पाकिस्तानियों की पहचान आदमियों के ऐसे समूह के रूप में है जो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से भीख मांगकर अपना गुजारा करते हैं और अपने देश को कभी अमरीकियों के हाथों तो कभी चीनियों के हाथों बेचने को मजबूर हैं।
पाकिस्तान का कोई भविष्य नहीं है हर आदमी यहाँ से भाग जाना चाहता है!
पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री लियाकत अली खाँ की पत्नी राना लियाकत अली खाँ को पाकिस्तान में डायनेमो इन सिल्क कहा जाता है। वे जीवन भर अपने पति लियाकत अली खाँ की हत्या के दोषियों को पकड़ने के लिए संघर्ष करती रहीं तथा पाकिस्तानी महिलाओं के जीवन में सुधार लाने के लिए काम करती रहीं।
11 दिसम्बर 1978 को उन्हें यूनाईटेड नेशन्स द्वारा मानव अधिकार के क्षेत्र में काम करने के लिए सर्वोच्च पुरस्कार दिया गया। वे इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाली पहली एशियाई महिला थीं। इस अवसर पर अफ़शीन जुबेर नामक महिला पत्रकार ने राना से लम्बा साक्षात्कार लिया तथा इस दौरान उनसे दो महत्वपूर्ण प्रश्न पूछे।
पहला प्रश्न यह था कि- ‘क्या आज का पाकिस्तान वैसा ही है जिस पाकिस्तान की कल्पना 1947 में की गई थी?’
इस पर राना ने कहा- ‘नहीं इस पाकिस्तान की कल्पना नहीं की गई थी। यह चाहा गया था कि पाकिस्तान में प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छा से अपने धर्म को मानेगा, यह व्यक्ति और उसके भगवान के बीच का मामला माना जाएगा तथा राजनीति को धर्म से दूर रखा जाएगा किंतु ऐसा बिल्कुल नहीं होने दिया गया। धर्म और राजनीति की घालमेल से लोग अधिक बेईमान हो गए।’
दूसरा प्रश्न- ‘आप पाकिस्तान के भविष्य को किस तरह देखती हैं?’
इस पर राना का जवाब था-
‘बहुत बदरंग। मैं अच्छे के लिए होने वाले किसी बदलाव को नहीं देख रही। हम नीचे और नीचे जा रहे हैं। मैं पाकिस्तान में किसी ऐसे नेता को नहीं देखती जो पाकिस्तान के समस्त प्रांतों में स्वीकार्य हो। आज हमारे जैसे लोग स्वयं से प्रश्न करते हैं कि पाकिस्तान क्यों बना था किंतु हम स्वयं से यह नहीं पूछते कि आखिर यह प्रश्न पूछना क्यों पड़ रहा है।
पाकिस्तान बनाने का उद्देश्य यह था कि हम संसार को यह दिखा सकें कि आधुनिक राजनीति में इस्लाम, अल्पसंख्यकों के साथ सदाशय होकर, किस तरह से अच्छा करके दिखा सकता है! क्यों आज प्रत्येक व्यक्ति यहाँ से भाग जाना चाहता है? लोगों के साथ जो हो रहा है, उससे वे निराश हो गए हैं। आज की युवा पीढ़ी न तो अपने देश के बारे में जानती है, न नेताओं के बारे में और न उनके गुणों के बारे में।’ अर्थात् राना स्पष्ट शब्दों में कह रही हैं कि पाकिस्तानियों को उनकी जो पहचान मिलनी थी, मिल चुकी है, हालांकि पाकिस्तानियों की पहचान इस रूप में किसी को नहीं चाहिए थी!
दुनिया के लोग पाकिस्तान में नहीं रहना चाहते
पाकिस्तानी लेखक एवं पत्रकार तारेक फतह ने फेस बुक पर एक सवाल लिखकर उस पर आम आदमी की राय मांगी-
‘यदि आपको एक मुस्लिम देश में रहना हो तो निम्नलिखित में से किसमें रहना पसंद करेंगे- ईरान, पाकिस्तान, सऊदी अरब, तुर्की या इण्डोनेशिया?’
इस सर्वे में भाग लेने वाले 500 लोगों में से 78 प्रतिशत ने धर्मनिरपेक्ष तुर्की या फिर अपेक्षाकृत उदार इण्डोनेशिया को चुना। तीन स्वघोषित इस्लामिक राष्ट्रों ईरान, पाकिस्तान और सऊदी अरब की स्थिति बहुत बुरी थी। इस सर्वे से पाकिस्तानियों की पहचान की वास्तविक तस्वीर सबके सामने आती है।
नागरिक एवं सैनिक चरित्र का पतन
पाकिस्तान के नागरिक एवं सैनिक जीवन के चरित्र में कितनी गिरावट है, इसके बहुत से उदाहरण पाकिस्तान में भारत के जासूस रहे मोहनलाल भास्कर ने अपनी पुस्तक में लिखे हैं-
किसी ने याह्या खाँ की रखैल अकलीम अखतर उर्फ जेनरल रानी के पुलिस अधिकारी पति से कहा कि तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आती, तुम्हारी बेगम को जनरल लिए घूमता-फिरता है, तो उस पुलिस अधिकारी ने जवाब दिया-‘हमने समाज में जीने के लिए सोचने का तरीका बदल लिया है। हम यह सोचते हैं कि यह बेगम तो जनरल साहब की है, और हमारी रखैल है जिसे कभी-कभी एक रात के लिए हम भी अपने पास रख लेते हैं।’
पाकिस्तान के हर बड़े शहर में वेश्यालय और कॉल हाउस तथा सड़कों पर, बस स्टैण्ड पर शरीर बेचने वाली स्त्रियाँ काफी अधिक संख्या में मिलती हैं। फिर भी इस देश में समलिंगी मैथुन की कुटैव शायद एशिया में सबसे अधिक है। लौंडे पालने का यह रोग पठानी इलाकों से शुरु हुआ और धीरे-धीरे सिंध, बिलोचिस्तान, यहाँ तक कि सारे पाकिस्तान में फैल गया।
70 प्रतिशत फौजी इसके शिकार हैं। पठानों में तो जिस खान के पास लौंडा नहीं होता, उसकी कद्र नहीं होती। हर हमीर खान अपने लौंडे को लड़कियों से अधिक सजाकर रखता है। लंबे पट्टेदार बाल, काजल की धारवाली आंखें, यहाँ तक कि लौंडों पर कत्ल हो जाते हैं। खान अपनी बीवी को तो अकेला छोड़ दे लेकिन लौंडे को नहीं छोड़ता।
कई तो नमाज अदा करते हुए उसे दूर आंखों के सामने बैठा लेते हैं कि कहीं ऐसा न हो कोई उसे उड़ा ले जाए। इस कुटैव के कारण 25 प्रतिशत लोग जिंसी रोगों जैसे सूजाक आतशक आदि के शिकार हैं। ये है बहुसंख्य पाकिस्तानियों की पहचान!
भास्कर ने पाकिस्तान की जेलों में चारित्रिक पतन के वीभत्स दृश्यों का आंखों देखा वर्णन करते हुए लिखा है कि भले घर के कैदियों पर सफाई कर्मचारियों को अप्राकृतिक मैथुन के लिए चढ़ा दिया जाता ……. जब कोई कमसिन लौंडा कैदी होकर आता तो जेल की ड्यौढ़ी में ही गुरु-घंटालों में इस बात पर चाकू निकल जाते थे कि उसका बिस्तरा किसके साथ लगेगा।
अक्सर कैदी लौण्डे बदमाश जेबतराश, उठाइगिरे और वेश्याओं के दलाल हुआ करते थे। इन लोगों का जेल के बाहर भी चरित्र कोई अच्छा नहीं होता था कि जेल में होने वाली कुत्ता-घसीट का विरोध करते, बल्कि खुश होते थे कि चलो कैद तो आराम से कटेगी।
…… जेल के बादशाह खान इनको बीवी की तरह सजा कर रखते। इन्हें जेल की परियां कहा जाता। जिधर से ये गुजर जाते इतर की खुशबू चारों तरफ लहराने लगती। मैंने अपनी जिंदगी में इतना नखरा स्कूल और कॉलेज की लड़कियों में भी नहीं देखा, जितना इन लौंडों में होता था।
रंगदार सब्ज गुलाब, नसवारी या मोतिया रंग के रेशमी कुर्ते और सलवारें पहने, पट्टेदार बाल बढ़ाए आंखों में कजरे की धार और मुुंह पर पाउडर लगाए हाथ में तीतर या बटेर पकड़े ये जेल में यूं चला करते जैसे मुगल राजाओं के रहम में बेगमें मटका करती थीं।
और तो और इनकी सलवार के नाड़े भी जालीदार होते जिनके सिरों पर मोतियों की झालरें लगी होती थीं। मोहनलाल भास्कर ने और भी बहुत से आंखों देखे विवरण लिखे हैं जिन्हें यहाँ मनुष्य की नैतिक मर्यादा को ध्यान में रखते हुए, न लिखना ही ठीक होगा किंतु इन्हें पढ़कर पाकिस्तानी जन-जीवन की नैतिक गिरावट का वास्तविक अनुमान हो जाता है।
मुल्ला और सेना का रास्ता
अगस्त 1947 में भारी खून-खराबे के साथ पैदा होने से लेकर आज तक पाकिस्तान का इतिहास उथल-पुथल, युद्ध और नागरिक कलह वाला रहा है। बीच-बीच में छन-छन कर कभी-कभी खुशी के मौके भी आते रहे हैं। हालांकि उनका अंत ज्यादा दुःख देने वाला ही रहा है।
ऐसा ही दुर्लभ मौका फरवरी 2008 में चुनाव के बाद आया था जब पूरे देश में मानो बिजली सी दौड़ गई थी। मरहूम बेनजीर भुट्टो की पीपुल्स पार्टी और पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की मुस्लिम लीग ने मिलकर पाकिस्तान के मुल्ला-सैन्य सत्ता प्रतिष्ठान को ध्वस्त कर दिया था लेकिन क्या ये फैसला कोई मायने रखता है?
पाकिस्तान के अवाम की इच्छा को रौंदकर हमेशा मुल्ला और सेना के लिए रास्ता बनाया जाता रहा है। 60 साल के इतिहास में पाकिस्तानियों ने प्रत्येक चुनाव में उन लोगों को खारिज किया है जो इस्लाम को अपनी राजनीति बताते हैं।
…… पाकिस्तानियों ने अपने देश को इस्लामी भविष्य से दूर रखने के लिए वोट दिया। तालिबान समर्थक इस्लामिक दलों की भीषण हार और सैक्यूलर मध्य दक्षिण एवं मध्य-वाम पार्टियों की सफलता यहाँ तक कि अफगानिस्तान से सटी कट्टर पख्तून पट्टी में यह कारनामा मुल्ला, सेना और बाकी दुनिया को साफ संदेश हैः ज्यादातर मुसलमानों की तरह पाकिस्तानी भी इस्लामी आतंकवादियों के मध्ययुगीन शासन के तहत नहीं रहना चाहते हैं। सवाल यह है कि क्या कोई सुन रहा है?
वास्तविक जड़ों की ओर लौटना ही एकमात्र उपाय
इतिहासकार अकबर एस. अहमद ने लिखा है- ‘सामान्य भारतीय मुसलमान के दिमाग में तीन आदर्श पुरुष थे- महमूद गजनवी, औरंगजेब और मुहम्मद अली जिन्ना।’
हालांकि यह बीते युग की बात है, आज भारतीय मुसलमानों के नायक बदल गए हैं। हमारे पास कैप्टेन हमीद और डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसे बहुत से नाम हैं किंतु दुर्भाग्य से पाकिस्तान के मुसलमान अपने पुराने अथवा नए नायकों में से केवल एक नाम ले सकते हैं- मुहम्मद अली जिन्ना!
उनके पास दूसरा कोई ऐसा नाम नहीं है जिसे पाकिस्तान से बाहर किसी भी देश का नागरिक जानता हो, न अल्लामा इकबाल को न लियाकत अली खाँ को, न रहमत अली चौधरी को और न परमाणु बम का फार्मूला चुराने वाले डॉ. अब्दुल कादिर खान को। जबकि प्रत्येक देश के पास अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गिनाने के लिए दो-चार-पांच या दस-बीस और सौ-दो सौ नाम होते ही हैं जिन्हें दुनिया के दूसरे देशों में भी जाना जाता है।
यही कारण है कि आज पूरी दुनिया में पाकिस्तानियों के सामने पहचान का संकट है। उनकी राष्ट्रीय पहचान क्या है? क्या केवल जिन्ना? भले ही पाकिस्तान में आज जिन्ना को पूजा जाता हो किंतु जब एक पढ़ा-लिखा एवं चिंतनशील पाकिस्तानी-युवा अंतर्राष्ट्रीय मंच पर खड़ा होता है तो गजनवी, गौरी और जिन्ना उसके नायक नहीं रह जाते।
उसे अपने असली नायकों की तलाश अपने ही देश के भीतर करनी होती है। जब उसकी दृष्टि जनरल अयूब खाँ, जनरल याह्या खाँ, जनरल जिया-उल हक और जनरल मुशर्रफ जैसे फौजी शासकों पर जाती है तो उसका सिर शर्म से झुक जाता है।
पाकिस्तान की राजनीतिक विरासत से ध्यान हटाकर जब पाकिस्तान का चिंतनशील युवा पाकिस्तान की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को टटोलता है, तब वह पाता है हजारों साल पुराने वेदों को जिनकी रचना सिंधु-सरस्वती के उन तटों पर हुई जो आज पाकिस्तान के हिस्से हैं।
अपने देश के भीतर झांकने पर एक बुद्धिजीवी पाकिस्तानी को तक्षशिला में पढ़ाते हुए पाणिनी और चाणक्य दिखाई देते हैं। उसे सिंधु सभ्यता के खण्डहरों में हड़प्पा और मोहेनजोदड़ो के गौरवशाली नगर दिखाई देते हैं। उसे स्वीकार करना पड़ता है कि वास्तव में यही उसकी सांस्कृतिक जड़ें हैं। इनसे दूर वह कब तक और कैसे भाग सकता है?
इतना होने भर से क्या होता है, पाकिस्तानी भी जानते हैं और हम भी जानते हैं कि पाकिस्तानियों की पहचान कभी भी पाणिनी या तक्षशिला नहीं हो सकते, उनकी पहचान चाकू छुरे, बम, गोले ही हो सकते हैं। कसाब और हाफिज सईद ही हो सकते हैं!
आज पाकिस्तान के कुछ बुद्धिजीवी पाणिनी को अपना भाग मान रहे हैं और उनकी उपासना शुरू हो गई है। तक्षशिला उनके लिए गौरव बनता जा रहा है। वे कहते हैं कि वेद पाकिस्तान की धरोहर हैं। भले ही बहुसंख्य पाकिस्तानी उनकी (बुद्धिजीवी पाकिस्तानियों की) बातों से सहमत हों, असहमत हों किंतु आज पाकिस्तान में ये बातें हो रही हैं।
क्योंकि कोई भी समाज बहुत दिनों तक अपने मूल से कटकर जिंदा नहीं रह सकता। सिंध (पाकिस्तान) के नेता जी. एम. सैयद गिलानी ने एक बार दिल्ली आने पर इच्छा व्यक्त की कि मैं देवनागरी नहीं पढ़ सकता, अतः मुझे उर्दू लिपि में मीरा और कबीर का साहित्य चाहिए।
तो क्या हमें आशा करनी चाहिए कि एक दिन सचमुच पाकिस्तान अपनी जड़ों को पहचान कर उनकी ओर का रुख करेगा? ये अलग बात है कि उस दिन को देखने के लिए हम इस दुनिया में नहीं होंगे। हमारे जीवनकाल में पाकिस्तानियों की पहचान वही बनी रहेगी, जो कल थी या जो आज है!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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