Thursday, November 21, 2024
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रामानंद की समन्वयवादी परम्परा

रामानंद की समन्वयवादी परम्परा के बारे में पढ़ने से पहले हमें उनकी गुरुपरम्परा के आचार्य रामानुज एवं राघवानंदाचार्य के बारे में संक्षेप में जानना चाहिए।

रामानुजाचार्य

श्रीरामानुजाचार्य का प्राकट्य वि.सं. 1074 (ई.1017) में दक्षिण भारत में हुआ। उन्होंने श्री वैष्णव संप्रदाय के विशिष्टाद्वैत मत की स्थापना की। वे भगवान् संकर्षण के अवतार माने जाते हैं। उनका संप्रदाय श्री संप्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसमें विष्णु या नारायण की उपासना पर बल दिया गया। इस संप्रदाय में अनके अच्छे-अच्छे संत और महात्मा होते रहे।

राघवानंदाचार्य

रामानुजाचार्य की शिष्य परंपरा में विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में श्री संप्रदाय के प्रधान आचार्य राघवानंद हुए। राघवानंद, रामानंद को दीक्षा देकर निश्चिंत हुए।

रामानंदाचार्य

रामानंद श्री संप्रदाय के प्रमुख वैष्णव आचार्य हुए। भारत के मध्यकालीन इतिहास में रामानंद ऐसे अद्भुत संत हैं जो अपने समन्वयवादी दृष्टिकोण से समाज एवं राष्ट्र को नवीन दिशा देने में समर्थ हुए हैं। रामानंद ने देशव्यापी पर्यटन द्वारा अपने संप्रदाय का प्रचार किया। इनके दो ग्रंथ मिलते हैं- वैष्णव मताब्ज भास्कर तथा रामार्चन पद्धति।

रामानुज के शिष्य होते हुए भी रामानंद ने अपनी उपासना पद्धति का विशिष्ट रूप रखा। इन्होंने उपासना के लिये बैकुंठ निवासी विष्णु का रूप न लेकर लोक में लीला करने वाले विष्णु के अवतार राम का आश्रय लिया। इनके इष्टदेव राम हुए तथा मूलमंत्र हुआ राम नाम।

रामानंद का जीवनकाल

रामानंदाचार्य के जीवनकाल का सही निर्धारण अब तक नहीं किया जा सका है। हिन्दी साहित्य के विद्वानों ने रामानंद का काल 12वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध का माना है। दूसरी ओर उनके शिष्यों में कबीर, रैदास और नरहरि के नाम लिये जाते हैं। शिष्यों की नामावली को यदि सही माना जाये तो रामानंद का 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में होना सही नहीं है।

यदि रामानंद 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुए तो कबीर, रैदास और नरहरि रामानंद की शिष्य परंपरा में तो हो सकते हैं किंतु रामानंद के स्वयं के शिष्य नहीं हो सकते। क्योंकि कबीर का समय वि.सं. 1455 (ई. 1398) माना जाता है। जबकि यह सर्वविदित मान्यता है कि रामानंद कबीर के गुरु थे और दोनों संत समकालीन थे।

इसी प्रकार यदि नरहरि रामानंद के शिष्य थे तो भी रामानंद का जीवन 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में नहीं हो सकता। नरहरि गोस्वामी तुलसीदास के गुरु थे। तुलसीदास ने सं. 1631 (ई. 1574) में रामचरित मानस का लेखन आरंभ किया था तथा संवत् 1680 (ई. 1623) में शरीर का त्याग किया था। इस काल निर्धारण के आधार पर नरहरि रामानंद और तुलसीदास दोनों के समकालीन उसी अवस्था में हो सकते हैं जब रामानंद का जीवन काल 15वीं-16वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य माना जाये।

इसी प्रकार रामानंद के अन्य शिष्य रैदास भी मीरां के गुरु माने जाते हैं। मीरां अकबर की समकालीन थीं इस प्रकार यह काल भी सोलहवीं शताब्दी ईस्वी के लगभग आता है।

गीताप्रेस गोरखपुर की मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ के संतवाणी अंक में रामानंदाचार्य के आविर्भाव का समय वि.सं. 1324 (ई.1267) और अन्तर्धान होने का समय वि.सं. 1515 (ई. 1458) विनिर्दिष्ट किया गया है। इस काल गणना के अनुसार रामानंद की आयु 191 वर्ष बैठती है जो कि उचित प्रतीत नहीं होती। अतः विभिन्न साक्ष्यों का विवेचन करने के बाद निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि रामानंद 15वीं-16वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य विद्यमान थे।

रामानंद की समन्वयवादी परम्परा

रामानंद ने उत्तरी भारत में रामानुजाचार्य द्वारा प्रतिपादित विशिष्टाद्वैत सिद्धांत का जोरों से प्रचार किया। उन्होंने विष्णु के सगुण और निर्गुण, दोनों रूपों की उपासना पर बल दिया। उनकी शिष्य परम्परा में राजा और रंक, ब्राह्मण और चर्मकार, सगुणवादी और निर्गुणवादी तथा स्त्री और पुरुष सभी प्रकार के व्यक्ति थे। ईश्वर की कृपा के अधिकारी होने के सम्बन्ध में रामानंद स्वयं कहते हैं-

सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणः सदा। शक्ता अशक्ता अपि नित्यरंगिणः।

अपेक्ष्यते तत्र कुलं बलं नो चापि कालो हि शुद्धता च।

– वैष्णवमताब्जभास्कर 99

      अर्थात्- भगवान के चरणों में अटूट अनुराग रखने वाले सभी लोग चाहे वे समर्थ हों या असमर्थ, भगवत् शरणागति के नित्य अधिकारी हैं। भगवत् शरणागति के लिये न तो श्रेष्ठ कुल की आवश्यकता है, न किसी प्रकार की शुद्धि ही अपेक्षित है। सब समय और शुचि-अशुचि सभी अवस्थाओं में जीव उनकी शरण ग्रहण कर सकता है।

दानं तपस्तीर्थनिषेवणं जपो चात्स्यहिंसासदृशं सुपुण्यम्।

हिंसामतस्तां  परिवर्जयेज्जनः  सुधर्मनिष्ठो  दृढधर्मवृद्धये।

– वैष्णवमताब्जभास्कर 111

अर्थात्- दान, तप, तीर्थसेवन एवं मंत्रजाप, सभी उत्तम हैं किंतु इनमें से कोई भी अहिंसा के समान पुण्यदायक नहीं है। अतः सर्वश्रेष्ठ वैष्णव धर्म का पालन करने वाले मनुष्य को चाहिये कि वह अपने सुदृढ़ धर्म की वृद्धि के लिये सब प्रकार की हिंसा का परित्याग कर दे।

भक्तापचार   मासोढुं   दयालुरपि  स   प्रभुः।

शक्तस्तेन युष्माभिः कर्त्तव्यो क्कचित्।

– श्री रामानंद दिग्विजय 12/5

      अर्थात्- यद्यपि प्रभु दयालु हैं, तथापि अपने भक्तों की अवहेलना को नहीं सह सकते। अतः तुम लोग कभी भी प्रभु के भक्त का अपराध न करना।

यद्यपि रामानंदाचार्य ने राम को ही अपना इष्टदेव घोषित किया किंतु उन्होंने श्री हरि नारायण विष्णु के बैकुण्ठवासी स्वरूप की भी स्तुति की तथा उनके लौकिक अवतार दशरथनंदन श्रीराम के साथ साथ देवकीनंदन श्रीकृष्ण की भी स्तुति करने में पूरा उत्साह दिखाया है। रामानंद की समन्वयवादी परम्परा आगे चलकर उनकी शिष्य परम्परा में भी पूरे वेग से दिखायी पड़ती है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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