भी समूचे विभाग का नियंत्रण न रहे और वे सदैव ही गवर्नर तथा उसकी कार्यकारिणी पर निर्भर रहें। उदाहराणार्थ, कृषि और सिंचाई का अभिन्न सम्बन्ध है किन्तु कृषि को हस्तान्तरित विषय और सिंचाई को रक्षित विषय रखा गया। मद्रास सरकार के व्यवसाय मंत्री सर के. वी. रेड्डी ने मुडीमैन कमेटी के समक्ष गवाही देते हुए कहा- ‘मैं कृषि मन्त्री था, पर सिंचाई से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं था। कृषि मन्त्री होते हुए भी मेरा मद्रास कृषक ऋण अधिनियम और मद्रास भूमि विकास ऋण अधिनियम से कोई सरोकार नहीं था। सिंचाई, कृषि ऋण, भूमि विकास ऋण और अकाल राहत के बिना कृषि मन्त्री की कार्यक्षमता और प्रभाव की केवल कल्पना ही की जा सकती है। मैं मन्त्री था उद्योग का परन्तु कारखाने, भाप यंत्र, जल-विद्युत तथा श्रम विभाग मेरे पास नहीं थे, क्योंकि ये सब रक्षित विषय थे।’
(3.) गवर्नर की विशेष शक्तियां: 1919 के अधिनियम के अन्तर्गत गवर्नरों को विशेष शक्तियां प्रदान की गईं जिसके कारण द्वैध शासन सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर पाया। गवर्नर ने तीन प्रकार से सारी शक्तियां अपने हाथों में ले लीं- (1.) गवर्नर को सरकार चलाने के लिये नियम बनाने तथा आदेश जारी करने का अधिकर था। उन्होंने नियम बना दिया कि सचिव अपने विभागीय कार्य के लिए सप्ताह में एक बार गवर्नर से मिले तथा उनके और मंत्रियों के मतभेद के प्रकरण गवर्नर के निर्णय हेतु प्रस्तुत करे। इससे मंत्री बिल्कुल शक्तिहीन हो गये और सचिव उनके विरुद्ध गवर्नर के कान भरने लगे। (2.) गवर्नरों ने मन्त्रियों से इकट्ठा मिलने की बजाय अलग-अलग मिलन आरम्भ कर दिया, इससे मन्त्रियों की बातों की उपेक्षा करना आसान हो गया। (3.) गवर्नरों ने यह सिद्धन्त अपना लिया कि मन्त्री केवल परामर्शदाता है और यह गवर्नर की इच्छा पर निर्भर है कि वह मन्त्रियों की किसी बात को माने या न माने। इसलिये गवर्नर मन्त्रियों की उचित सलाह की भी उपेक्षा करने लगे।
(4.) संयुक्त विचार-विमर्श का अभाव: अधिनियम के निर्माताओं ने प्रान्तीय सरकार के दोनों भागों (रक्षित तथा हस्तांतरित) के संयुक्त विचार-विमर्श की अनुशंसा की थी ताकि मन्त्रियों के माध्यम से गवर्नर की कार्यकारिणी को जन-इच्छाओं की जानकारी मिल सके और कार्यकारिणी के सदस्यों के अनुभव से मन्त्री भी कुछ सीख सकें। गवर्नरों को इस प्रकार के निर्देश भी दिये गये थे किन्तु मद्रास के गवर्नर को छोड़कर अन्य किसी भी गवर्नर ने इन निर्देशों का पालन नहीं किया। बजट पर विचार करने के अतिरिक्त कार्यकारिणी के सदस्य तथा मन्त्रिगण शासन सम्बन्धी मामलों पर विचार विमर्श के लिए कभी सम्मिलित नहीं होते थे। इससे उनमें निरन्तर अविश्वास और तनातनी रहती थी और वे सार्वजनिक रूप से एक दूसरे की निन्दा करते थे।
(5.) संयुक्त उत्तरदायित्व का अभाव: मन्त्री किसी भी संगठित दल के प्रतिनिधि नहीं थे, अतः वे किसी निश्चित कार्यक्रम से बंधे हुए नहीं थे। गवर्नरों ने उनमें संयुक्त उत्तरदायित्व की भावना उत्पन्न करने का प्रयास नहीं किया और न कभी सामूहिक विचार-विमर्श होने दिया। इसलिए विभिन्न समस्याओं पर उनके भिन्न-भिन्न विचार होते थे। कई बार एक मन्त्री, दूसरे मन्त्री की योजना की विधान परिषद् में आलोचना भी कर देता था। मन्त्रियों का कार्यकारिणी के साथ भी कोई समन्वय नहीं था। मन्त्री, विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी थे। जबकि कार्यकारिणी के सदस्य विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी नहीं थे। संयुक्त उत्तरदायित्व के अभाव में प्रशासन में अनेक कठिनाइयां उत्पन्न होने लगीं।
(6.) मन्त्रियों की कमजोर स्थिति: इस अधिनियम के अन्तर्गत मन्त्रियों को वास्तविक अधिकार नहीं दिये गये जिससे उनकी स्थिति काफी कमजोर बनी रही। वे राष्ट्र-निर्माण सम्बन्धी विभिन्न विभागों का संचालन करते थे परन्तु उनके पास कोष नहीं थे। प्रान्तों में वित्त विभाग रक्षित विषय था। अतः वित्त विभाग हर मामले में रक्षित विषयों का पक्ष लेता था और हस्तांतरित विषयों के मार्ग में अनेक प्रकार की बाधाएं उत्पन्न कर देता था, ताकि यह सिद्ध कर दिया जाये कि भारतीय मन्त्री अयोग्य हैं। वित्त विभाग का प्रयत्न रहता था कि हस्तान्तरित विभागों की मांगों पर विचार करने से पूर्व रक्षित विभागों की सारी मांगें पूरी कर दी जायें और फिर हस्तांतरित विभागों के सामने धन की कमी का बहाना लेकर उनकी मांगें अस्वीकार कर दी जायें। गवर्नर हस्तान्तरित विषयों में जब चाहे हस्तक्षेप कर सकता था और कारण बताये बिना, किसी भी मन्त्री को पदच्युत कर सकता था। इन कारणों से द्वैध शासन का असफलता हो जाना स्वभाविक ही था।
(7.) विधान परिषद् का दोषपूर्ण गठन: प्रान्तों की विधान परिषदों के गठन में दोष था। लगभग 30 प्रतिशत सदस्य सरकारी अधिकारी अथवा सरकार द्वारा मनोनीत गैर-सरकारी अधिकारी होते थे। जो सदस्य निर्वाचित थे, वे विभिन्न सम्प्रदायों तथा विशेषाधिकार प्राप्त तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करते थे। मतदान का अधिकार भी सम्पत्ति, आयकर तथा राजस्व सम्बन्धी योग्यता पर आधारित था। अतः विधान परिषद् के अधिकांश सदस्य सरकार को प्रसन्न रखने के पक्ष में थे, ताकि वे अपने-अपने सम्प्रदायों अथवा हितों के लिए अधिक सुविधाएं प्राप्त कर सकें।
(8.) बाह्य परिस्थितियों का योगदान: अनेक बाह्य परिस्थितियों ने भी इस अधिनियम को असफल बनाया। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद अनेक राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना हो गयी थी। ब्रिटेन ने भी अपने कुछ अधिराज्यों के साथ समानता का व्यवहार करना आरम्भ कर दिया था। एशिया में नई राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न हो चुकी थी। ऐसी परिस्थितियों में भारतीयों को ब्रिटिश सरकार के ये सुधार अपर्याप्त और निराशाजनक प्रतीत हुए। स्वराज पार्टी ने विधान मण्डलों में प्रवेश किया परन्तु उसका ध्येय सरकार के मार्ग में रोड़े अटका कर द्वैध शासन को अव्यवहारिक सिद्ध करना था। 1930 ई. के बाद कांग्रेस का लक्ष्य पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना हो गया। ब्रिटिश सरकार ने विधान मण्डलों की इच्छाओं की अवहेलना कर उदारवादियों को भी असंतुष्ट कर दिया। डॉ. जकारिया ने लिखा है- ‘सरकार के इस निर्णय ने कि सुधारों पर इस तरह अमल किया जाय, जिससे लोगों को स्वशासन के कम से कम अधिकार मिलें और दूसरी तरफ स्वराज दल की इस नीति ने कि सरकार के संचालन में अधिक से अधिक रुकावटें लगाई जायें, 1919 के सुधारों के भाग्य का पहले से ही निर्णय कर दिया।’
कूपलैण्ड ने स्वीकार किया है कि द्वैध शासन असफल रहा, क्योंकि वह अपने रचयिताओं के मूल उद्देश्यों का पूरा न कर सका। द्वैध शासन की असफलता का एक कारण सिविल सेवकों पर मन्त्रियों का नियन्त्रण न होना भी था। अखिल भारतीय नौकरियों के सदस्य जो हस्तांतरित विभागों का संचालन करते थे, मन्त्रियों के अधीन नहीं थे। गवर्नर तक सिविल सेवकों की निजी पहुंच थी और उनके हित भारत सचिव द्वारा संरक्षित थे। मन्त्रियों तथा सिविल सेवकों में बनती ही नहीं थी। सिविल सेवकों के विरुद्ध मन्त्रियों की शिकायतें निरर्थक सिद्ध होती थीं। असहयोग आन्दोलन तथा खिलाफत आन्दोलन ने देश में कटुता, अविश्वास और असहयोग का ऐसा वातावरण पैदा कर दिया था कि शासन का चलना असम्भव था।
संसदीय शासन प्रणाली के लिये मील का पत्थर
मारिस जोंस, गुरुमुख निहालसिंह, एम. वी. वायली आदि विद्वानों का मत है कि द्वैध शासन प्रणाली ने भारत में संसदीय सरकार के विकास में योगदान दिया। 1920 से 1937 ई. की अवधि में भारत में चार आम चुनाव हुए। इन चुनावों के उपरान्त गठित विधान सभाओं में भारतीय नेताओं को संसदीय परम्पराओं का व्यक्तिगत अनुभव हुआ तथा भारतीय मन्त्रियों को स्वशासन का प्रशिक्षण मिला। उन्हें इस बात का अनुभव हुआ कि स्वशासन के मार्ग में कौनसी बाधाएं आ सकती हैं और उन्हें कैसे हल किया जा सकता है? मतदाताओं की दृष्टि से भी द्वैध शासन व्यवस्था की यह अवधि बिल्कुल बेकार नहीं गई। विधान सभाओं की दर्शक-दीर्घाएं सामान्यतः भरी रहती थीं। वदा-विवाद का पूरी तरह से प्रचार होता था और जनता उसे पढ़ती थी। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत में संसदीय शासन का आरम्भ हो गया था। इस दृष्टि से द्वैध शासन को भारत में संसदीय शासन प्रणाली की दिशा में मील का पत्थर कहा जा सकता है। मारिस जोंस ने लिखा है- ‘प्रान्तीय स्तर पर प्रशासन के एक विशिष्ट क्षेत्र में उत्तरदायी शासन को मान्यता देकर 1919 के अधिनियम ने ससंदीय संस्थाओं का आरम्भ किया।’