क्रांति का दमन दिल्ली से आरम्भ हुआ। हेनरी बरनार्ड को सेना देकर दिल्ली की ओर भेजा गया। क्रांतिकारी सैनिकों ने अँग्रेजी सेना को पीछे हटा दिया। दिल्ली में एकत्रित भारतीय सैनिकों में जोश तो था किंतु उनका सफल संचालन करने वाला कोई अनुभवी सेनापति नहीं था। अतः वे विभिन्न दिशाओं से आने वाली अँग्रेजी सेनाओं का सामना करने में असफल रहे। इसके विपरीत अँग्रेजी टुकड़ियांे का संचालन अनुभवी सेनापतियों द्वारा किया जा रहा था। अगस्त-सितम्बर 1857 में पंजाब से बड़ी-बड़ी तोपें दिल्ली पहुँच गईं। 14 सितम्बर 1857 को कश्मीरी गेट को बारूद से उड़ा दिया गया। छः दिनों तक चले भंयकर युद्ध के बाद अँग्रेजों ने 20 सितम्बर तक दिल्ली के अधिकांश स्थानों पर अधिकार कर लिया। इस संघर्ष में जॉन निकलसन मारा गया। ब्रिटिश जनरल हॉडसन ने बहादुरशाह के दो पुत्रों को गोली मार दी। 21 सितम्बर 1857 को अँग्रेजों ने बहादुरशाह, उसकी बेगम जीनत महल तथा एक पुत्र को बन्दी बनाकर रंगून भेज दिया। 1862 ई. में इस नाममात्र के अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह की मृत्यु हो गयी।
दिल्ली में कत्ले आम
1857 की क्रांति के समय दिल्ली की जनसंख्या 1 लाख 52 हजार थी। फिर भी अँग्रेज सेनाओं ने पांच दिन के संघर्ष के बाद दिल्ली पर अधिकार करके हजारों सैनिकों, जन-साधारण एवं निर्दोष व्यक्तियों का कत्ले आम किया। यह ठीक वैसा ही था जैसा किसी समय अलाउद्दीन, तैमूर लंग अथवा नादिरशाह ने किया था। यद्यपि क्रांतिकारी सैनिकों ने भी अँग्रेज अधिकारियों एवं उनके परिवारों की हत्याएँ की थीं किन्तु उन्होंने ये हत्याएँ विप्लव के समय की थीं जबकि अँग्रेजों ने रक्तपात, विद्रोह की समाप्ति के बाद आरम्भ किया। भारतीय सैनिकों ने उन अँग्रेज अधिकारियों एवं उनके परिवारों की हत्याएं कीं जो भारतीयों पर अमानवीय ढंग से शासन तथा अत्याचार कर रहे थे किंतु अँग्रेजों ने केवल विद्रोही सैनिकों का ही नहीं अपितु साधारण नागरिकों का भी हजारों की संख्या में कत्ल किया। इन नागरिकों का विप्लव से दूर-दूर तक सम्बन्ध नहीं था। दिल्ली की लूट और विनाश के सम्बन्ध में टाइम्स पत्र के एक संवाददाता ने लिखा है- ‘शाहजहाँ के शहर में नादिरशाह के कत्लेआम के बाद ऐसा दृश्य नहीं देखा गया था।’
भारत के अन्य भागों में कत्ले आम
जनरल नील ने इलाहाबाद और बनारस पहुँच कर गांव-के-गांव जला दिये और खेतों में खड़ी फसलें बर्बाद कर दीं। जून 1857 में बनारस और इलाहाबाद के क्षेत्रों में बिना मुकदमा चलाये, लोगों को मृत्यु दण्ड दे दिया गया। बाजार में खड़े वृक्षों पर सहस्रों व्यक्तियों को फांसी दे दी गई। इतिहासकार जॉन ने लिखा है- ‘तीन माह तक आठ गाड़ियां सुबह से शाम तक शवों को चौराहों व बाजारों से हटाकर ले जाने में व्यस्त रहीं। किसी भी व्यक्ति को भागकर नहीं जाने दिया गया, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति उन्हें विद्रोही दिखाई दे रहा था। सम्भवतः वे भारतीयों को बता देना चाहते थे कि ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह करना सरल नहीं है। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि ये अत्याचार उन अँग्रेजों द्वारा किये गये जो अपने आपको सभ्य, प्रगतिशील और शिक्षित कहते थे और जो भारतीयों को सभ्य बनाने के लिये आये थे।’
जनरल नील तथा जनरल हेवलॉक ने, जिस रास्ते से भी वे गुजरे, निरीह पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों का कत्ले आम करवाया। झांसी और लखनऊ में भी साधारण नागरिकों के साथ यही व्यवहार किया गया। रस्सियों से लटकवा कर गोली से उड़ा देना सामान्य बात थी। जिन-जिन रास्तों से अँग्रेजी सेना गुजरती थी, वहाँ लाशों के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता था। इस कत्ले आम को देखकर अफगानी एवं ईरानी आक्रमणों की यादें ताजा हो गईं जिनका उद्देश्य केवल सर्वनाश करना होता था।
मारवाड़ राज्य की सेवाएं
एजीजी लॉरेंस तथा पोलिटिकल एजेंट मॉन्क मैसन ने जोधपुर महाराजा से, बागी सिपाहियों को मारवाड़़ में न घुसने देने की प्रार्थना की। पोलिटिकल एजेंट की प्रार्थना पर जोधपुर नरेश तख्तसिंह ने 6 तोपें तथा 2000 सैनिक लेफ्टिीनेंट कारनेल की सहायता के लिये अजमेर भेजे। यह सेना अजमेर में आनासागर के किनारे रही। इसे मैगजीन में प्रवेश नहीं करने दिया गया। कुचामन का ठाकुर केसरीसिंह भी अपने सैनिकों को लेकर अजमेर पहुँचा तथा कई सप्ताह तक अजमेर मैगजीन में रहा। जब 16 जून को पंवार अनाड़सिंह और महता छत्रसाल आदि उस सेना को वेतन बांटने भेजे गए, तब वहाँ के अँग्रेज अधिकारियों ने आनासागर तक सामने आकर इनका सत्कार किया। बाद मे ये लोग ब्यावर जाकर एजीजी से मिले। उसके सेक्रेटरी ने भी आगे आकर इन्हें सम्मान दिया। वहाँ से एजीजी अजमेर चला गया। जोधपुर नरेश ने परिवारों सहित भटक रहे अंग्रेज अधिकारियों को जोधपुर आने का निमंत्रण दिया। इस पर अंग्रेज अधिकारी अपने परिवारों के साथ जोधपुर आ गये। कर्नल पेन्नी का मार्ग में हृदयाघात से निधन हो गया।
तात्या टोपे का दमन
22 जून 1857 को तात्या टोपे, ग्वालियर के निकट परास्त हो गया। तात्या को आशा थी कि उसे कोटा तथा जयपुर से सहायता मिलेगी इसलिये वह राजपूताने की ओर मुड़ा किंतु कोटा से सहायता न मिलने पर उसने लालसोट का रुख किया। कर्नल होेम्स उसके पीछे लगा रहा। जब तात्या टोंक पहुंचा तो टोंक नवाब ने किले के दरवाजे बंद कर लिये किंतु टोंक की सेना ने तात्या का स्वागत किया। तात्या ने टोंक नगर पर अधिकार कर लिया। टोंक से निकलकर तात्या टोपे मेवाड़, गिंगली एवं भीण्डर होता हुआ प्रतापगढ़ पहुंचा। वहाँ से वह महाराष्ट्र जाना चाहता था किंतु वर्षा के कारण चम्बल पार नहीं कर सका। 14 अगस्त 1858 को तात्या ने करौली के निकट अँग्रेजों को बुरी तरह हराया। उसके बाद उसने कोटा तथा बूंदी होते हुए झालावाड़ राज्य में प्रवेश किया। झालावाड़ नरेश पृथ्वीसिंह ने तात्या की कोई सहायता नहीं की। इस पर तात्या ने झलावाड़ राज्य पर अधिकार कर लिया। झालावाड़ की सेना तथा जनता ने तात्या का स्वागत किया और उसकी भरसक सहायता भी की किंतु तात्या की दाल नहीं गली। रॉबर्ट, हैम्बिल्टन, माइकल तथा होम्स आदि सेनापति अपनी सेनाओं के साथ तात्या के पीछे लगे हुए थे। अंत में निराश होकर 15 सितम्बर 1857 को उसने राजपूताना छोड़ दिया किंतु उसे शीघ्र ही पुनः राजपूताना में प्रवेश करना पड़ा। इस बार वह बांसवाड़ा की ओर से घुसा। उसने बांसवाड़ा पर अधिकार करके अहमदाबाद से आ रहे 16-17 ऊँटों को लूट लिया जिन पर कपड़ा लदा हुआ था। बांसवाड़ा से चलकर तात्या दौसा होता हुआ सीकर पहुंचा। इसी बीच तात्या के 600 सैनिकों ने बीकानेर नरेश की सेनाओं के समक्ष समर्पण कर दिया। फिर भी 1859 ई. के अन्त तक वह अँग्रेजों से जूझता रहा। एक रात्रि में जब तात्या सो रहा था, तब नरवर के जागीरदार मानसिंह ने उसे अँग्रेजों के हाथों पकड़वा दिया। कहा जाता है कि तात्या टोपे को फांसी दी गई किन्तु अनेक इतिहासकारों का मानना है कि जिस व्यक्ति को फांसी दी गई थी, वह तात्या टोपे नहीं था। अँग्रेजों ने तात्या का क्या किया, इसका पता लगाना लगभग असंभव है। जून 1858 तक अधिकांश क्षेत्रों पर अँग्रेजों ने पुनः नियंत्रण कर लिया।
अंतिम क्रांतिकारी की रिहाई
उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के काउ तहसील के भदोही परगने के मुसाई सिंह का जन्म 1836 ई. में हुआ था। उसे 1857 की क्रांति में भाग लेने के अपराध में अण्डमान जेल में ठूंस दिया गया। वह 50 वर्ष तक इस जेल में बंद रहा। अंत में 1907 ई. में उसे जेल से मुक्त किया गया। उस समय वह 1857 की क्रांति में भाग लेना वाला अंतिम जीवित व्यक्ति था।
क्रांति का स्वरूप
अधिकांश ब्रिटिश लेखकों ने 1857 की क्रांति को सैनिक विद्रोह की संज्ञा दी है किंतु 1857-58 ई. में भारत में उपस्थित कुछ अँग्रेज ऐसे थे जिनका मत था कि 1857 की क्रांति जनसाधारण द्वारा की गई असन्तोष की अभिव्यक्ति का एक उदाहरण थी। ईसाई मिशनरियों के लोग इसे ईश्वर द्वारा भेजी गई विपत्ति कहते थे, क्योंकि कम्पनी प्रशासन ने भारतीय प्रजा को ईसाई नहीं बनाया था। कुछ अँग्रेज लेखकों ने इसे हिन्दुओं एवं मुसलमानों का ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने का षड्यन्त्र बताया है। इन विचारों से बिल्कुल हटकर 1909 ई. में विनायक दामोदर सावरकर ने इस राष्ट्रव्यापी घटना को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा। इस प्रकार इस क्रांति के सम्बन्ध में अलग-अलग मत स्थापित हो गये हैं-
(1.) यह विशुद्ध सैनिक विद्रोह था
सर जॉन सीले के अनुसार 1857 की क्रांति पूर्णतः गैर-राष्ट्रीय तथा स्वार्थी सैनिकों का विद्रोह था जिसका न कोई देशी नेतृत्व था और न जनता का सहयोग। सर जॉन लारेन्स ने भी इसे केवल विद्रोह बताया और इसका प्रमुख कारण चर्बी वाले कारतूस को माना। पी. ई. राबर्ट्स भी इसे विशुद्ध सैनिक विद्रोह मानते थे। वी. ए. स्मिथ ने लिखा है कि- ‘यह एक शुद्ध रूप से सैनिक विद्रोह था जो संयुक्त रूप से भारतीय सैनिकों की अनुशासनहीनता और अँग्रेज सैनिक अधिकारियों की मूर्खता का परिणाम था।’
इस प्रकार लगभग समस्त विदेशी इतिहासकार इसे एक सैनिक विद्रोह मानते हैं।
1957 ई. में स्वतंत्र भारत में 1857 की क्रांति की पहली शताब्दी मनाई गई। इस अवसर पर भारत सरकार की ओर से तथा अन्य शोधकार्ताओं द्वारा इस क्रांति पर पुनः विचार किया गया। सुरेन्द्रनाथ सेन ने अपनी पुस्तक एटीन फिफ्टी सेवन में लिखा है- ‘यह आन्दोलन एक सैनिक विद्रोह की भांति आरम्भ हुआ किन्तु केवल सेना तक सीमित नहीं रहा। सेना ने भी पूरी तरह विद्रोह में भाग नहीं लिया।’
उन्होंने यह भी लिखा है कि इसे मात्र सैनिक विप्लव कहना गलत होगा। शशि भूषण चौधरी ने भी इसे सामान्य जनता का विद्रोह बताया। डॉ. आर. सी. मजूमदार ने इसे सैनिक विप्लव बताया किन्तु उन्होंने यह भी कहा कि कुछ क्षेत्रों में जनसाधारण ने इसका समर्थन किया था।
यह सर्वमान्य तथ्य है कि 1857 की क्रांति सैनिक विद्रोह के रूप में फूट पड़ी थी किन्तु यह केवल सेना तक ही सीमित नहीं रही। डॉ. ताराचन्द ने लिखा है कि– ‘यह अशक्त वर्गों द्वारा अपनी खोई हुई सत्ता को पुनः प्राप्त करने का अन्तिम प्रयास था। यह वर्ग ब्रिटिश नियन्त्रण से मुक्ति पाना चाहता था, क्योंकि अँग्रेजों की नीतियों से इस वर्ग के लोगों के हितों को हानि पहुँच रही थी।’
क्रांति की घटनाओं से पता चलता है कि अवध में इसे जनसाधारण का पूर्ण समर्थन प्राप्त था और बिहार के भी कुछ हिस्सों में यही स्थिति थी। उस समय ग्रामीण जनता में भी यह भावना फैल गई कि सेना का लक्ष्य केवल अपनी स्थिति सुधारना ही नहीं था, अपितु भारत को अँग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराना था। ऐसी स्थिति में इसे केवल सैनिक विप्लव मानना, न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता। ब्रिटेन के प्रसिद्ध राजनेता तथा बाद में प्रधानमंत्री बने डिजरायली ने 27 जुलाई 1857 को हाउस ऑफ कॉमंस में कहा था- ‘यह आंदोलन एक राष्ट्रीय विद्रोह था न कि सैनिक या सिपाही विद्रोह।’
(2.) यह मुस्लिम सत्ता की पुनः स्थापना का प्रयास था
सर जेम्स आउट्रम का मत है कि यह मुसलमानों के षड्यन्त्र का परिणाम था, जो हिन्दुओं की शक्ति के बल पर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते थे। स्मिथ ने भी इसका समर्थन किया है कि यह भारतीय मुसलमानों का षड्यन्त्र था जो पुनः मुगल बादशाह के नेतृत्व में मुस्लिम सत्ता स्थापित करना चाहते थे। विद्रोह के काफी समय बाद बेगम जीनत महल ने देशी शासकों को पत्र लिखे, जिनमें उसने मुगल बादशाह की अधीनता में, अँग्रेजों को देश से बाहर निकालने की बात लिखी। अतः जेम्स आउट्रम व स्मिथ के कथनों में कुछ सच्चाई प्रतीत होती है। बहादुरशाह के मुकदमे के जज एडवोकेट जनरल मेजर हैरियट ने मुकदमे में पेश हुए समस्त दस्तावेजों को अच्छी तरह अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला- ‘आरम्भ से ही षड्यंत्र सिपाहियों तक सीमित नहीं था और न उनसे वह शुरू ही हुआ था, अपितु इसकी शाखाएं राजमहल और शहर में फैली हुई थीं।’
यह सच है कि 1857 की क्रांति में हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों ने अधिक बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था किंतु इस सच्चाई से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि इस क्रांति में देश के केवल 1/3 मुसलमानों ने भाग लिया था। बड़ी मुस्लिम शक्तियों में केवल अवध की बेगम जीनत महल तथा लाल किले का बादशाह बहादुरशाह ही इस क्रांति में सम्मिलित हुए थे। जबकि व्यापक फलक पर नाना साहब, झांसी की रानी, तात्या टोपे, कुवरसिंह और अवध के हिन्दू ताल्लुकेदारों ने क्रांति का वास्तिविक संचालन किया था।
लॉर्ड केनिंग आरम्भ में इसे मुसलमानों द्वारा किया गया षड्यन्त्र मानते थे किंतु बाद में उन्होंने अपनी धारणा बदल ली। उन्होंने भारत सचिव को लिखे एक पत्र में स्वीकार किया- ‘मुझे कोई संदेह नहीं है कि यह विद्रोह ब्राह्मणों और दूसरे लोगों के द्वारा धार्मिक बहानों पर राजनीतिक उद्देश्यों के लिये भड़काया गया था।’
उपरोक्त तथ्यों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि जहाँ हिन्दू सेनानायक, विदेशी शासन से मुक्ति के लिये लड़े, वहीं मुसलमानों के एक बड़े वर्ग ने बहादुरशाह के नेतृत्व में मुगल शासन की पुनर्स्थापना के लिये संघर्ष किया।
(3.) यह विद्रोह एक सामन्ती प्रतिक्रिया थी
इतिहासकार मेलीसन ने इसे जागीरदारों द्वारा अपने शासकों के विरुद्ध सामन्ती प्रतिक्रिया कहा है। अँग्रेजों की देशी रियासतों के प्रति नीति के फलस्वरूप अनेक सामन्त अपनी जागीरों से हाथ धो बैठे थे। इन लोगों में अँग्रेजों के प्रति घृणा व क्रोध था। दूसरी ओर अँग्रेजों ने देशी शासकों से मिलकर सामन्तों के विशेषाधिकारों पर प्रहार करके उनकी प्रतिष्ठा को गिराया था। ऐसे सामन्तों ने क्रांतिकारियों का साथ देकर क्रांति को फैलाने में योगदान दिया। इस मत को स्वीकार करने में यह आपत्ति है कि मुट्ठी भर सामन्तों द्वारा संघर्ष में भाग लेने से पूरे विप्लव को सामन्तवादी प्रतिक्रिया नहीं कहा जा सकता।
(4.) यह भारत की स्वतंत्रता का राष्ट्रीय संग्राम था
सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी विनायक दामोदर सावरकर ने 1857 की क्रांति को राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए आयोजित प्रथम संग्राम कहा। कांग्रेस अध्यक्ष पट्टाभि सीतारमैया के अनुसार भी 1857 का महान् आन्दोलन भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम था। अशोक मेहता ने अपनी पुस्तक द ग्रेट रिवोल्ट में यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि यह एक राष्ट्रीय विद्रोह था। पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि यह केवल सैनिक विद्रोह नहीं था। यद्यपि इसका विस्फोट सैनिक विद्रोह के रूप में हुआ था किंतु शीघ्र ही जन-विद्रोह के रूप में परिणित हो गया था। इंग्लैण्ड के सांसद बैंजामिन डिरैली ने ब्रिटिश संसद में इसे राष्ट्रीय विद्रोह कहा था। सुरेन्द्रनाथ सेन लिखते हैं- ‘जो युद्ध धर्म के नाम पर प्रारम्भ हुआ था, वह स्वातन्त्र्य युद्ध के रूप में समाप्त हुआ, क्योंकि इस बात में कोई सन्देह नहीं कि विद्रोही, विदेशी शासन से मुक्ति चाहते थे और वे पुनः पुरातन शासन व्यवस्था स्थापित करने के इच्छुक थे, जिसका प्रतिनिधित्व दिल्ली का बादशाह करता था।’
जो विद्वान इसे स्वतंत्रता संग्राम मानते हैं, उनका तर्क है कि इस संग्राम में हिन्दुओं और मुसलमानों ने कन्धे-से-कन्धा मिलाकर समान रूप से भाग लिया और इस संग्राम को जनसाधारण की सहानुभूति प्राप्त थी। अतः इसे केवल सैनिक विप्लव या सामन्तवादी प्रतिक्रिया अथवा मुस्लिम षड्यन्त्र नहीं कहा जा सकता। सैनिकों ने विद्रोह आरम्भ किया था और वे अन्त तक लड़ते रहे किन्तु उनके साथ लाखों अन्य लोगों ने भी भाग लिया। इस संग्राम में मरने वालों की संख्या में जनसाधारण की संख्या, सैनिकों की संख्या से अधिक थी। अनेक स्थानों पर जनता ने ही सैनिकों को विद्रोह के लिए प्रोत्साहित किया तथा जिन लोगों ने या नरेशों ने अँग्रेजों का पक्ष लिया, उनका सामाजिक बहिष्कार किया। जब जनरल ब्लॉक को अपनी सेना के साथ एक नदी पार करनी थी तो किसी नाविक ने उसे नाव नहीं दी। कानपुर के मजदूरों ने अँग्रेजों के लिए काम करने से मना कर दिया। विद्रोह आरम्भ होने के बाद जब उदयपुर का पोलिटिकल एजेण्ट कर्नल शॉवर्स महाराणा से मिलने उनके महल की ओर जा रहा था, तब आम जनता ने उसे कर्कश स्वरों से धिक्कारा। जोधपुर में कर्नल मेसन की हत्या कर दी गई। कोटा के महाराजा को विद्रोहियों ने तब तक घेरे रखा, जब तक कि उसने क्रांतिकारी सैनिकों को सहयोग देने का वचन नहीं दिया। कुछ नरेशों ने तो केवल जनमत के दबाव में आकर, अँग्रेजों के प्रति स्वामिभक्ति प्रदर्शित करते हुए विद्रोहियों को शरण दी।
डॉ. आर. सी. मजूमदार के अनुसार विप्लव को राष्ट्रीय युद्ध स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि नागरिकों का विद्रोह अत्यंन्त ही सीमित क्षेत्र में था। देश का अधिकांश भाग इसमें सम्मिलित नहीं हुआ था तथा अधिकांश देशी नरेशों ने अँग्रेजों का साथ दिया था। सिक्ख और गोरखा सेनाओं ने अँग्रेजों की भरपूर सहायता की थी। विप्लव काल में ऐसे उदाहरण भी थे जब भारतीयों ने अपना जीवन खतरे में डालकर अँग्रेज स्त्रियों, पुरुषों व बच्चों की रक्षा की थी। इसीलिये डॉ. मजूमदार ने लिखा है- ‘यह विद्रोह न तो राष्ट्रीय था और न स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम था।’
निष्कर्ष
1857 के विप्लव का स्वरूप निर्धारित करते समय यह देखना होगा कि इस संघर्ष में भाग लेने वालों का दृष्टिकोण क्या था! भारतीय क्रांतिकारी, अँग्रेजों को फिरंगी कहते थे क्योंकि वे फॉरेन (वितमपहद) अर्थात् विदेश से आये थे। सारे देश में अँग्रेज विरोधी भावनाएं व्याप्त थीं। समस्त क्रांतिकारियों तथा जनसाधारण का एक ही लक्ष्य था- अँग्रेजों को भारत से निकालना। तात्या टोपे जहाँ भी गया, सेना तथा जनता ने उसका स्वागत किया तथा रसद आदि से सहायता की। इसके विपरीत अँग्रेज अधिकारी जहाँ भी गये, जनता ने उन्हें धिक्कारा व गालियां दीं। इससे स्पष्ट है कि अँग्रेजों के विरुद्ध रोष राष्ट्र-व्यापी था। यदि हम तात्कालिक साहित्य पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि उस समय का साहित्य भी अँग्रेज विरोधी भावना प्रदर्शित करता है। जिन लोगों ने विप्लव में भाग लिया अथवा विप्लवकारियों को शरण एवं सहायता दी, उनकी प्रशंसा में गीतों की रचना की गई। जिन्होंने अँग्रेजों का साथ दिया, उन्हें कायर कहा गया। विद्रोहियों को संगठित करने वाला एकमात्र तत्त्व विदेशी शासन को समाप्त करने की भावना थी।
कुछ इतिहासकारों ने इस क्रांति को महत्त्वहीन सिद्ध करने के लिए मत प्रकट किया है कि यह बहुत कम क्षेत्र में फैली। जबकि तथ्य यह है कि यह क्रांति बंगाल, पंजाब व दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों को छोड़कर भारत के समस्त प्रमुख स्थानों पर घटित हुई। भारत में इतनी व्यापक क्रांति इससे पहले कभी नहीं हुई थी। इस कारण इस क्रांति के राष्ट्रीय स्वरूप को नकारा नहीं जा सकता। निःसंदेह यह भारत की स्वतंत्रता के लिये लड़ा गया संग्राम था जिसमें देश के लाखों लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी।