पाकिस्तान से मुहम्मद अली जिन्ना का मोहभंग शीघ्र ही हो गया। उसके अनुयायी जिस तरह का पाकिस्तान बना रहे थे, जिन्ना ने उस तरह के पाकिस्तान की कल्पना नहीं की थी। इस कारण अब जिन्ना पाकिस्तान छोड़कर भारत लौटना चाहता था किंतु वापसी के सारे रास्ते वह स्वयं ही बंद करके गया था। जिन्ना के मुसलमानों ने हिन्दुओं और सिक्खों का जितना खून बहाया था उतना खून तो हूणों और मंगोलों भी हिन्दुओं और बौद्धों का नही बहाया था।
पाकिस्तान बन जाने के बाद भी जिन्ना के लोग भारत की छुंरी में पीठ भौंकने से नहीं चूक रहे थे। इस पर भी पाकिस्तान के लेखक सदैव भारत को हमलावर और स्वयं को पाकसाफ बताते रहे। संयुक्त राज्य अमरीका में पाकिस्तान के राजदूत रहे हुसैन हक्कानी ने लिखा है-
‘ब्रिटिश-भारत से निकले इन दोनों स्वतंत्र उपनिवेशों के बीच दोस्ताना रिश्तों के अपने वादे की हिफाजत जिन्ना ने लगातार मरते दम तक की। उन्हें बंटवारे के दौरान होने वाली हिंसा का अंदाजा नहीं था जिसको ऑल इण्डिया मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और अकाली दल की बयानबाजियों ने भड़काया था।
…….. पाकिस्तान को धार्मिक राष्ट्र बनाने की बजाय धर्मनिरपेक्षता को इसके लिए उपयुक्त माना। …….. जिन्ना इस बात के लिए भी इच्छुक थे कि भारत और पाकिस्तान लगातार एक-दूसरे के खिलाफ लड़ते न रहें।
…… उन्होंने पाकिस्तान के गवर्नर जनरल पद से रिटायर होने के बाद मुंबई के अपने पैतृक घर पर लौटने की इच्छा भी जताई थी।’ दिसम्बर 1947 में कराची में ऑल इण्डिया मुस्लिम लीग की बैठक हुई। 450 सदस्यों में से केवल 300 सदस्यों ने इस बैठक में भाग लिया। इस बैठक में एक सदस्य ने जानना चाहा कि क्या जिन्ना फिर से भारत के मुसलमानों का नेतृत्व अपने हाथों में लेना चाहेंगे? जिन्ना ने तुरन्त जवाब दिया- ‘यदि परिषद् ऐसा फैसला लेगी तो मैं भारतीय मुसलमानों का नेतृत्व करने तथा उनकी कठिनाइयों को बांटने के लिए तुरन्त भारत लौट जाऊंगा।
…… हिन्दुस्तान में एक मुस्लिम लीग अवश्य होना चाहिए। यदि आप लीग को समाप्त करने का विचार कर रहे हैं तो आप ऐसा कर सकते हैं; परन्तु मुझे लगता है कि यह एक बड़ी भूल होगी। मैं जानता हूँ कि वहाँ (भारत में) कुछ प्रयास हो रहा है। मौलाना अबुल कलाम आजाद तथा अन्य लोग भारत में मुसलमानों की पहचान समाप्त करने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसा मत होने दीजिए। ऐसा मत कीजिए।’
जिन्ना के पाकिस्तान चले जाने के बाद भी भारत सरकार ने जिन्ना का बंबई के माउंट प्लीजेंट रोड पर स्थित बंगला अधिग्रहीत नहीं किया था। इसे लेकर संविधान सभा के भीतर एवं बाहर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से बड़े अटपटे प्रश्न पूछे जाते थे। अंततः नेहरू ने पाकिस्तान में हिंदुस्तान के पहले उच्चायुक्त श्रीप्रकाश से टेलिफोन पर कहा कि जिन्ना के बंगले को लेकर उनकी सरकार की स्थिति बहुत संकोच-जनक होती जा रही है।
इसलिए वे जिन्ना से मिलकर, इस बारे में उनकी ख्वाहिश का पता कर लें और यह भी जानकारी लें कि वे उस बंगले का कितना किराया चाहेंगे? श्रीप्रकाश ने जिन्ना से जब यह पूछा तो वह अवाक रह गए। फिर लगभग कातर स्वर में कहा- ‘श्रीप्रकाश, जवाहरलाल से कहो, वे मेरा दिल न तोड़ें, शायद तुम नहीं जानते हो कि बंबई को मैं कितना प्यार करता हूँ। अभी भी मेरी मंशा बंबई लौटकर उसी बंगले में रहने की है।’
श्रीप्रकाश जिन्ना के पास वकालात का प्रशिक्षण ले चुके थे और उसके स्नेहभाजन थे। जिन्ना के कहने पर ही नेहरू ने उन्हें पाकिस्तान में भारत का पहला उच्चायुक्त नियुक्त किया था। ….. जिन्ना के मन में कहीं गहरे विभाजन का अंतर्द्वन्द्व चल रहा था। चाहे-अनचाहे पाकिस्तान जो शकल अख्तियार करने लगा था, वह उनकी गंभीर चिंता का सबब बनता जा रहा था। पाकिस्तान से जिन्ना का मोहभंग हो चुका था।
जिन्ना के अंतिम दिनों के संस्मरण में ले. कर्नल डॉ. इलाहीबक्श ने लिखा है कि गहरी उदासी के आलम में जिन्ना ने उनसे कहा था, डॉक्टर पाकस्तिान मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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