उत्तर-पश्चिम के पहाड़ों से आने वाले अकबर के शत्रु अकबर को जीवन भर तंग करते रहे!
भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर स्थित पर्वतीय मार्गों से ईसा से भी कई हजार साल पहले से विदेशी आक्रमण होते रहे हैं। ये लोग भोजन-पानी, आवास एवं धन-दौलत पाने के लिए दुर्गम हिंदुकुश पर्वत को लांघकर भारत में घुसा करते थे।
अकबर का बाबा बाबर तथा पिता हुमायूँ भी उन्हीं आक्रांताओं में से थे किंतु अब उन्हीं का वंशज अकबर भारत के विशाल उत्तरी क्षेत्रों का स्वामी था। उत्तर-पश्चिमी सीमा से आने वाले लोगों एवं अकबर के पूर्वजों का खून भले ही एक था किंतु अब वे अकबर के शत्रु थे तथा अकबर के लिए आक्रांता थे।
इस कारण अकबर के लिये यह आवश्यक था कि वह अपनी सल्तनत की सुरक्षा के लिये गजनी, काबुल, कन्दहार, बिलोचिस्तान तथा सिंध आदि सीमांत प्रदेशों पर अपना प्रभाव स्थापित रखे और वहाँ सुदृढ़ दुर्गों का निर्माण करके उनमें मजबूत सैन्य बल रखे ताकि अफगानिस्तान, ईरान और उज्बेकिस्तान आदि क्षेत्रों के लड़ाके भारत में प्रवेश न कर सकें।
चूंकि बदख्शां अफगानिस्तान के धुर उत्तर में स्थित था तथा उज्बेकिस्तान उससे भी ऊपर था, इसलिए बदख्शां एवं ट्रांसऑक्सिाना की राजनीति से अकबर के राज्य की सुरक्षा को कोई विशेष खतरा नहीं था, फिर भी काबुल, कन्दहार, बिलोचिस्तान, गजनी तथा सिंध की ओर सेअकबर के शत्रु जीवन भर आते रहे। इस कारण अकबर को अपनी सेना, शक्ति, समय एवं धन इन शत्रुओं से लड़ने में व्यय करना पड़ा।
पाठकों को स्मरण होगा कि चूचक बेगम जो कि अकबर की सौतेली माँ थी, ने एक बार अपने पुत्र हकीम खाँ को हिन्दुस्तान का बादशाह बनाने की योजना बनाई थी। उसे उजबेग सरदारों से भी प्रोत्साहन एवं समर्थन मिला था। इसलिये हकीम खाँ ने पंजाब पर आक्रमण किया था।
उजबेगों ने भी उसका साथ दिया था। तब अकबर ने स्वयं एक सेना लेकर पंजाब के लिए प्रस्थान किया था ताकि हकीम खाँ और उसके साथ आए उज्बेक लड़ाकों को दण्डित किया जा सके।
उस समय तो हकीम खाँ भयभीत होकर काबुल भाग गया था और अकबर ने भी उसे अपना छोटा भाई समझकर उसका पीछा नहीं किया था। इसके बाद ई.1580 तक हकीम खाँ चुप बैठा रहा। ई.1581 में अपने अमीरों के उकसाने पर हकीम खाँ ने फिर से पंजाब पर आक्रमण किया।
इस बार अकबर ने उसका पीछा किया और उसे काबुल से भी निकाल बाहर किया। जब हकीम खाँ ने अकबर से क्षमा-याचना की तो अकबर ने उसे फिर से काबुल का शासक बना दिया। इसके बाद हकीम खाँ ने फिर कभी विद्रोह नहीं किया। ई.1585 में हकीम की मृत्यु हो गई और अकबर ने फिर से काबुल पर प्रत्यक्ष अधिकार कर लिया।
अफगानिस्तान तथा भारत की पश्चिमोत्तर सीमा के मध्य स्थित पहाड़ी प्रदेश सदियों से कबाइली क्षेत्र कहलाता है। इस क्षेत्र में उजबेग, रोशनियाँ, युसुफजई आदि जातियों के कबीले निवास किया करते थे जो बड़े ही विद्रोही प्रकृति के थे।
काबुल की रक्षा के लिए इन कबीलों पर नियंत्रण रखना आवश्यक था। इसलिये अकबर ने इन कबीलों को परास्त करके उन्हें अपने नियंत्रण में लाने का निश्चय किया। अकबर ने सबसे पहले उजबेगों का दमन आरम्भ किया क्योंकि उजबेगों तथा मुगलों की पुश्तैनी शत्रुता थी और उन्हीं से अकबर को सबसे बड़ा खतरा था।
उजबेगों की शक्ति छिन्न-भिन्न करने के बाद अकबर ने रोशनिया कबीले का दमन किया। इसके बाद अकबर ने बीरबल तथा जैनी खाँ को यूसुफजाइयों का दमन करने भेजा। ये दोनों सेनापति सहयोग से काम नहीं कर सके। इस कारण यूसुफजाइयों ने बीरबल को मार डाला।
इस पर अकबर ने राजा टोडरमल तथा शाहजादा मुराद की अध्यक्षता में एक सेना भेजी। इस सेना ने यूसुफजाइयों को परास्त करके उनकी शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया। इस प्रकार पश्चिमोत्तर प्रदेश के कबाइली क्षेत्रों पर अकबर का नियंत्रण हो गया।
ई.1586 में अकबर ने राजा भगवानदास तथा कासिम खाँ की अध्यक्षता में एक सेना काश्मीर पर आक्रमण करने के लिये भेजी। पर्वतीय प्रदेश होने के कारण काश्मीर में मुगल सेना को भयानक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा परन्तु अन्त में वह काश्मीर के शासक यूसुफ खाँ तथा उसके पुत्र याकूत को परास्त करने में सफल हुई।
पिता-पुत्र को बन्दी बनाकर बिहार भेज दिया गया और मानसिंह को काश्मीर का शासक बना दिया गया। इस प्रकार काश्मीर मुगल साम्राज्य का अंग बन गया।
पश्चिमोत्तर प्रदेश की सुरक्षा के लिए सिन्ध पर भी अधिकार करना आवश्यक था। उत्तरी सिन्ध पहले से ही मुगल साम्राज्य के अधीन था। अब केवल दक्षिणी सिन्ध को जीतना शेष था, जहाँ पर मिर्जा जानी, थट्टा को अपनी राजधानी बनाकर स्वतन्त्रता पूर्वक शासन कर रहा था।
ई.1590 में अकबर ने मुल्तान के हाकिम अब्दुर्रहीम खानखाना को थट्टा पर अधिकार करने भेजा। मिर्जा जानी मुगलों की विशाल सेना का सामना नहीं कर सका और उसने थट्टा तथा सिंहवान के दुर्ग मुगलों को समर्पित कर दिये। अकबर ने मिर्जा जानी के साथ उदारता का व्यवहार किया और उसे अपना जागीरदार बना लिया।
सिन्ध विजय के उपरान्त अकबर ने बिलोचिस्तान पर अधिकार करने का निश्चय किया। इन दिनों बिलोचिस्तान अफगानों के अधिकार में था। ई.1595 में अकबर ने मासूम खाँ की अध्यक्षता में एक सेना बिलोचिस्तान पर आक्रमण करने के लिए भेजी। इस सेना ने सम्पूर्ण बिलोचिस्तान को जीत लिया। इस प्रकार यह क्षेत्र भी अकबर के अधीन हो गया।
कन्दहार सामरिक तथा व्यापारिक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण नगर था। इसे भारत का फाटक कहा जाता था। इससे होकर विदेशी सेनाएँ भारत में प्रवेश करती थीं। फारस के शाह तथा दिल्ली के बादशाह दोनों की दृष्टि कन्दहार पर लगी रहती थी।
इन दिनों कन्दहार (कांधार) पर फारस के शाह का अधिकार था। महाभारत काल में इसे गांधार कहते थे। फारस के शाह ने मुजफ्फर हुसैन मिर्जा को कन्हदार का प्रांतपति बना रखा था। किसी कारण से फारस का शाह, मुजफ्फर हुसैन मिर्जा से नाराज हो गया।
उजबेग लोग भी कन्दहार पर आक्रमण करके मिर्जा को तंग कर रहे थे। इस स्थिति में मुजफ्फर हुसैन मिर्जा ने कन्दहार का दुर्ग अकबर को समर्पित कर दिया। इस प्रकार बिना युद्ध किये ही कन्दहार पुनः मुगलों के अधिकार में आ गया। फिर भी पश्चिमोत्तर के पहाड़ों में रहने वाले अकबर के शत्रु कभी शांति से नहीं बैठे।
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