डिसमिस दावा तोर है सुन उर्दू बदमास (3)
जब ई.1757 में जब प्लासी के युद्ध से अंग्रेजों ने भारत में पैर फैलाने आरम्भ किए तो हिन्दुओं को मुसलमानी शासन से अपनी मुक्ति का मार्ग दिखाई देने लगा। इस काल में दिल्ली से लेकर बंगाल तक मुसलमानी सत्ता जर्जर हो चली थी और भारत में अनेक छोटे-छोटे हिन्दू और मुसलमानी राज्य स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में आ चुके थे।
अगले एक सौ साल में अर्थात् ई.1757 से 1858 तक अंग्रेजों ने मुसलमानों से बंगाल, अवध, इलाहाबाद और दिल्ली आदि के छोटे-छोटे स्वतंत्र और अर्द्धस्वतंत्र राज्य छीन लिए तथा वहाँ के नवाबों, बेगमों, बादशाहों एवं शहजादों को पेंशनें देकर शासन से अलग कर दिया। इतना ही नहीं अंग्रेजों ने हिन्दुओं एवं ईसाइयों पर कहर ढा रहे टीपू सुल्तान को मारकर मैसूर के मुसलमानी राज्य का भी अंत कर दिया और हैदराबाद के शिया मुसलमानों का राज्य अपने संरक्षण में लेकर वहाँ भी अपनी सेनाएं रख दीं।
अंग्रेजों के राज्य में हिन्दुओं को अपना धर्म मानने, अपने तीज-त्यौहार मनाने, तीर्थों पर जाने एवं अपने रीति-रिवाजों का सार्वजनिक प्रदर्शन करने की छूट मिल गई। अब हिन्दू ‘जिम्मी’ नहीं रहे थे इसलिए हिन्दुओं पर से जजिया समाप्त कर दिया गया तथा हिन्दुओं एवं मुसलमानों से एक ही प्रकार का कर लेने की व्यवस्था आरम्भ की गई।
अब हिन्दुओं को घोड़े पर चढ़ने, मंदिर में जाकर घण्टे एवं झांझ बजाने, होली-दीपावली पर उत्साह का प्रदर्शन करने, अपने धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने आदि की छूट मिल गई। अब किसी अपराध के लिए मुसलमान को भी वही सजा मिलती थी जो किसी हिन्दू अपराधी को मिलती थी।
इन सब कारणों से स्वाभाविक ही था कि भारत के मुसलमान अंग्रेजों से शत्रुता मानते और उनके नष्ट होने की कामना करते जबकि दूसरी ओर हिन्दू जाति अंग्रेजों को अपना तारणहार मानती और उनके राज्य को दृढ़ बनाने के लिए प्रयास करती। मुसलमानों एवं हिन्दुओं द्वारा अंग्रेजों के साथ किए जा रहे व्यवहार के इस अंतर के कारण अंग्रेज अधिकारी ईस्ट इण्डिया कम्पनी में हिन्दू कर्मचारियों को काम पर रखना पसंद करते थे तथा मुसलमानों की बजाय हिन्दुओं पर अधिक विश्वास करते थे।
इस कारण हिन्दुओं को पहले तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी में तथा बाद में कम्पनी सरकार में हजारों की संख्या में नौकरियां मिल गईं जबकि मुसलमान लड़के नौकरियों से वंचित रह जाने के कारण आर्थिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ गए। चूंकि अंग्रेजों के शासन में हिन्दुओं को मुसलमानी शासन से मुक्ति मिली थी इसलिए उस काल के हिन्दुओं के मन में अंग्रेज जाति के प्रति गहरा श्रद्धा भाव था।
उर्दू को राजभाषा एवं न्यायालय की भाषा का दर्जा
ई.1837 में, ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपने अधीन विभिन्न प्रान्तों में फारसी लिपि में लिखी जाने वाली फारसी भाषा के स्थान पर फारसी लिपि में लिखी जाने वाली उर्दू भाषा को आधिकारिक (राजभाषा) और न्यायालयी भाषा के रूप में मान्यता प्रदानी की।
उस काल में हिन्दी और उर्दू में अधिक अंतर नहीं था इसलिए कम्पनी सरकार में नौकर बहुत से हिन्दू युवक फारसी लिपि में हिन्दी भाषा लिखने लगे और अपनी नौकरियां बचाए रखने में सफल रहे।
इस समय कम्पनी सरकार के कार्यालियों में फारसी लिपि में जो उर्दू काम में ली जा रही थी, वस्तुतः वह फारसी भाषा में लिखी जाने वाली हिन्दी ही थी क्योंकि इस काल में हिन्दी का मानक स्वरूप सामने नहीं आया था।
डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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