Thursday, December 26, 2024
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अध्याय -42 – भारतीय साहित्यिक विरासत – कालीदास

भारत का साहित्य हमें अतीत काल के महान राष्ट्र से परिचित कराता है जिसका ज्ञान की हर शाखा पर अधिकार था और जो सदा ही मानव सभ्यता के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान ग्रहण करेगा।

– काउण्ट ब्जोन्सर्टजेरेना।

भारत में वैदिक-काल से ही उत्कृष्ट कोटि की साहित्य रचना की परम्परा आरम्भ हुई जो प्रत्येक युग में चलती रही। भारत का सबसे पहला महाकाव्य महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण तथा दूसरा महाकाव्य वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत है। ईसा बाद की शताब्दियों में भी संस्कृत भाषा के अनेक महाकवि हुए जिनमें कालीदास, भारवि, दण्डी एवं माघ बहुत प्रसिद्ध हैं। इनके बारे में एक उक्ति बड़ी प्रसिद्ध है-

उपमा कालीदासस्य,  भारवैः अर्थ गौरवं

दण्डि तु पद लालित्यं माघः संति त्रयो गुणाः।

महाकवि कालीदास के संस्कृत साहित्य में हमें गुप्तकालीन समाज और संस्कृति के दर्शन होते है। मध्य-काल में तुलसीदास, सूरदास, कबीर और मीराबाई आदि अनेक विख्यात कवि हुए जिन्होंने लोकभाषा में रचनाएं लिखकर देश को महान साहित्य प्रदान किया। गोस्वामी तुलसीदास का साहित्य, भारतीय संस्कृति के उच्चतम आदर्शों की अभिव्यक्ति है। मीराबाई का भक्ति साहित्य हिन्दी साहित्य की अमर निधि है। इन साहित्यकारों ने देश के साहित्यिक और सांस्कृतिक जागरण में अमूल्य योगदान दिया।

महाकवि कालीदास

वैदिक एवं उत्तरवैदिक धार्मिक ग्रंथों के बाद संस्कृत साहित्य में महाकवि कालीदास को जितनी सफलता मिली, उतनी अन्य किसी कवि को नहीं मिली।  महाकवि कालीदास भारतीय संस्कृति के उत्कर्ष काल के प्रतिनिधि कवि हैं। कालीदास के जीवन के सम्बन्ध में प्रमाणिक जानकारी का अभाव है। विभिन्न ग्रंथों से मिलने वाली अनुश्रुतियों के अनुसार कालीदास का जन्म उज्जैन के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ।

वे शैव मतावलम्बी थे। कुछ विद्वान् कालीदास के काव्यों और नाटकों में कश्मीर के वर्णन के आधार पर उन्हें काश्मीर का ही मानते हैं। अनेक बंगाली साहित्यकारों ने उन्हें बंगाल का निवासी बताया है। प्रसिद्ध इतिहासकार वी. ए. स्मिथ का मत है कि कालीदास मालवा प्रदेश के मन्दसौर के निवासी थे।

महाकवि का काल निर्णय

कालीदास ने ‘विक्रमोर्वशीय’ नाटक में ‘विक्रम’ शब्द का प्रयोग किया है। इसके आधार पर कालीदास के काल के सम्बन्ध में दो मत बनाए गए हैं। प्रथम मत के अनुसार कालीदास, महाराजा विक्रमादित्य की राजसभा के नवरत्नों में से एक थे। विक्रमादित्य परमारवंशीय राजा महेन्द्रादित्य का पुत्र था जो ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में उज्जयिनी का राजा हुआ। उसने शकों को पराजित किया तथा अपनी विजय के उपलक्ष में ई.पू. 57 में विक्रम संवत् चलाया। अतः इस मत के आधार पर कालीदास का काल ई.पू. प्रथम शताब्दी ठहरता है।

दूसरे मत के अनुसार कालीदास गुप्त शासक चन्द्रगुप्त (द्वितीय) (ई.380-413) के समकालीन थे जिसने ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की थी। इस मत के समर्थकों का तर्क है कि-

(1.) ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में विक्रमादित्य नामक किसी राजा के होने का ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता, अतः कालीदास चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समकालीन थे।

(2.) कालीदास ने ‘कुमार-सम्भव’ महाकाव्य की रचना की। यह ग्रंथ चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के पुत्र कुमारगुप्त के जन्म के उपलक्ष में लिखा गया।

(3.) कालीदास के महाकाव्य ‘रघुवंश’ में रघु-दिग्विजय का वर्णन हुआ है। यह वर्णन इलाहाबाद-स्तम्भ-लेख में वर्णित समुद्रगुप्त की दिग्विजय के वर्णन से मेल खाता है जो चन्द्रगुप्त (द्वितीय) का पिता था।

(4.) कालीदास ने ‘रघुवंश’ में हूण नामक विदेशी जाति का उल्लेख किया है, जो गुप्त काल में ही भारत में प्रविष्ट हुए थे।

(5.) कालीदास की रचनाओं में संस्कृत भाषा की ‘गुप्’ धातु का बार-बार प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ होता है ‘रक्षा करना’। चूंकि गुप्तों ने अत्यंत शक्तिशाली एवं बर्बर हूणों से युद्ध करके देश की रक्षा की थी। इसलिए कालीदास द्वारा गुप् धातु का प्रयोग करके उसी ओर संकेत किया गया है।

(6.) कालीदास तथा बौद्ध कवि अश्वघोष की रचनाओं में, अनेक स्थानों पर समानता है। दोनों रचनाओं में कालीदास की रचना, निर्विवाद रूप से श्रेष्ठ है। ऐसा प्रतीत होता है कि कालीदास ने अश्वघोष का अनुसरण करके अपनी शैली का परिष्कार एवं सुधार किया। चूँकि अश्वघोष का समय प्रथम शताब्दी ईस्वी है, इसलिए कालीदास उनके बाद में अर्थात् गुप्त-काल में हुए होंगे।

(7.) ई.473 के गुप्तकालीन मन्दसौर अभिलेख में कालीदास की रचनाओं की स्पष्ट झलक मिलती है, जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कालीदास इस लेख के लिखे जाने के समय अथवा उससे पूर्व हुए होंगे। अतः वे चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में ही हुए होंगे।

(8.) जिस परिष्कृत संस्कृत भाषा, सुख, वैभव, शान्ति, समृद्धि तथा उल्लासमय वातावरण का वर्णन कालीदास के काव्यों में पाया जाता है, वह गुप्त काल में ही सम्भव था, अन्य किसी युग में नहीं।

(9.) परमारों का उदय अन्य राजपूत वंशों अर्थात् चैहानों, चैलुक्यों, प्रतिहारों के साथ हुआ जबकि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में भारत के इतिहास में परमार वंश का कोई अस्तित्व नहीं था। अतः कालीदास गुप्तवंश के समकालीन हो सकते हैं न कि किसी परमार वंशी राजा के।

उपरोक्त तर्कों के आधार पर कालीदास को गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का समकालीन माना जाता है।

कालीदास का जीवन-परिचय

कालीदास के बाल्यकाल और शिक्षा आदि के सम्बन्ध में प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती। उनके जीवन का परिचय विभिन्न ग्रंथों में आए हुए उल्लेखों से मिलता है जिनमें अविश्वसनीय किंवदंतियां भी सम्मिलित हैं। कहा जाता है कि कालीदास महामूर्ख थे। वे पेड़ की जिस डाल पर बैठते थे, उसी को काटने लग जाते थे।

वहाँ के राजा की पुत्री विद्योत्तमा समस्त विद्याओं और कलाओं में निपुण थी किंतु अभिमानी होने के कारण वह राज्य के पण्डितों का अपमान करती थी। इसलिए राज्य पंडितों ने राजकुमारी का मानमर्दन करने के लिए मूर्ख कालीदास को पकड़कर राजा के दरबार में यह कहकर प्रस्तुत किया कि यह अत्यंत विद्वान है तथा किसी को भी शास्त्रार्थ में परास्त कर सकता है।

राजा ने अपनी विदुषी पुत्री का विवाह मूर्ख कालीदास के साथ कर दिया। विवाह के पश्चात् विद्योत्तमा को कालीदास की मूर्खता का ज्ञान हुआ और उसने कालीदास का घनघोर अपमान किया। कालीदास घर छोड़कर विद्याध्ययन के लिए चले गए। अनेक वर्षों तक व्याकरण और काव्य-शास्त्र का अध्ययन करने के बाद जब वे घर लौटे तो विद्योत्तमा ने उनका स्वागत किया।

कहा जाता है कि विद्योत्तमा द्वारा कहे गए स्वागत-वाक्य- ‘अस्तिकाश्चिद्वागर्थ’ को आधार मानकर ही कालीदास ने कुमार-सम्भव, मेघदूत और रघुवंश की रचना की। 

एक दूसरी मान्यता यह भी है कि अपनी पत्नी से अपमानित होकर वे घर से सीधे काली के मन्दिर में पहुँचे और उन्होंने देवी को प्रसन्न करने के लिए अपनी जिह्वा काटकर देवी के चरणों में अर्पित कर दी। देवी ने प्रसन्न होकर कालीदास को समस्त शास्त्रों का ज्ञाता और महाकवि बना दिया। माना जाता है कि देवी काली की कृपा प्राप्त करने के कारण उनका नाम कालीदास पड़ा।

मुंशी प्रेमचन्द ने इन किंवदंतियों के सम्बन्ध में लिखा है- ‘ये अधिकांशतः निर्मूल एवं निराधार हुआ करती हैं और तथ्य से इनका कोई सम्बन्ध नहीं होता। जहाँ इतिहास अधूरा रह जाता है या मौन हो जाता है वहाँ इस प्रकार की गाथाएं गढ़ लेना साधारण सी बात है।’

किंवदन्तियों को अलग कर दें तो भी यह स्पष्ट है कि कालीदास ने अनेक वर्षों तक विद्याध्ययन करके शास्त्रों एवं व्याकरण में निपुणता प्राप्त की और बाद में गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके अनेक विख्यात ग्रन्थों की रचना की।

माना जाता है कि गुप्त शासकों ने कालीदास को कश्मीर का राजा बनाया। इसी कारण उनकी रचनाओं में केसर की क्यारियों एवं कश्मीर की घाटियों का बहुतायत से उल्लेख हुआ है।

कालीदास की रचनाएं

कालीदास की रचनाओं में चार काव्य- ऋतु-संहार, कुमार-सम्भव, रघुवंश और मेघदूत तथा तीन नाटक- विक्रमोर्वशीय, मालविकाग्निमित्रम् और अभिज्ञान शाकुन्तलम् प्रमुख हैं।

(1.) ऋतु संहार: यह एक गीति-काव्य है। इसमें छः सर्ग हैं और प्रत्येक सर्ग में एक ऋतु क्रमशः ग्रीष्म, वर्षा, शरद् हेमन्त, शिशिर और बसन्त ऋतु का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया गया है। ऋतु संहार को कालीदास की प्रथम कृति माना जाता है। ऋतु संहार में महाकवि की भावनाओं तथा भाषा का वह परिष्कृत और विकसित रूप नहीं मिलता जो उनकी अन्य रचनाओं में मिलता है।

(2.) कुमार-सम्भव: महाकवि कालीदास का यह एक उत्कृष्ट महाकाव्य है। इसमें 17 सर्ग हैं। कुमार-सम्भव की कथा-वस्तु का आधार शिव-पुराण और विष्णु-पुराण में वर्णित कथाएं हैं किन्तु कालीदास ने अपनी कल्पना के मिश्रण से पौराणिक घटनाओं में नवीनता, सरलता एवं लालित्य उत्पन्न किया है। इस कारण यह मौलिक काव्य बन गया है।

इसके प्रथम सर्ग में पर्वतराज हिमालय के सौन्दर्य का हृदयग्राही वर्णन, दूसरे सर्ग में बसन्त ऋतु एवं वन की अनुपम शोभा, तीसरे में शिव की समाधि, चैथे में शिव द्वारा कामदेव का दहन तथा रति का करुण विलाप, पांचवे में पार्वती की तपस्या तथा शिव और पार्वती में संवाद तथा बाद के सर्गों में शिव-पार्वती विवाह, कुमार कार्तिकेय का जन्म, देवताओं का सेनापति नियुक्त होना तथा तारकासुर-वध आदि का वर्णन है।

कुमार-सम्भव में पार्वती के यौवन एवं सौन्दर्य, रति का विलाप तथा शिव-पार्वती विवाह आदि प्रसंग अत्यन्त ही भावपूर्ण एवं सुन्दर बन पड़े हैं। काव्य कला की दृष्टि से यह उच्च-कोटि की रचना है। किंवदंति है कि माता पार्वती के सौन्दर्य का शृंगारिक वर्णन करने के कारण कालीदास को कोढ़ हो गया था जो बाद में शिव-पार्वती की कृपा से ही ठीक हुआ।

(3.) रघुवंश: रघुवंश एक अनुपम महाकाव्य है जिसमें 19 सर्ग हैं। कालीदास की रचनाओं में तथा सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में रघुवंश को सर्वाधिक ख्याति प्राप्त है। इस ग्रंथ का मूल स्रोत वाल्मीकिकृत रामायण है। रघुवंश में सूर्यवंशी राजा दिलीप से लेकर रघु, अज, दशरथ, राम, कुश आदि उन्तीस राजाओं की जीवन-घटनाओं और उनके एक हजार साल के इतिहास को क्रमबद्ध रूप से सजाया गया है तथा यत्र-तत्र बिखरी हुई घटनाओं और कथाओं को जोड़कर एक अविरल प्रवाह वाला महाकाव्य बनाया गया है। रघुवंश में सभी प्रधान रसों का समावेश हुआ है।

वशिष्ठ तथा वाल्मीकि ऋषियों के आश्रमों के वर्णन में शान्त रस का, अज तथा राम के युद्धों के वर्णन में वीर रस का और राजा अग्निवर्ण के विलास-वर्णन में शृंगार रस का सुन्दर निष्पादन हुआ है। रघुवंश की रचना का मूल उद्देश्य महाराज रघु की वंश-परम्परा का वर्णन करने के साथ श्रीराम की जीवन-घटनाओं का सविस्तार वर्णन करना रहा है। इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु राम और उनके जीवन-वृत्त का वर्णन 10वें सर्ग से 16वें सर्ग तक सात सर्गों में किया गया है।

जबकि राम के पूर्वज दिलीप, रघु, अज और दशरथ के जीवन-वृत्तों का वर्णन प्रारम्भ के 9 सर्गों में तथा राम के आगे की वंश-परम्परा का वर्णन अन्तिम तीन सर्गों में संक्षिप्त रूप से किया गया है। रघुवंश में रघु के पुत्र अज का इन्दुमति से विवाह, कोमल माला के गिरने से इन्दुमति की मृत्यु और अज का करुण विलाप, पुष्पक विमान द्वारा राम और सीता का रमणीय स्थलों का भ्रमण आदि प्रसंगों का अत्यन्त मनोहारी चित्रण है।

(4.) मेघदूत: मेघदूत संस्कृत साहित्य का ही नहीं अपितु विश्व-साहित्य का ऐसा दूत-काव्य है, जिसकी समता का कोई अन्य दूत-काव्य अब तक उपलब्ध नहीं हुआ है। मेघदूत में 111 पद्य हैं। इस ग्रंथ के दो खण्ड हैं- पूर्व मेघ तथा उत्तर मेघ। इस काव्य में एक यक्ष का वर्णन है जिसे अपने स्वामी कुबेर के शाप के कारण अपनी पत्नी को अलकापुरी में छोड़कर रामगिरी पर्वत पर रहना पड़ा।

पत्नी से वियोग उसके लिए असहनीय सिद्ध हुआ। उसने वर्षा ऋतु में एक मेघ को उत्तर दिशा में पर्वत की ओर जाते देखा तो मेघ से आग्रह करने लगा कि वह मेरी प्रिया तक मेरा विरह-सन्देश पहुँचा दे। पूर्व मेघ में प्रकृति के मनोरम दृश्यों तथा बरसात की मादकताओं का साहित्यिक वर्णन किया गया है। इसमें रामगिरि से अलका तक पहुँचने के लिए मार्ग भी बताया गया है।

उत्तर मेघ सौन्दर्य और प्रेम के नवीनतम, अनोखे और अभिरामतम चित्रण से परिपूर्ण है। भावाभिव्यंजना तथा प्राकृतिक सौन्दर्य वर्णन की दृष्टि से यह अत्यन्त ही सुन्दर काव्य है। कुछ विद्वानों ने इस कृति को कवि की व्यक्ति-व्यंजक अर्थात् आत्मपरक रचना माना है।

कालीदास की जितनी ख्याति कवि के रूप में है, उतनी ही ख्याति नाट्यलेखक के रूप में भी है। उन्हें भारत का शेक्सपीयर कहा जाता है। उनके द्वारा लिखित तीन नाटक विश्वविख्यात हैं-

(1.) विक्रमोर्वशीय: विक्रमोर्वशीय नाटक के नायक और नायिका पुरूरवा और उर्वशी हैं जिनका उल्लेख ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण तथा मत्स्य-पुराण में हुआ है। कालीदास ने उनकी प्रेमकथा को विक्रमोर्वशीय नामक नाटक में ढाल दिया है।

नाटक में पुरूरवा का देवलोक की अप्सरा उर्वशी से प्रेम होना, निषिद्ध वन में जाने से उर्वशी का लता बन जाना, पुरूरवा का उसके वियोग में पागल होकर इधर-उधर भटकना, संगमनीय मणि द्वारा उर्वशी का पुनः अपने असली रूप में प्रकट होना और अन्त में दोनों का पुनर्मिलन होना आदि का बड़ा मार्मिक चित्रण हुआ है।

(2.) मालविकाग्निमित्रम्: यह एक ऐतिहासिक नाटक है। इसमें पांच अंक हैं। इसमें शुंगवंशीय राजा अग्निमित्र तथा उसकी रानी इरावती की परिचारिका मालविका की प्रेम-कथा है। मालविका अपने सौन्दर्य से अग्निमित्र का हृदय जीत लेती है। रानी इरावती को जब इस बात का पता लगता है तो वह मालविका को कारावास में बन्द करवा देती है।

अन्त में यह मालूम होने पर कि मालविका भी राजकुमारी है, तब उसका अग्निमित्र से विवाह हो जाता है। नाट्य कला की दृष्टि से मालविकाग्निमित्रम् एक अत्यन्त सुन्दर रचना है तथा इसके संवाद बड़े ही आकर्षक एवं हृदय को छूने वाले हैं।

(3.) अभिज्ञानशाकुन्तलम्: कालीदास का यह नाटक संस्कृत साहित्य की उत्कृष्ट रचना है। इस नाटक की कथा-वस्तु महाभारत और पद्मपुराण के उस कथानक से ली गई है जिसमें ऋषि विश्वामित्र के तपोभंग, शकुन्तला की उत्पत्ति और दुष्यन्त से प्रेम तथा गन्धर्व-विवाह का वर्णन है। कालीदास ने इस पौराणिक कथानक को सात अंकों वाले नाटक में ढाल दिया। नाटक में हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त तथा ऋषि-पुत्री शकुन्तला के प्रेम, वियोग तथा पुनर्मिलन की कथा का वर्णन किया गया है।

प्रथम एवं द्वितीय अंक में राजा दुष्यन्त एवं शकुन्तला में एक-दूसरे के प्रति अनुराग उत्पन्न होना, तीसरे अंक में दुष्यन्त तथा शकुन्तला का समागम और फिर गान्धर्व विवाह होना, चतुर्थ अंक में ऋषि कण्व द्वारा शकुन्तला को पति-गृह के लिए विदा करना, पंचम अंक में ऋषि दुर्वासा के शाप के कारण दुष्यन्त का शकुन्तला को न पहचानना तथा शकुन्तला का अपनी माता मेनका के साथ मारीच ऋषि के आश्रम में जाकर रहना, छठे अंक में अंगूठी के मिलने पर दुष्यन्त को शकुन्तला की याद आना और दुःखी होना, सातवें अंक में स्वर्ग से लौटते समय दुष्यन्त का मारीच ऋषि के आश्रम में अपने पुत्र सर्वदमन (भरत) तथा शकुन्तला से मिलना आदि प्रसंगों का वर्णन किया गया है।

नाटक के संवाद रोचक और भाषा पात्रों के अनुरूप है। नाटक में शृंगार और करुणा रस का सुन्दर निष्पादन हुआ है। शकुन्तला के हृदय में दुष्यन्त के प्रति पे्रम, दोनों के मिलन और गान्धर्व विवाह में शृंगार रस का सुन्दर निष्पादन हुआ है और ऋषि कण्व द्वारा शकुन्तला को पतिगृह के लिए विदा करने के अवसर पर करुण रस का निष्पादन हुआ है। पांचवे अंक में राजा दुष्यन्त द्वारा अपमानित होकर रोती हुई शकुन्तला के गमन का दृश्य भी बड़ा करुणाजनक है।

कालीदास के साहित्य की विशेषताएं

पुराणों में जिस धार्मिक और सांस्कृतिक समन्वय का परिपाक हुआ उसने साहित्य में लालित्य परम्परा को जन्म दिया। महाकवि कालीदास ने साहित्य में लालित्य को ऊँचाई प्रदान की। कालीदास द्वारा प्रस्तुत मर्यादित व्यवस्था और सन्तुलित जीवन के आदर्श ने, भारतीय धर्म और संस्कृति को बल प्रदान किया। उनके साहित्य की अनेक विशेषताएं हैं-

(1.) भाषा और छन्द योजना: कालीदास के साहित्य में भाषा की परिपक्वता और अद्भुत छन्द योजना के दर्शन होते हैं। कहीं भी अनावश्यक या अनुपयुक्त शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया है। उनकी शैली और लेखन प्रवाह अत्यन्त रोचक है। किसी विषय के दीर्घ वर्णन में भी शिथिलता अथवा बोरियत नहीं पाई जाती।

भाषा का माधुर्य, उसकी सुकोमलता, सुन्दर वाक्य-विन्यास और भावनुकूल शब्द-चयन उनके साहित्य की प्रमुख विशेषताएं हैं। महाकवि कालीदास छन्द रचना में सिद्धहस्त थे। उन्होंने अपनी रचनाओं में घटना एवं भावों के अनुकूल ही छन्दों का प्रयोग किया। छन्द योजना का उन्होंने इतना अधिक ध्यान रखा है कि जहाँ कहीं रस और भाव में परिवर्तन होता है, वहीं उसी के अनुरूप छन्द भी बदल जाते हैं।

(2.) विषयों में भी सरसता: कालीदास ने गंभीर, दार्शनिक एवं शुष्क समझे जाने वाले विषयों में भी काव्य प्रतिभा के बल से सरसता एवं रोचकता का सृजन किया है। कालीदास ने वेद, पुराण, इतिहास, दर्शन ग्रंथों से अपने विषयों एवं नायक-नायिकाओं का चुनाव किया और उन्हें रोचक रचनाओं में ढाल दिया। कालीदास ने ठूँठ वृक्षों और निर्जन खण्डहरों में भी सौन्दर्य का सृजन किया। ऋतु-संहार में ग्रीष्म के तपते हुए दिनों में ठूँठ वृक्षों और जंगली झड़बेरियों में कालीदास की कलम ने सौन्दर्य की सृष्टि की है।

(3.) रूपक एवं उपमाओं का प्रयोग: कालीदास का साहित्य ना-ना प्रकार की उपमाओं एवं रूपकांे से समृद्ध है जो पाठक को आनन्द देता है। उनकी उपमाएं सजीव एवं चित्रात्मक हैं जिनके बिना छन्द सौन्दर्य-विहीन एवं नीरस हो जाते हैं। कालीदास ने गंगा की लहरें, चन्द्रमा की शीतल चांदनी, तारों की जगमगाहट, सूर्य का ताप, हिरण के चचंल नेत्र, खिलते हुए कमल का सौन्दर्य, कोयल की मदभरी कूक, पपीहे की पुकार, मयूर का नृत्य, हंसों की किल्लोल आदि उपमाओं से अपनी रचनाओं को सजीव बनाया है।

(4.) प्रकृति के साथ तादात्मय: कालीदास का साहित्य प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करता हुआ चलता है। अभिज्ञान शाकुन्तलम् के प्रथम अंक में चचंल हिरणों की क्रीड़ाएँ, भौरों की रागमयी गुजाँर, माधवी और केतकी की मादक सुगन्ध, शीतल छाया प्रदान करने वाले अशोक और कदम्ब के वृक्ष कथानक का सजीव वातावरण तैयार करते हैं।

अभिज्ञान शाकुन्तलम् के चैथे अंक में जब ऋषि कण्व शकुन्तला को पति-गृह के लिए विदा करते हैं तो आश्रमवासियों के साथ वृक्ष एवं लताएं भी दुःखी होते हैं। पति-गृह को जाने के लिए उद्यत शकुन्तला को वृक्षों ने अनेक उपहार दिए परन्तु शकुन्तला के विछोह को वे सहन नहीं कर सके। मृगियों ने तृण खाना छोड़ दिया है, मोरों ने नाचना छोड़ दिया है और लताएं पत्तों के रूप में आंसू बहा रही हैं। शकुंतला द्वारा पालित मृग-शिशु भी शकुन्तला से लिपट जाता है।

कालीदास ने जिस सूक्ष्मता के साथ प्रकृति का मानवीकरण किया है, वह भविष्य के कवियों के लिए अनुकरणीय बन गया। रघुवंश में महाकवि कहते हैं- ‘मृग सीता के दुःख में मुँह से घास गिरा देते हैं, मोर नाचना छोड़ देते हैं, वृक्षों से पुष्प गिर पड़ते हैं। सीता के रोने पर सारा वन रो रहा है।’ मेघदूत में भी कवि ने मानव और प्रकृति के बीच संवेदना के भाव प्रदर्शित किए हैं। प्रकृति के साथ मानव का ऐसा तादाम्य केवल कालीदास के साहित्य में ही देखने को मिलता है।

(5.) मानवीय भावनाओं का चित्रण: कालीदास की रचनाओं में मानव-हृदय की कोमल भावनाओं एवं विचारों का अत्यन्त सुन्दर वर्णन हुआ है। महाकवि ने मानव जीवन के ऐसे गुह्यतम रहस्यों का भी सजीव चित्रण किया है, जिन पर साधारण व्यक्ति की दृष्टि ही नहीं जाती। कालीदास ने मानव-हृदय की भावनाओं को इतने सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है कि सहृदय पाठक उनकी रचना को पढ़कर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकता।

जब आश्रम में दुष्यन्त और शकुन्तला एक-दूसरे को देखते हैं तो दोनों के हृदय में प्रेम की तरंगें हिलोर लेती हैं। दुष्यन्त संकेतों के माध्यम से अपना प्रेम प्रकट करता है किंतु शकुन्तला नारी-सुलभ लज्जा के कारण, नयन झुकाये और मौन रहती है। महाकवि ने नारी मन के सुकोमल भावों का अत्यन्त सुन्दर चित्रण किया है।

शकुन्तला को विदा करते हुए समस्त संसार से विमुख होकर निर्जन आश्रम में रहते हुए वीतरागी कण्व की पीड़ा के वर्णन में कालीदास ने कण्व ऋषि के हृदय का एक-एक कोना छानकर उनकी व्यथा का वर्णन किया है। ‘रघुवंश’ में इन्दुमति के स्वयंवर के पश्चात् विवाहोत्सव के वर्णन में भी कालीदास ने प्रेम-भावनाओं का ऐसा ही चित्रण किया है, जिसमें लज्जा की मर्यादा और प्रेम की उच्छृंखलता के बीच एक द्वंद्व दिखाई देता है।

(6.) सौन्दर्य वर्णन: कालीदास ने अपनी रचनाओं में प्रकृति और नारी के सौन्दर्य का हृदयग्राही वर्णन किया है। कुमार सम्भव में हिमालय पर्वत की शोभा-वर्णन, रघुवंश में वशिष्ठ ऋषि का तपोवन तथा त्रिवेणी के सौन्दर्य का वर्णन तथा ऋतु-संहार में षड्ऋतुओं के सौन्दर्य का वर्णन अत्यन्त मनोहारी है।

मेघदूत भी प्राकृतिक दृश्यों के चित्रण से भरा पड़ा है। मालिनी की रेती में खेलते हुए हंस-युगल, पर्वत की तलहटी मे मृग के सींग से आंख खुजलाती हुई मृगी और वृक्षों की शाखाओं पर सूखते हुए ऋषियों के वल्कलों से प्रकृति का सौन्दर्य मानो मुंह से बोल उठता है।

प्रकृति-सौन्दर्य के साथ-साथ कालीदास का नारी-सौन्दर्य वर्णन भी मनमोहक है। महाकवि ने कुमार-सम्भव में पार्वती के सौन्दर्य का नख-शिख वर्णन किया है। इसी प्रकार अभिज्ञान शाकुन्तलम् में शकुन्तला के यौवन और सौन्दर्य का वर्णन हुआ है। कवि कहता है कि शकुन्तला को बनाने से पहले ब्रह्मा ने उसे चित्त में परिकल्पित किया होगा।

मेघदूत में यक्ष, मेघ से अपनी पत्नी के सौन्दर्य का वर्णन करता है। कवि ने नारी के बाह्य सौन्दर्य को प्रधानता न देकर उसके शुभ-गुणों के सौन्दर्य को प्रधानता दी है। अतः कालीदास ने सौन्दर्य के साथ-साथ मर्यादा का भी पालन किया है।

इस प्रकार कालीदास की रचनाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि कालीदास न केवल अपने समय के, न केवल संस्कृत साहित्य के अपितु सम्पूर्ण विश्व-साहित्य के कालजयी कवि एवं नाटककार थे।

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