Friday, November 22, 2024
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द लास्ट मुगल

बहादुरशाह जफर लाल किले में रहने वाला आखिरी मुगल था। इसलिए अंग्रेज उसे द लास्ट मुगल भी कहते थे। वह पूर्णतः ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सरकार द्वारा दी जा रही पेंशन पर जीवित था। उसकी आय का कोई अन्य स्रोत नहीं था।

द लास्ट मुगल अर्थात् बहादुरशाह जफर पेंशन के पैसे पर अपने हरम की ढेर सारी शहजादियों, बेगमों, लौण्डियों एवं बांदियों को पालता था। शहजादे भी उसी पेंशन में से रोटी खाते थे। द लास्ट मुगल के पास अपना एक भी सिपाही नहीं था फिर भी उसने 1857 की सशस्त्र सैनिक क्रांति का नेतृत्व करना स्वीकार किया।

क्रांति के राष्ट्रव्यापी घटनाक्रम में आगे बढ़ने से पहले हमें लाल किले के भीतर के तत्कालीन परिदृश्य पर एक दृष्टि डालनी चाहिए। पाठकों को स्मरण होगा कि भारत में 19वें मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने चार विवाह किए थे जिनसे उसे 22 शहजादों की प्राप्ति हुई थी। इनमें से 6 शहजादे बहादुरशाह के जीवन-काल में ही मर गए थे।

अंग्रेज लेखक विलियम डैलरिम्पल ने अपनी पुस्तक द लास्ट मुगल में लिखा है कि बहादुरशाह जफर ने ई.1840 में 64 वर्ष की आयु में 19 वर्ष की जीनत महल से विवाह किया था। जीनत महल के पेट से एक शहजादे का जन्म हुआ था जिसका नाम जवांबख्श था।

जीनत से विवाह होने से पहले ताज बेगम, बादशाह की मुख्य बेगम हुआ करती थी। वह बहादुरशाह जफर के दरबार के एक संगीतकार की खूबसूरत बेटी थी। ईस्वी 1837 में जब बहादुरशाह जफर मुगलों के तख्त पर बैठा था, तब लाल किले में हुए समस्त समारोहों का प्रबंधन इसी हसीना ने अर्थात् ताजमहल ने किया था क्योंकि बहादुरशाह की दो बेगमें अशरफ महल तथा अख्तर महल इस समय तक पर्याप्त वृद्धा हो चुकी थीं।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

बहादुरशाह ताजमहल बेगम पर दिलो-जान से फिदा था किंतु एक बार बादशाह को संदेह हो गया कि बेगम ताजमहल, बादशाह के भतीजे मिर्जा कामरान से प्रेम करती है। इस पर बादशाह ने ताजमहल को जेल में बंद कर दिया। कुछ समय बाद परिवार के लोगों ने बीच-बचाव करके बेगम ताजमहल को कैद से मुक्त करवाया। ताजमहल जेल से तो बाहर आ गई किंतु वह जीवन भर बहादुरशाह और उसकी सबसे छोटी बेगम जीनत महल से रुष्ट रही।

हालांकि जीनत महल मुख्य बेगम बनी रही किंतु बहादुरशाह की चारों बेगमें अपने-अपने पुत्र को अगला बादशाह बनाना चाहती थीं। इसलिए लाल किले का वातावरण पूरी तरह विषाक्त हो गया था। जीनत महल का बेटा जवांबख्श बादशाह के 16 जीवित पुत्रों में से 15वें नम्बर का था किंतु जीनत महल चाहती थी कि हर हाल में जवांबख्श ही अगला बादशाह हो। इसके लिए वह कोई भी खतरनाक काम करने को तैयार थी।

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विलियम डैलरिंपल ने अपनी पुस्तक ‘द लास्ट मुगल’ में बहादुरशाह के कुछ शहजादों का उल्लेख किया है। उसके अनुसार सबसे पहले शहजादा मिर्जा दाराबख्त बहादुरशाह का उत्तराधिकारी घोषित हुआ जो कि बहादुरशाह जफर का सबसे बड़ा पुत्र था किंतु वह ई.1849 में बुखार आने से मर गया। इसके बाद मिर्जा फखरू को उत्तराधिकारी बनाया जाना था किंतु जीनत महल अपने आठ वर्षीय बेटे जवांबख्त को बादशाह का उत्तराधिकारी घोषित करने की जिद करने लगी तो बादशाह ने उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रश्न टाल दिया।

ई.1856 में लॉर्ड डलाहौजी के स्थान पर लॉर्ड केनिंग कम्पनी सरकार का गवर्नर जनरल बनकर आया। केनिंग ने घोषणा की कि बहादुरशाह के बाद उसका उत्तराधिकारी केवल शहजादे के रूप में जाना जायेगा। उसे बादशाह की उपाधि नहीं दी जायेगी। उसे लाल किला छोड़कर महरौली वाले महल में रहना होगा तथा उसे 15 हजार रुपये प्रतिमाह मामूली पेंशन दी जाएगी। बादशाह के सबसे बड़े जीवित पुत्र मिर्जा फखरू ने अंग्रेजों की इन समस्त शर्तों को स्वीकार कर लिया। कुछ स्थानों पर इस शहजादे का नाम मिर्जा कोयास लिखा हुआ मिलता है।

भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग तथा दिल्ली के रेजीडेंट थियोफिलस मेटकाफ द्वारा की जा रही इन कार्यवाहियों से लाल किले में अँग्रेजों के विरुद्ध असन्तोष गहराने लगा। जब बहादुरशाह जफर को थियोफिलस मेटकाफ द्वारा मिर्जा फखरू को वली-ए-अहद बनाए जाने की सूचना मिली तो बादशाह ने अपरे दरबार में उपस्थित लोगों के सामने गुस्से का प्रदर्शन करते हुए कहा- ‘एक मरियल कुत्ते को गलती से भेड़िया समझा जा सकता है।’

बादशाह ने उसी समय मिर्जा फखरू का मकान, उसकी जमीन-जायदाद, ओहदा, उसके नौकर-चाकर सब छीन लिए और उन्हें मिर्जा फखरू के छोटे भाइयों में बांट दिया। बादशाह ने खुले आम यह घोषणा भी की कि जो कोई भी मिर्जा फखरू से मिलेगा, वह बादशाह का दुश्मन माना जाएगा।

बादशाह ने रेजीडेंट को भी एक पत्र लिखकर अपना रोष प्रकट किया- ‘ऐसा लगता है कि मेरे घराने का सिवाय नाम के कुछ और नहीं बचा है। बहुत खेद है कि ब्रिटिश शासन मेरी प्रसन्नताओं का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रख रहा है। इसलिए श्रेष्ठ यही होगा कि मैं ब्रिटिश शासन को और कष्ट न दूं तथा हज के लिए मक्का चला जाऊं और अपने जीवन के शेष दिन वहीं बिता दूं। मैंने यह दुनिया तो खो ही दी है, अब वो दुनिया भी क्यों खोऊं?’

ई.1856 में मिर्जा फखरू हैजे से मर गया। कहा जाता था कि उसे बेगम जीनत महल ने जहर दिलवा दिया था ताकि जवांबख्त को बादशाह का उत्तराधिकारी बनाने का रास्ता साफ हो सके।

बहादुरशाह का पुत्र मिर्जा मुगल वैसे तो पांचवे नम्बर का था किंतु जब मिर्जा फखरू की मृत्यु हुई तो जीवित शहजादों में मिर्जा मुगल ही सबसे बड़ा था। वह बेगम शरफुल महल का बेटा था जो एक सैदानी थी तथा जफर के हरम में काफी ऊंचे दर्जे पर थी। मिर्जा फखरू की मृत्यु के बाद बहादुरशाह ने मिर्जा मुगल को लाल किले का किलेदार बना दिया।

मिर्जा जफर का नौवां बेटा मिर्जा खिजर सुल्तान बहादुरशाह जफर की एक रखैल से उत्पन्न हुआ था इसलिए उसे बादशाह की नाजायज औलाद माना जाता था। वह बदचलन और आवारा किस्म का नौजवान था। वह अपने गुण्डों को भेजकर दिल्ली के किसी भी धनी-मानी व्यक्ति को उठवा लेता था तथा उससे फिरौती की राशि लेकर छोड़ देता था। ई.1857 की क्रांति के समय मिर्जा खिजर सुल्तान क्रांतिकारी सैनिकों से मिल गया किंतु बाद में दुश्मनों से रिश्वत लेते हुए पकड़ा गया। 

जीनत महल का बेटा जवांबख्त भी एक बिगड़ा हुआ स्वार्थी शहजादा था। उसके माता-पिता के अतिरिक्त संसार में और कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो जवांबख्त को पसंद करता हो। जब मेरठ के क्रांतिकारी दिल्ली आए तो जीनत महल ने जवांबख्त को क्रांतिकारियों से मेल-जोल करने से मना कर दिया। क्योंकि जीनत महल को आशा थी कि बगावत कुछ ही दिनों में थम जाएगी, तब जीनत महल अंग्रेजों से कहकर जवांबख्त को लाल किले का बादशाह बनवाने में कामयाब हो जाएगी।

इन दिनों लाल किले के शहजादों में मिर्जा अबू बकर भी खूब प्रसिद्ध था। वह बहादुरशाह जफर का पोता था और मरहूम शहजादे मिर्जा फखरू का बड़ा बेटा था। उसे शाही-खानदान में गुण्डे और बदमाश के रूप में जाना जाता था। बादशाह के सामने उन दिनों जो अर्जियां पेश की जाती थीं उनमें से ज्यादातर अर्जियां मिर्जा अबू बकर की बदमाशियों के बारे में होती थीं जिनमें वेश्यावृत्ति, बदमस्ती, नौकरों को कोड़े मारने, सिपाहियों पर हमला करने आदि शिकायतें होती थीं।

जब ईस्वी 1857 की क्रांति आरम्भ हुई तो मिर्जा अबू बकर ने कुछ क्रांतिकारी सिपाहियों को अपनी तरफ मिला लिया और उन्हें साथ लेकर गुड़गांव आदि क्षेत्रों में लूटपाट मचाने लगा। उसने मेरठ पर भी हमला किया किंतु वहाँ से हारकर भाग आया। अंत में गाजियाबाद के पास हिण्डन नदी के पुल पर अंग्रेजों ने उसे कड़ी शिकस्त दी।

इस समय लाल किले में बहादुरशाह जफर तथा उसकी बेगमों के साथ-साथ पूर्व बादशाहों की विधवा बेगमें, रखैलें, शहजादे एवं सलातीन भी रहते थे। बादशाह के लिए इन सबका पेट भर पाना अत्यंत कठिन था। इस कारण वे आपस में लड़ते-झगड़ते रहते थे। इस समय लाल किला इतनी जबर्दस्त आंतरिक कलह में डूबा हुआ था कि वह अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर भी अंग्रजों का सामना करने की स्थिति में नहीं था। न ही वह क्रांतिकारियों का नेतृत्व करने की स्थिति में था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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