Thursday, November 21, 2024
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अध्याय – 14 – श्रीमद्भगवत्गीता का धर्म-दर्शन (अ)

बौद्ध धर्म के प्रतिकार के लिए ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने भगवद्गीता को एक अस्त्र के रूप में प्रयोग किया।   

– डॉ. भीमराव अम्बेडकर

महाभारत नामक महाकाव्य में कौरव-पाण्डव युद्ध की मूल कथा के साथ-साथ अध्यात्म-रामायण, विष्णु-सहस्रनाम, अनुगीता, श्रीमद्भगवत्गीता और हरिवंश-पुराण आदि ग्रंथ भी समाहित हैं। महाभारत की कथा के आधार पर भारतीय जन मानस में यह धारणा प्रचलित है कि भगवद्गीता, भगवान श्रीकृष्ण के मुख से प्रकट हुई। भगवान ने गीता का उपदेश अपने शिष्य अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में दिया।

महाभारत के भीष्मपर्व में 23 से 40वें अध्याय तक गीता के अट्ठारह अध्याय वर्णित हैं। साहित्यिक एवं पुरातात्विक स्रोतों के आधार पर भारत में मान्यता है कि महभारत का युद्ध ईस्वी पूर्व 3102 में अर्थात् आज से लगभग 5120 वर्ष पूर्व हुआ। अतः भगवान श्रीकृष्ण द्वारा कुरुक्षेत्र में गीता का उपदेश देने की घटना उसी समय हुई होगी।

श्रीमद्भगवत्गीता का रचनाकाल

आधुनिक भाषाशास्त्री, इतिहासकार, दर्शनत्रशास्त्री तथा अन्य क्षेत्रों के विद्वान महाभारत युद्ध के काल को महाभारत ग्रंथ का रचना काल नहीं मानते। उनके अनुसार ग्रंथ की रचना, युद्ध के बहुत बाद में हुई। महाभारत नामक ग्रंथ की रचना का मूल समय ई.पू. चौथी शताब्दी माना जाता है। इसका वर्तमान स्वरूप चौथी शताब्दी ईस्वी में सामने आया। अतः गीता भी उसी काल की अथवा उसके बाद के किसी काल की रचना होनी चाहिए।

बाली द्वीप से गीता की एक अत्यंत प्राचीन पाण्डुलिपि प्राप्त हुई है जिसमें केवल अस्सी श्लोक ही हैं। बहुत से विद्वान इसी को गीता की मूल प्रति मानते हैं जिसे बाद में 700 श्लोकों में बदल दिया गया। भारतीय मुख्य भूमि और बाली द्वीप के बीच आर्यों एवं द्रविड़ों का आना-जाना रामायण काल एवं उससे भी पहले से है। अतः बाली में मिली गीता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

आधुनिक काल में प्राप्त श्रीमद्भगवत्गीता में चार मनुओं का उल्लेख है-

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवे अब्रवीत्। (4, 1)

महर्षयरू सप्त पूर्वे चत्वारो मनुस्तथा। (10, 6)

बाद में मनुओं की संख्या बढ़कर 14 हो गई। कुछ पुराणों में 28 मनुओं की मान्यता भी है। अतः यह कहा जा सकता है कि गीता का लेखन पौराणिक काल से पहले उस समय हुआ जब देश में चार मनुओं को ही मान्यता थी। यह काल उपनिषदों का काल है। पुराण उस समय भविष्य के गर्भ में थे। इसीलिए गीता पुराण नहीं है, उपनिषद है।

गीता में उपलब्ध सामग्री पर ध्यान देने से ज्ञात होता है कि वर्तमान गीता में  ब्रह्मसूत्र, तीन वेद तथा वेदांत का उल्लेख है। सांख्य दर्शन तथा योग का विचार भी गीता में अपने चरम पर है। गीता में अहिंसा, शील, यज्ञकर्म, पीपल की श्रेष्ठता, कुबेर यक्ष आदि की पूजा का उल्लेख किया गया है। ऐसे ही प्रमाणों के आधार पर गीता की रचना के काल का अनुमान लगाया जा सकता है। गीता में अवतारवाद को पूरी तरह स्थापित किया गया है और श्रेष्ठ कर्म को भी योग बताया गया है।

आधुनिक भाषाशास्त्री, इतिहासकार तथा दर्शनशास्त्री यह सिद्ध करने में सफल रहे हैं कि मूल रूप में भगवद्गीता, महाभारत का हिस्सा नहीं थी, यह गुप्त शासकों के काल में प्रक्षेपक के रूप में महभारत में जोड़ी गई। इस घटना का उल्लेख पांचवी शताब्दी ईस्वी में गुप्त शासकों के समय भारत आए फाह्यान ने किया है। वह लिखता है- ‘भाइयों के बीच झगड़े को लेकर लिखे गए एक बड़े ग्रंथ में उपदेशात्मक वचनों को जोड़ने को लेकर उन दिनों देशवासी चर्चा करते थे।’

गीता के काल पर विशद् शोध करने वाले प्रोफसर दामोदर धर्मानंद कोसंबी ने माना है कि गीता पहले अलग ग्रंथ थी, गुप्तकाल के आसपास यह महाभारत में सन्निवेशित हुई। इस कथन से यह सिद्ध होता है कि गुप्तकाल में गीता न केवल मौजूद थी अपितु महाभारत का हिस्सा बन गई थी। इससे यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि गीता के 80 श्लोक, महाभारत में जुड़ने से पहले ही 700 श्लोकों में बदले गए होंगे।

आधुनिक शोधों के आधार पर माना गया है कि भगवद्गीता की रचना ई.पू. पांचवी शताब्दी में हुई। अर्थात् मौर्य काल से भी सौ साल पहले। बाद में इसके मूल पाठ में अनेक हेर-फेर होते रहे। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् के अनुसार गीता की मूल रचना ई.पू.200 में अर्थात् शुंगकाल में हुई थी और इसका वर्तमान स्वरूप ईसा की दूसरी शताब्दी में किसी वेदांती द्वारा तैयार किया गया था।

गीता का प्राचीन स्वरूप

गुप्तकाल से पहले भारत में एक भी ग्रंथ ऐसा नहीं मिला है जिसमें भगवद्गीता का उल्लेख किया गया हो किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि गीता इससे पहले अस्तित्व में नहीं थी। वह किसी स्वतंत्र ग्रंथ की तरह दर्शनशास्त्र का एक ग्रंथ थी। उसे भगवान की वाणी के रूप में मान्यता नहीं मिली थी और उस काल की गीता का दर्शन भी आज की गीता से भिन्न था।

होपकिन्स का विचार है कि गीता का अब जो कृष्ण-प्रधान स्वरूप मिलता है, वह पहले कोई पुरानी विष्णु-प्रधान कविता थी और उससे भी पहले वह कोई निस्सम्प्रदाय रचना थी। संभवतः विलम्ब से लिखा गया कोई उपनिषद्।

पाश्चात्य विद्वान गर्बे के अनुसार भगवद्गीता पहले, सांख्य-योग सम्बन्धी एक ग्रंथ था जिसमें बाद में कृष्ण-वासुदेव की पूजा पद्धति आ मिली और ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दी में कृष्ण को विष्णु का रूप मानकर, इसका मेल, वैदिक परम्परा के साथ बिठा दिया गया। भारत में गर्बे का सिद्धांत सामान्यतः अस्वीकार किया जाता है।

हाल्ट्ज्मन गीता को एक सर्वेश्वरवादी कविता का बाद में विष्णु-प्रधान बनाया गया स्वरूप मानते हैं। कीथ का विश्वास है कि मूलतः गीता, श्वेताश्वतर के ढंग की एक उपनिषद् थी परंतु बाद में उसे कृष्णपूजा के अनुकूल ढाल दिया गया। बार्नेट का विचार है कि गीता के लेखक के मन में परम्परा की विभिन्न धाराएं गड्डमड्ड हो गईं।

फर्कुहार लिखता है कि यह एक पुरानी पद्य-उपनिषद् है जो संभवतः श्वेताश्वतर के बाद लिखी गई है और जिसे किसी कवि ने कृष्णवाद का समर्थन करने के लिए ईसा के बाद के किसी सन् में भगवद्गीता के वर्तमान स्वरूप में ढाल दिया है।

रूडोल्फ ओटो का कथन है कि मूल गीता, किसी महाकाव्य का एक शानदार खण्ड थी और उसमें किसी प्रकार का कोई सैद्धांतिक साहित्य नहीं था। ओटो का विश्वास है कि सैद्धांतिक अंश प्रक्षिप्त है। इस विषय में उसका जैकोबी से मतैक्य है, जिसका विचार है कि विद्वानों ने मूल छोटे से केन्द्र-बिन्दु को विस्तृत करके वर्तमान रूप दे दिया है।

इन विभिन्न मतों का कारण यह तथ्य प्रतीत होता है कि गीता में दार्शनिक और धार्मिक विचारों की अनेक धाराएं अनेक ढंगों से घुमा-फिरा कर एक जगह मिलाई गई हैं। पश्चिमी दार्शनिक सुकरात की मृत्यु ईसा से 399 साल पहले हुई। उनके विचारों में गीता के बहुत से सिद्धांतों का समावेश है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि उस काल में गीता का दर्शन धरती के अन्य हिस्सों में भी फैल चुका था।

पुराने आचार्यों ने भगवद्गीता को, भक्त को सुनाई गई देववाणी की बजाए एक दार्शनिक विमर्श के धरातल पर ही देखा है। बहुत से भारतीय मानते हैं कि भारत में श्रीकृष्ण के जन्म से बहुत पहले से बहुत से उपनिषद मौजूद थे।

भगवान श्री कृष्ण ने उन उपनिषदों के श्रेष्ठ विचारों के सार को गीता के रूप में उच्चारित किया। अतः यह कहा जा सकता है कि गीता के विचार किसी एक समय में प्रकट नहीं हुए। ये सैंकड़ों वर्षों के चिंतन का परिणाम हैं जो ईसा से लगभग पांच सौ साल पहले ठोस रूप ले चुके थे। बाली द्वीप से मिली गीता के 80 श्लोकों को गीता का एक प्रारम्भिक रूप माना जाना चाहिए।

भगवद्गीता का वास्तविक लेखक

भारतीय जनमानस इस बात को मानता है कि भगवद्गीता मूलतः भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सखा अर्जुन को कुरुक्षेत्र के युद्ध से पहले, उपदेश के रूप में कही। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गीता का उपदेश देने से पहले, अर्जुन से कहते हैं- ‘तुझसे पहले मैं गीता का पावन ज्ञान सूर्यदेव को सुना चुका हूँ।’

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्ण ने लिखा है कि जिस प्रकार हमें भारत के प्रारम्भिक साहित्य की लगभग सभी पुस्तकों के लखकों के नाम ज्ञात नहीं हैं, उसी प्रकार हमें गीता के रचयिता का नाम भी ज्ञात नहीं है। सर्वपल्ली राधाकृष्ण के अनुसार, गीता की रचना का श्रेय, भगवान वेदव्यास को दिया जाता है जो महाभारत के पौराणिक संकलनकर्ता हैं।

आधुनिक काल के अनेक विद्वानों का मानना है कि युद्ध क्षेत्र में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को 700 श्लोक बोलकर सुनाना संभव नहीं हुआ होगा। उन्होंने कुछ महत्वूपर्ण बातें कही होंगी जिन्हें बाद में किसी लेखक ने एक विशाल रचना के रूप में विस्तार से लिख दिया होगा।

कृष्ण का उद्देश्य, मुक्ति का कोई लोकोत्तर उपाय प्रस्तुत करने का नहीं था, अपितु अर्जुन को उस भगवान की सर्वशक्तिशाली इच्छा को पूरा करने की विशेष सेवा के लिए तैयार करना था जो युद्धों के भाग्य का निर्णय करता है।

चौथी शताब्दी ईस्वी के गुप्तकालीन कवि कालीदास के ग्रंथों रघुवंश एवं कुमारसंभव में गीता का उल्लेख हुआ है। सातवीं शताब्दी के हर्षकालीन कवि बाणभट्ट के ग्रंथ कादंबरी में भी गीता का उल्लेख मिलता है।

पांचवी शताब्दी ईस्वी में गुप्तों के शासन काल में चीनी-यात्री फाह्यान भारत आया। उसने लिखा है- ‘भाइयों के बीच झगड़े को लेकर लिखे गए एक बड़े ग्रंथ में उपदेशात्मक वचनों को जोड़ने को लेकर उन दिनों भारतवासी चर्चा किया करते थे।’

अर्थात् फाह्यान यह कहता है कि उसके भारत में आने से कुछ समय पहले महाभारत में गीता का समावेश किया गया था। इससे पहले ‘गीता’ एक स्वतंत्र ग्रंथ था। यह बात फाह्यान को किसी भारतीय ने बताई होगी।

सातवीं शताब्दी में भारत की यात्रा पर आए चीनी यात्री-यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृत्तांत में एक ऐसी कथा का उल्लेख किया है जो गीता के प्रसंग से मिलती-जुलती है। गीता के विधिवत् और नियमित अध्ययन एवं टीका लिखने का काम आदि जगद्गुरु शंकराचार्य से प्रारंभ होता है। शंकराचार्य इस ग्रंथ के पहले टीकाकार माने जाते हैं।

प्रोफेसर दामोदर धर्मानंद कोसंबी ने माना है कि गीता, गुप्तकाल के आसपास ही महाभारत में सन्निवेशित हुई। प्रोफेसर मेघनाद देसाई मानते हैं कि आदि शंकराचार्य के पूर्व, भारतीय ग्रंथों में गीता का उल्लेख बहुत कम हुआ है। आदि शंकराचार्य का जन्म ई.788 में माना जाता है। अर्थात् आठवीं शताब्दी के बाद ही भारत के साहित्य में गीता का उल्लेख होने लगा।

 प्रो. देसाई विभिन्न स्रोतों का हवाला देते हुए कहते हैं कि गीता के लिखने वाले कम से कम तीन लेखक थे, जो तीन अलग-अलग समयों में हुए। वे यह भी मानते हैं कि गीता अलग-अलग कालखंडों में अलग-अलग श्रोताओं को संबोधित थी। प्रो. देसाई के अनुसार प्रथम लेखक के श्रोता- पंडित, मुनि, योगी, तत्वदर्शी इत्यादि थे। दूसरे लेखक के श्रोता- चुने हुए यति, योगी आदि थे, जबकि तीसरे लेखक के श्रोता आमजन थे।

डॉ. देसाई इस विवेचना में वे डॉ. गजानन खेर से काफी सहायता लेते हैं। खेर ने मराठी में ‘मूल गीता की खोज’ नामक शोध ग्रंथ लिखा था। प्रो. देसाई का मानना है कि गीता के तीसरे लेखक बादरायण थे जिन्होंने ब्रह्मसूत्र की रचना की थी। वे इन दोनों ग्रंथों में बहुत सी समानताएं पाते हैं।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने गीता पर काफी विस्तार से लिखा है। उनकी मान्यता है कि बौद्ध धर्म के प्रतिकार के लिए ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने भगवद्गीता को एक अस्त्र के रूप में प्रयोग किया।

स्वामी विवेकानंद ने लिखा है- ‘गीता एक ऐसा सुंदर गुलदस्ता है, जिसमें उपनिषदों से चुन-चुनकर दार्शनिक सूक्तियों के खूबसूरत फूल सजाए गए हैं। गीता के लेखक ने अद्वैत, योग, ज्ञान, भक्ति आदि को सम्मिश्रित करने का काम किया है। उसने सभी सम्प्रदायों से सर्वश्रेष्ठ चुनाव किया और गीता की माला में पिरो दिया।’

इस प्रकार कहा जा सकता है कि गीता किसी एक लेखक की लिखी हुई नहीं है, उसे बहुत लम्बे कालखण्ड में बार-बार परिवर्द्धित करके वर्तमान स्वरूप तक लाया गया। गीता का विचार निश्चित रूप से भगवान श्रीकृष्ण से पहले भी मौजूद था। इसीलिए वैष्णवीय तन्त्रसार में कहा गया है-

सर्वोपनिषदो गावो, दोग्धा गोपाल नंदनः

पार्थो वत्स सुधीर्भोक्ता, दुग्धम् गीतामृतम् महत्।

अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण ने समस्त उपनिषदों रूपी गायों को दुह कर गीतामृत रूपी दुग्ध प्राप्त किया तथा पृथा के पुत्र अर्जुन ने श्रद्धापूर्वक उसका सेवन किया।

गीता की उपनिषदों से समानता

गीता और उपनिषदों में शब्दों और विचारों की पर्याप्त समानता पाई जाती है। कठोपनिषद् का निम्नलिखित श्लोक गीता के द्वितीय अध्याय के बीसवें श्लोक से लगभग शब्दशः उद्धृत किया गया है-

न जायते भ्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चित्र बभूव कश्चित्।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

(कठोपनिषद्, 1.2.18)

इसी प्रकार कठोपनिषद के निम्नलिखित श्लोक का गीता के द्वितीय अध्याय के उन्नीसवें श्लोक से तादाम्य है-

हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम्।

उभौ तौ न विजानोतो नायं हन्ति न हन्यते।।

(कठोपनिषद्, 1.2.19)

भगवत्गीता के द्वितीय अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में कठोपनिषद के निम्नलिखित श्लोक से भाव ग्रहण किया गया है-

श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यतः श्रृण्वन्तोऽपि बहवो यन्न विद्युः।

आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः।।

(कठोपनिषद्, 1.2.7)

भगवत्गीता के आठवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में कठोपनिषद का निम्नलिखित श्लोक लगभग शब्दशः उद्धृत किया गया है-

सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वयन्ति।

यदिच्छतो ब्रह्मचर्य चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्।

(कठोपनिषद्, 1.2.15)

देवयान और पितृयान मार्गों का विचार सर्वप्रथम वेदों में आया था। इस विचार को उपनिषदों ने ग्रहण किया और बाद में गीता ने भी ग्रहण कर लिया। गीता के आठवें अध्याय के चौबीसवें एवं पच्चीसवें श्लोक में इसका वर्णन है-

कुर्वन्नेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।

एवं त्ययि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।

(ईशावास्योपनिषद्, 2)

गीता के ग्यारहवें अध्याय का विषय ‘विश्वरूप दर्शन’ मुण्डकोपनिषद् के निम्नलिखित श्लोक से प्रेरित है-

अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्रसूर्यो दिशः श्रोत्रे, वाग् विवृताश्च वेदाः।

वायुः प्राणो, हृदय विश्वमस्य पदभ्यां ह्येष सर्वभूतान्तरात्मा।।

(मुण्डकोपनिषद्, 2.1.4.)

गीता के तृतीय अध्याय का बयालीसवां श्लोक कठोपनिषद के निम्नलिखित श्लोक के दर्शन से साम्य रखता है-

इन्द्रियेभ्यः पराहह्यार्था अर्थेभ्यश्चः परं मनः।

मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः।

(कठोपनिषद्, 1.3,10-11)

गीता ने श्वेताश्वतरोपनिषद् के ईश्वरवाद और भक्ति तथा उपसना के महत्व को भी ग्रहण किया है। कठोपनिषद् में जिस अश्वत्थ वृक्ष का वर्णन किया गया है ठीक वैसा ही गीता के पन्द्रहवें अध्याय में भी किया गया है परन्तु जहां कठोपनिषद् ने अश्वत्थ वृक्ष को ‘ब्रह्म’ माना है और ‘सद्’ मानने के कारण उसका नाश असम्भव माना है वहीं गीता ने उसको ‘संसार’ और ‘असद्’ माना है और इसलिए उसको उखाड़ फैंकने का उपदेश दिया है।

अश्वत्थ शब्द का प्रयोग संसार के लिए ही उचित बैठता है क्योंकि अश्वत्थ का शाब्दिक अर्थ है- जो कल तक नहीं ठहरता, अर्थात् नाशवान्। यहाँ यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि वेदों एवं उपनिषदों से लिए गए संदर्भों की गीता में पुनरावृत्ति मात्र नहीं की गई है अपितु उन दार्शनिक सिद्धांतों का आगे विकास करने की दृष्टि से उन्हें ग्रहण किया गया है। उपनिषद् शास्त्रार्थ की तरह लिखे गए हैं जबकि गीता व्याख्यान की तरह है।

उपनिषदों में ज्ञान, कर्म और भक्ति तीनों मार्गों का विवरण होने पर भी ज्ञान पर अधिक जोर दिया गया है, गीता उपनिषदों से अधिक व्यावहारिक और समन्वयवादी है। गीता में ‘कर्म’ और ‘भक्ति’ पर विशेष बल दिया गया है तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय किया गया है। डॉ. राधाकृष्णन् के अनुसार गीता में परस्पर विरोधी तत्वों का समवन्य करके उन्हें पूर्णता दी गई है। स्वयं वेदव्यासजी ने गीता के अंत में कहा है-

गीता सुगीता कर्त्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरै।

यां स्वयं पद्मानाभस्य मुखपद्माद्विनिसृता।।

अर्थात् गीता को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भाव सहित अन्तःकरण में धारण कर लेना मुख्य कर्त्तव्य है। जो कि स्वयं श्री पद्मनाभ भगवान् विष्णु के मुखारविन्द से निकली हुई है। फिर अन्य शास्त्रों से क्या प्रयोजन है! विलियम वॉन हम्बोल्ट ने लिखा है- ‘गीता किसी ज्ञात भाषा में उपस्थित गीतों में सम्भवतः सर्वाधिक सुन्दर और एकमात्र दार्शनिक गीत है।’

क्या गीता में बहुत से ग्रंथों के सिद्धांतों का मेल है ?

भारतीय चिंतन परम्परा अनेक दार्शनिक मतों का उदय हुआ जिनमें परस्पर विरोधी विचार प्रकट किए गए हैं। गीता के लेखक ने इन विरोधी एवं असंगत दिखाई पड़ने वाले तत्वों को मिलकार एक क्रमबद्ध सूत्र में पिरो दिया है जिन्हें स्वीकार करके, पाठक सच्चे आत्मिक जीवन की ओर बढ़ सकता है।

गीता पर भाष्य एवं टीकाएँ

संस्कृत साहित्य परम्परा में उन ग्रन्थों को ‘भाष्य’ कहते हैं जो दूसरे ग्रन्थों के अर्थ की वृहद व्याख्या या टीका प्रस्तुत करते हैं। भारतीय दार्शनिक परंपरा में किसी भी नये दर्शन को मान्यता पाने के लिए उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र तथा गीता पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करना पड़ता था अर्थात् उनका भाष्य उनकी टीकाएँ लिखनी होती थीं। इस कारण गीता पर अनेक दार्शनिकों एवं धर्माचार्यों ने टीकाएँ लिखीं। संप्रदायों के अनुसार उन टीकाओं की संक्षिप्त सूची इस प्रकार है-

(1.) अद्वैत सम्पद्राय के आचार्यों द्वारा गीता की टीकाएँ: शंकराचार्य कृत शांकराभाष्य,  श्रीधर कृत सुबोधिनी, मधुसूदन सरस्वती कृत गूढ़ार्थ दीपिका।

(2.) विशिष्टाद्वैत सम्पद्राय के आचार्यों द्वारा गीता की टीकाएँ : यामुनाचार्य कृत गीता अर्थसंग्रह, जिस पर वेदांत देशिक कृत गीतार्थ-संग्रह रक्षा टीका है। रामानुजाचार्य कृत गीताभाष्य, जिस पर वेदांत देशिक कृत तात्पर्य चंद्रिका टीका है।

(3.) द्वैत सम्पद्राय के आचार्यों द्वारा गीता की टीकाएँ : मध्वाचार्य कृत गीताभाष्य, जिस पर जयतीर्थकृत प्रमेय दीपिका टीका है, मध्वाचार्य कृत गीता-तात्पर्य निर्णय।

(4.) शुद्धाद्वैत सम्पद्राय के आचार्यों द्वारा गीता की टीकाएँ : वल्लभाचार्य कृत तत्व दीपिका, जिस पर पुरुषोत्तम कृत अमृत तरंगिणी टीका है।

(5.) कश्मीरी लेखकों द्वारा गीता की टीकाएँ: अभिनव गुप्त कृत गीतार्थ संग्रह। आनंदवर्धन कृत ज्ञानकर्मसमुच्चय।

आधुनिक काल के लेखकों द्वारा गीता की टीकाएं –

भावार्थ दीपिका                    : संत ज्ञानदेव या ज्ञानेश्वरकृत

ज्ञानेश्वरी                             : संत ज्ञानेश्वर (मराठी अनुवाद)

गीतारहस्य                                     : बालगंगाधर तिलक

Essays on Gita               : अरविन्द घोष

ईश्वरार्जुन संवाद                 : परमहंस योगानन्द

गीता तत्व विवेचनी टीका     : जयदयाल गोयन्दका

भगवदगीता का सार            : स्वामी क्रियानन्द

गीता साधक संजीवनी         : स्वामी रामसुखदास

अनासक्ति योग                    : मोहनदास गांधी

गीता-प्रवचन                      : विनोबा भावे

गीता में धर्म-दर्शन

वर्तमान समय में गीता में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। नौवीं शताब्दी ईस्वी में शंकराचार्य द्वारा रचित गीताभाष्य में भी श्लोकों की संख्या 700 बताई गई है– ‘तं धर्मं भगवता यथोपदिष्ट वेदव्यासः सर्वज्ञोभगवान् गीताख्यैः सप्तभिः श्लोकशतैः पनिबंध।’

20वीं सदी के लगभग जावा की भाषा में भीष्मपर्व का एक अनुवाद हुआ जिसमें गीता के अनेक मूल श्लोक सुरक्षित हैं। श्रीपाद कृष्ण बेल्वेलकर के अनुसार जावा के इस प्राचीन संस्करण में गीता के केवल साढ़े इक्यासी श्लोक मूल संस्कृत के हैं। उनसे भी वर्तमान पाठ का समर्थन होता है। गीता, उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र की गणना ‘प्रस्थानत्रयी’ में की जाती है।

गीता के माहात्म्य में उपनिषदों को गौ और गीता को उसका दुग्ध कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या थी, उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है। उपनिषदों की अनेक विद्याएँ गीता में हैं। जैसे, संसार के स्वरूप के सम्बन्ध में अश्वत्थ विद्या, अनादि अजन्मा ब्रह्म के विषय में अव्ययपुरुष विद्या, परा प्रकृति या जीव के विषय में अक्षरपुरुष विद्या और अपरा प्रकृति या भौतिक जगत के विषय में क्षरपुरुष विद्या। इस प्रकार वेदों का ब्रह्मवाद और उपनिषदों का अध्यात्म, दोनों ही गीता में संयोजित हैं, उसे ही ब्रह्मविद्या कहा गया है।

गीता में ब्रह्मविद्या का आशय निवृत्तिपरक ज्ञानमार्ग से है। इसे सांख्य-मत कहा जाता है जिसके साथ निवृत्ति-मार्गी जीवन-पद्धति जुड़ी हुई है किंतु गीता उपनिषदों के युग से आगे बढ़कर उस काल की देन है जब भारत में एक नया दर्शन जन्म ले रहा था और जो गृहस्थों के प्रवृत्ति-धर्म को निवृत्ति-मार्ग के समान फलदायी मानता था।

गीता में ‘योगशास्त्रे’ शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका अभिप्राय ‘कर्मयोग’ से है। गीता में योग की दो परिभाषाएँ बताई गई हैं। एक निवृत्ति मार्ग की सृष्टि से जिसमें ‘समत्वं योग उच्यते’ कहा गया है अर्थात् गुणों के वैषम्य में साम्यभाव रखना ही योग है। यह सांख्य सम्मत परिभाषा है।

गीता में योग की दूसरी परिभाषा ‘योगः कर्मसु कौशलम’ के रूप में दी गई है जिसका अर्थ है कि ऐसे उपाय से कर्म करना जिससे वह कर्म, बंधन का कारण न बने और कर्म करनेवाला व्यक्ति स्वयं को उसी असंग या निर्लेप स्थिति में रखे जो ज्ञानमार्गियों को मिलती है। इसी युक्ति का नाम बुद्धियोग है और यही गीता के योग का सार है।

गीता के दूसरे अध्याय में प्रयुक्त ‘तस्य प्रज्ञाप्रतिष्ठिता’ का अभिप्राय ‘निर्लेप कर्म की क्षमतावली बुद्धि’ से है। यह संन्यास द्वारा वैराग्य प्राप्त करने की स्थिति नहीं थी अपितु कर्म करते हुए प्रतिक्षण मन को वैराग्ययुक्त स्थिति में स्थिर करने की युक्ति थी। यही गीता का कर्मयोग है। गीता में अनेक स्थलों में ‘सांख्य के निवृत्ति मार्ग’ और ‘कर्म के प्रवृत्तिमार्ग’ की व्याख्या की गई है और दोनों को श्रेयस्कर बताया गया है।

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