भारत के मुगलकालीन प्रमुख भवन भारत के मध्यकालीन रक्तरंजित इतिहास के प्रत्यक्ष प्रमाणों की तरह हैं जिन पर मुगलों के द्वारा बहाए गए खून के धब्बे स्पष्ट दिखाई देते हैं।
वास्तुकला को समस्त कलाओं की रानी कहा जाता है। इसलिए यह कहावत भी है कि ‘संसार में दो ही चीजें जीवित रहती हैं, या तो गीत या फिर भीत।’ अर्थात् संसार में साहित्य एवं भवन ही चिरस्थाई रहते हैं। भारत में वास्तुकला का विकास उस समय ही होने लगा था जब अधिकांश दुनिया में जंगल स्थित थे और विश्व में बहुत कम सभ्यताएं प्रकाश में आई थीं। यही कारण था कि आठवीं शताब्दी ईस्वी में जब भारत पर मुस्लिम आक्रमण आरम्भ हुए, उस समय से बहुत पहले ही भारत में बड़ी संख्या में विशाल और भव्य भवन बन चुके थे जिनकी होड़ अन्य देशों में स्थित बहुत कम भवन कर सकते थे।
खलीफाओं, तुर्क आक्रांताओं एवं मंगोलों की सेनाओं ने भारत के हजारों विशाल एवं बहुमूल्य भवनों को तोड़कर नष्ट कर दिया तथा उनमें मेहराबों, गुम्बदों, मीनारों एवं आयत लिखी शिलाओं को लगाकर उन्हें मुसलमानों द्वारा निर्मित इमारत घोषित किया।
दिल्ली का विष्णु-स्तम्भ (अब कुतुबमीनार) एवं विष्णु मंदिर (अब जामा मस्जिद), अध्योया का मंदिर-जन्मस्थानम् (बाद में मस्जिद-जन्मस्थान), अजमेर का विष्णु मंदिर (अब ढाई दिन का झौंपड़ा), धार का सरस्वती कण्ठाभरण मंदिर (अब कमलमौला मस्जिद), वाराणसी का विश्वनाथ मंदिर, मथुरा का श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर, जालोर का विष्णु मंदिर एवं संस्कृत पाठशाला (तोपखाना मस्जिद) ऐसे ही अनुपम भवन थे जो मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा नष्ट-भ्रष्ट करके मस्जिदों में बदल दिए गए।
नगरकोट का प्राचीन वज्रेश्वरी देवी मंदिर, काठियावाड़ (गुजरात) का सोमनाथ महालय, अनंतनाग (कश्मीर) का मार्तण्ड सूर्य मंदिर, पाटन (गुजरात) का मोढेरा सूर्य मंदिर, हम्पी (कर्नाटक) के मंदिर, पाटन (गुजरात) का रुद्र महालय, वृंदावन (उत्तर प्रदेश) का मदन मोहन मंदिर एवं केशवराय मंदिर, मदुरै (तमिलनाडु) का मीनाक्षी मंदिर, जालोर जिले के सेवाड़ा शिवालय आदि सैंकड़ों ऐसे मंदिर थे जो मुसलमानों ने भंग कर दिए अथवा उन्हें गंभीर क्षति पहुंचाई।
भारतीय भवनों का यह विध्वंस दिल्ली सल्तनत-काल एवं मुगल सल्तनत-काल में निरंतर जारी रहा किंतु मुगलों ने जहाँ एक ओर मंदिरों को तोड़कर नष्ट किया वहीं नवीन महलों, मकबरों, मस्जिदों, उद्यानों आदि का निर्माण भी किया। विदेशी इतिहासकारों के अनुसार मुगल शासन की स्थापना के साथ ही भारतीय वास्तुकला के इतिहास में एक नवीन युग की शुरुआत हुई। पर्सी ब्राउन ने ‘मुगलकाल को भारतीय वास्तुकला की ग्रीष्म ऋतु’ माना है जो प्रकाश और ऊर्वरा शक्ति का प्रतीक होती है।
मुगल युग की वास्तुकला के सर्वांगीण विकास का कारण मुगलों में शानो-शौकत के प्रदर्शन की प्रवृत्ति, शिल्प आदि कलाओं के प्रति उनकी अभिरुचि, राजकोष की समृद्धि तथा संसाधनों की विपुल उपलब्धता माना जाता है। बाबर से लेकर औरंगजेब तक के मुगल शासकों ने भारत में महत्वपूर्ण भवन बनाए तथा बड़ी संख्या में हिन्दू भवनों को मुगल-शैली में ढाला।
मुगल काल में न केवल बादशाहों ने अपितु उनकी बेगमों, वजीरों, शहजादों, शहजादियों तथा अन्य लोगों ने भी बड़ी संख्या में छोटे-बड़े भवन बनाए थे जिनकी संख्या का पता लगाना संभव नहीं है। उनमें से बहुत से भवन एवं उद्यान अब काल के गाल में समा चुके हैं तथा बहुत कम भवन ही अपनी गवाही स्वयं देने के लिए उपलब्ध हैं। ये भवन भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान तथा बांगलादेश आदि देशों में मिलते हैं। मुगलकाल में ये समस्त क्षेत्र भारत के ही अंग थे। इसलिए इस पुस्तक में वहाँ के भी प्रमुख मुगल भवनों को सम्मिलित किया गया है।
भारत के समस्त मुगलकलान भवनों का वर्णन करना संभव नहीं है। इसलिए इस ग्रंथ में मुगल काल में बने प्रमुख भवनों के इतिहास एवं स्थापत्य सम्बन्धी विशेषताओं को लिखा गया है। पुस्तक के अंत में पाठकों की सुविधा के लिए मुगलों के शासन-काल में विध्वंस किए गए हिन्दू-स्थापत्य की भी संक्षिप्त जानकारी दी गई है ताकि पाठकों को उस युग की स्थापत्य सम्बन्धी प्रवृत्तियों की वास्तविक तस्वीर के दर्शन हो सकें।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता