जनवरी 1505 में बाबर ने भारत के लिए एक अभियान किया किंतु वह कोहाट तक आकर वापस लौट गया जो इस समय पाकिस्तान के खैबर पख्तून जिले में है। इस अभियान में बाबर कुछ भैंसें, भेड़ें, ऊंट, घोड़े, अनाज, शक्कर और कपड़े लूट कर ले जा सका था।
हालांकि बाबर ने यह अभियान सोने-चांदी की मोहरों एवं हीरे-मोतियों की आशा में किया था किंतु इस क्षेत्र का सोना-चांदी तो महमूद गजनवी से लेकर मुहम्मद गौरी तथा कुतुबुद्दीन ऐबक जैसे आक्रांता पहले ही लूटकर ले जा चुके थे। अतः बाबर को इस क्षेत्र से अधिक कुछ नहीं मिल सकता था।
इस काल में बाबर कोहाट से आगे चलकर सिंधु नदी पार करने की हिम्मत नहीं कर सका। उसके पास न तो सेना थी और न भारत पर अभियान करने के लिए आवश्यक हथियार। अतः बाबर ने वापस काबुल लौट जाने में ही भलाई समझी।
ई.1508 में बाबर ने कांधार दुर्ग पर अधिकार कर लिया। महाभारत काल में इसे गांधार कहा जाता था तथा गांधार की राजकुमारी गांधारी हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र की रानी थी। मौर्यों के काल में यह क्षेत्र मगध के मौर्यों के अधीन था तथा इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में बौद्ध-धर्मावलम्बी रहते थे किंतु दसवी शताब्दी ईस्वी से लेकर सोलहवीं शताब्दी के बीच में इस क्षेत्र की पूरी आबादी मुसलमान बन चुकी थी।
बाबर को कांधार के दुर्ग में बहुत बड़ी संख्या में चांदी के टंके प्राप्त हुए। कांधार का किला दो परकोटों से घिरा हुआ था जिन्हें बाहरी किला और भीतरी किला कहा जाता था। बाबर ने इन टंकों को भीतरी दुर्ग में सुरक्षित रखवा दिया। चांदी के टंकों के अलावा भी इस दुर्ग से बहुत सारी वस्तुएं प्राप्त हुईं जिन्हें ऊंटों पर लदवाकर बाबर काबुल के लिए रवाना हो गया। कुछ ही दिनों बाद शैबानी खाँ ने कांधार का दुर्ग घेर लिया। बाबर इस स्थिति में नहीं था कि शैबानी खाँ से युद्ध कर सके। इस कारण कठिनाई से हाथ आई हुई एक बड़ी सम्पत्ति बाबर के हाथों से निकल गई।
सितम्बर 1507 में बाबर ने एक फिर भारत चलकर भाग्य आजमाने का निर्णय लिया। वह काबुल से चलकर लमगान पहुंचा। लमगान अफगानिस्तान में जलालाबाद के निकट था। लमगान से मौर्य-सम्राट अशोक के शिलालेख प्राप्त हुए हैं जिनसे सिद्ध होता है कि यह क्षेत्र मगध के मौर्य-सम्राटों के अधीन हुआ करता था। दसवीं शताब्दी इस्वी में इस क्षेत्र पर पंजाब के हिन्दूशाही वंश के राजा जयपाल का शासन था किंतु सुबुक्तुगीन ने जयपाल को परास्त करके लमगान को गजनी के अधीन किया था।
बाबर के समय काबुल से लमगान तक के मार्ग में डाकुओं के बड़े-बड़े गिरोह रहा करते थे। इन डाकुओं ने स्थान-स्थान पर बाबर की सेना का मार्ग रोका किंतु बाबर इन डाकुओं का दमन करके नीनगनहार होता हुआ पूरअमीन घाटी पहुंच गया। उस समय इस क्षेत्र में भील रहा करते थे और बड़े स्तर पर चावल की खेती किया करते थे। ये हिन्दू परम्पराओं में विश्वास करते थे।
बाबर के सैनिकों ने सैंकड़ों भीलों को मारकर उनका चावल छीन लिया। उन्हीं दिनों बाबर को समाचार मिला कि शैबानी खाँ कांधार का घेरा उठाकर वापस चला गया। चांदी के वे सिक्के जिन्हें बाबर कांधार के भीतरी किले में छोड़ आया था, वे फिर से बाबर के अधिकार में आ गए।
इस पर बाबर ने भी हिंुदस्तान जाने का विचार छोड़ दिया तथा गजनी होते हुए वापस काबुल लौट गया। काबुल पहुंचकर बाबर ने मिर्जा की उपाधि की जगह बादशाह की उपाधि धारण की। इसके कुछ ही दिन बाद बाबर के पहले बेटे हुमायूँ का जन्म हुआ।
ई.1510 में बाबर ने एक बार फिर से समरकंद पर अधिकार करने का निश्चय किया। इसका मुख्य कारण यह था कि उन्हीं दिनों समरकंद के उज्बेक शासक शैबानी खाँ तथा ईरान के सफवी शासक शाह इस्माइल में मर्व नामक स्थान पर भीषण युद्ध हुआ जिसमें शैबानी खाँ पराजित होकर मारा गया।
बाबर ने इसे अपने लिए अच्छा अवसर समझा और वह ई.1511 में अपने पूर्वजों की राजधानी समरकंद पर चढ़ बैठा तथा समरकंद पर अधिकार करने में सफल हो गया। बाबर ने समझा कि उसके बुरे दिन अब समाप्त हो चुके हैं किंतु शायद वह गलत सोच रहा था। कुछ समय बाद शैबानी खाँ के उत्तराधिकारी उबैदुल्ला खाँ ने समरकंद पर आक्रमण किया और एक बार फिर से समरकंद बाबर के हाथों से निकल गया।
बाबर ने एक बार फिर से अपने बाप-दादों के राज्य पर अधिकार करने का प्रयत्न किया और ईरान के शाह से सहायता मांगी। ईरान के शाह ने शर्त रखी कि यदि बाबर सुन्नी मत त्याग कर शिया हो जाये तो उसे ईरान की सेना मिल जायेगी।
बाबर की महत्वाकांक्षा ने बाबर को ईरान के शाह की बात मान लेने के लिये मजबूर किया और बाबर सुन्नी से शिया हो गया। इस अहसान का बदला चुकाने के लिये ईरान का शाह बड़ी भारी सेना लेकर बाबर की मदद के लिये आ गया। उसकी सहायता से बाबर ने समरकंद, बुखारा, फरगना, ताशकंद, कुंदूज और खुरासान फिर से जीत लिये। यह पूरा क्षेत्र ट्रान्स-ऑक्सियाना कहलाता था और इस सारे क्षेत्र में सुन्नी-मुसलमान रहते थे।
ईरान के शाह के साथ हुई संधि के अनुसार बाबर के लिये आवश्यक था कि वह ट्रान्स-ऑक्सियाना के लोगों को शिया बनाये किंतु ट्रान्स-ऑक्सियाना के निवासियों को यह स्वीकार नहीं हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि ईरान के शाह की सेना के जाते ही ट्रान्स-ऑक्सियाना के लोगों ने बाबर को वहाँ से मार भगाया। बाबर के अनेक मंत्री भी बाबर के शिया बन जाने से नाराज होकर उसे छोड़ गए थे। हालांकि वे जानते थे कि बाबर ने शिया बनने की बात स्वीकार अवश्य की है किंतु वास्तव में वह सुन्नी मत का ही पालन कर रहा है।
अब मध्य-एशिया में बदख्शां ही एकमात्र ऐसा प्रदेश रह गया जिस पर बाबर का अधिकार था। इस एक प्रदेश के भरोसे बाबर ट्रान्स-ऑक्सियाना में बना नहीं रह सकता था। उसने बदख्शां को हुसैन मिर्जा नामक गवर्नर की देखरेख में देकर ट्रान्स-ऑक्सियाना छोड़ दिया। अपने बाप-दादों की जमीन से एक बार फिर से नाता टूट जाने से बाबर का दिल बुरी तरह टूट गया। वह सिर धुनता हुआ काबुल लौट आया।
ई.1513 में बाबर ने ईरान के शाह की सहायता से पुनः उज्बेकों पर आक्रमण किया। गजदावान (गज-दाह-वन) नामक स्थान पर दोनों पक्षों में भीषण लड़ाई हुई किंतु बाबर पुनः हार गया और युद्ध-क्षेत्र से काबुल भाग आया। इस युद्ध में बाबर को बहुत क्षति उठानी पड़ी। उसके बहुत से सैनिक मारे गए।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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