Thursday, November 21, 2024
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123. चित्रकूट की ओर

– ‘शहंशाहे आलम! गुलाम की दरख्वास्त है कि मुझे कुछ दिनों के लिये चित्रकूट जाने की इजाजत दी जाये।’ खानखाना ने जहाँगीर के सामने उपस्थित हो कर निवेदन किया।

– ‘क्यों अतालीक बाबा? यहाँ किसी किस्म की तकलीफ है आपको?’ जहाँगीर ने अपने स्वभाव के विपरीत स्वर कोमल ही रखा जाने क्यों आज उसे अपने मरहूम बाप अकबर का स्मरण हो आया। वह सदैव ही बैरामखाँ को अतालीक बाबा कहकर पुकारा करता था।

– ‘आपकी बादशाहत में तो दुखी भी दुखी नहीं रहे जहाँपनाह, फिर मैं तो जन्म का ही सुखी हूँ।’ वाक्य पूरा करते हुए खानखाना का गला भर आया। बादशाह चाह कर भी नहीं जान सका कि खानखाना के वाक्य का सही अर्थ क्या है! वह प्रशंसा कर रहा है कि व्यंग्य! वह मुँह उठाकर खानखाना की ओर ताकता ही रह गया।

– ‘मेरे पास किसी जागीर को संभालने का भार नहीं है, न ही मैं इस स्थिति में हूँ कि कोई जागीर संभाल सकूं। अब मैं सत्तर साल का बूढ़ा हो गया हूँ, कुछ दिन शांति से चित्रकूट में गुजारना चाहता हूँ।’

– ‘यदि आपको जागीर की आवश्यकता है, तो वह भी मिल जायेगी। अधीर क्यों होते हैं?’

– ‘जागीरों से अब जी भर गया जहाँपनाह। अब तो कुछ दिनों के लिये चित्रकूट में ही जाकर बैठने की इच्छा है।’

– ‘किंतु अभी मुगलिया सल्तनत को आपकी सेवाओं की आवश्यकता है।’

– ‘जब कभी मुगलिया सल्तनत अथवा बादशाह सलामत को मेरी आवश्यकता होगी, मैं तत्काल ही शहंशाह की सेवा में हाजिर हो जाऊंगा।’

– ‘हम समझ सकते हैं खानखाना! तुम अपने बेटों और पोतों के गम में गाफ़िल हो। कुछ दिन के लिये छुट्टी मना आओ। तुम्हारा जी बहल जायेगा।’

– ‘जी बहलाने का अब कुछ सामान इस धरती पर न रहा शहंशाह। अब इजाजत बख्शिये। खु़दा ने ज़िन्दगी बख्शी तो फिर कभी बादशाह सलामत के हुजूर में पेश होऊंगा।’ बादशाह को कोर्निश बजाकर खानखाना महल से बाहर आ गया।

यद्यपि जहाँगीर ने अपनी ओर से अब्दुर्रहीम का मान-सम्मान ही किया था किंतु अब खानखाना के लिये इस मान-सम्मान का अर्थ ही क्या था? क्या बादशाह उसके बेटे और पोते वापिस लौटा सकता था जो मुगलिया सियासत की गंदी दलदल में समा गये थे? उनके असमय मारे जाने का यदि कोई कारण था तो यही कि या तो वे बादशाह के लिये लड़ते हुए मारे गये थे या फिर उन्हें शहजादों ने मार डाला था।

जिस मुगलिया सल्तनत को अब्दुर्रहीम के बाप बैरामखाँ, स्वयं अब्दुर्रहीम और उसके बेटों पोतों सहित चार-चार पीढ़ियों ने अपने रक्त से सींच कर पुष्पित-पल्लवित किया था, वही मुगलिया सल्तनत एक-एक करके बैरामखाँ के पूरे वंश को निगल गयी थी। यही कारण था कि अब्दुर्रहीम को अब मुगलों से नफरत हो गयी थी।

यद्यपि अब भी खानखाना के आदमी और कबूतर पूरी मुगलिया सल्तनत की कचहरियों, अदालतों, चबूतरों, गली कूँचों और बाजारों में फैले हुए थे जो पल-पल की खबर उस तक पहुँचाते थे किंतु अब उन सूचनाओं का कोई अर्थ नहीं रह गया था। अब तो वह एक पल के लिये भी बादशाह और शहजादों का मुँह नहीं देखना चाहता था। वह नहीं चाहता था कि फिर से कोई मनसब, जागीर या खिलअत देकर उसे मुगलिया सियासत का मोहरा बनाया जाये।

अब्दुर्रहीम के न चाहने पर भी जहाँगीर ने उसे फिर से खानखाना बना दिया था तथा पुराना वाला सात हजारी जात और सात हजारी सवार का मनसब दे दिया था। इतना होने पर भी जहाँगीर ने उसकी पुरानी जागीरें बहाल नहीं की थीं। इससे यह पद हास्यास्पद हो गया था।

इसीलिये अब्दुर्रहीम ने खानखाना के बंधन में न बंध कर, अपने आप को मुगलों से मुक्त कर लेने का निर्णय लिया था। फिर से खानखाना बनाये जाने पर वह जहाँगीर के प्रति आभार व्यक्त करने के बाद चित्रकूट के लिये चल देना चाहता था। जो आँसू उसने जहाँगीर के दरबार में गिराये थे, उनका शेष हिस्सा वह चित्रकूट की पावन भूमि में बहाना चाहता था।

अंततः वह दिन भी आया जब अब्दुर्रहीम सब कुछ समेट-समाट कर चित्रकूट के लिये चल दिया। वह समेटना भी क्या था! एक विचित्र सी चेष्टा थी। आगरा और दिल्ली में खानखाना की बनवाई हुई जो हवेलियाँ थी, वे सब हवेलियाँ उसने अपने आश्रितों, सम्बंधियों और नौकरों-चाकरों को दे दीं। दिल्ली में बैरामखाँ की बनवाई हुई हवेली उसने बेटी जाना के हवाले कर दी। घर का सारा सामान सेवकों और भिखमंगों में बांट दिया। यह सब-कुछ ऐसा ही था जैसे कोई गरुड़ पक्षी अपने सोने का पिंजरा काट कर मुक्त आकाश में विचरने के लिये उड़ चले।

मुँह अंधेरे ही वह बैलगाड़ी में बैठ गया। बेटी जाना बेगम उसके सामने बैठी थी। कड़वे तेल की कुप्पी के क्षीण प्रकाश में बेटी के कातर मुँह और डबडबायी हुई आँखों को देखकर खानखाना ने अपना मुँह बैलगाड़ी से बाहर निकाला और गाड़ीवान से बोला- ‘चलो मियाँ! चित्रकूट चलो।’

सचमुच ही पंछी अपना पिंजरा काट कर चित्रकूट के लिये उड़ चला था। वर्षों की साध पूरी होने जा रही थी। उसका मन दो हिस्सों में बंट गया था। एक हिस्सा बेटे पोतों के मारे जाने के कारण जार-जार रोता था तो दूसरा हिस्सा चित्रकूट की ओर चल देने के लिये उतावला था।

चबूतरों की मुंडेरों पर बैठै उसके सैंकड़ों कबूतर और गली-कूँचों में घूमते उसके विश्वस्त खबरची जो पल-पल की खबर लाकर खानखाना को देते थे, खानखाना के कूच का हाल तभी जान सके जब वह शहर से काफी दूर हो गया।

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