Thursday, November 21, 2024
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37. शत्रुघ्न ने अपने पूर्वज मांधाता को मारने वाले लवणासुर का वध कर दिया!

इस धारवाहिक की 9वीं कड़ी में हमने वायुपुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, भागवत पुराण, मत्स्य पुराण, वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत आदि ग्रंथों में मिलने वाली राजा मांधाता की कथा की चर्चा की थी। राजा मांधाता त्रेता युग का पहला राजा था जो ईक्ष्वाकु कुल में उत्पन हुआ था। उसका वध लवणासुर नामक एक असुर ने भगवान शिव के दिव्य त्रिशूल की सहायता से छलपूर्वक किया था।

ईक्ष्वाकु वंशी राज कुमार श्रीराम ने राक्षसों के राजा रावण का वध करके अपने पूर्वज राजा अनरण्य की हत्या का बदला लिया था। जब राम लंका से पुनः अयोध्या लौट आए, तब राम के सबसे छोटे भाई शत्रुघ्न ने लवणासुर का वध करके अपने पूर्वज मांधाता की हत्या का बदला लिया। वाल्मीकि रामायण सहित अनेक ग्रंथों में इस कथा का वर्णन किया गया है।

इस कथा के अनुसार एक बार शत्रुघ्न ने च्यवन ऋषि से पूछा कि लवणासुर में कितना बल है तथा उसने किन-किन योद्धाओं की हत्या की है। इस पर च्यवन ऋषि ने राजकुमार शत्रुघ्न को बताया कि तुम्हारे पूर्वज राजा मांधात ने प्रतिज्ञा की कि मैं इन्द्र का आधा सिंहासन और उसका आधा राज्य प्राप्त करूंगा।

जब राजा मांधाता ने देवलोक पर आक्रमण किया तो देवराज इंद्र ने उससे कहा कि अभी तो तुम पूरी धरती के भी राजा नहीं हुए हो, अभी तो मधुवन का राजा लवणासुर तुम्हारा आदेश नहीं मानता, पहले उस पर विजय प्राप्त करो तब स्वर्ग पर आक्रमण करना।

इन्द्र को यह पता था कि लवणासुर के पास भगवान शिव का दिया हुआ एक दिव्य त्रिशूल है जिसके कारण वह अजेय है किंतु राजा मांधाता उस त्रिशूल के बारे में नहीं जानता था। इसलिए जब राजा मांधाता ने अपनी सेना को साथ लेकर लवणासुर पर आक्रमण किया तो लवाणासुर ने उसी दिव्य त्रिशूल से राजा मांधाता एवं उसकी सेना का संहार कर दिया। इस प्रकार इंद्र ने चालाकी से काम लेकर राजा मांधाता को नष्ट करवा दिया।

पूरे आलेख के लिए देखिए यह वी-ब्लॉग-

लवणासुर अत्यंत शक्तिशाली है एवं समस्त देवता उससे भयभीत रहते हैं। अतः यदि आप उसका वध कर दें तो यह देवताओं की बहुत बड़ी सहायता होगी। उसके वध से समस्त लोकों का कल्याण होगा। लवणासुर प्रतिदिन नींद से जागकर अपने भोजन हेतु मांस का संग्रह करने के लिए निकलता है। उस समय  दिव्य त्रिशूल उसके हाथ में नहीं होता। यदि आप उस समम लवणासुर पर आक्रमण करें तो आपको सफलता मिल सकती है किंतु जब वह त्रिशूल उठा लेता है तो फिर उसे कोई नहीं मार सकता।’

महर्षि च्यवन की बात सुनकर शत्रुहंता शत्रुघ्नजी ने लवणासुर का वध करने का निश्चय किया और वे यमुना नदी को पार करके मधुपुरी के द्वार पर जाकर खड़े हो गए। उस समय तक लवणासुर मांस-संग्रहण के लिए नगर से बाहर निकल कर जंगल में जा चुका था। अतः शत्रुघ्नजी वहीं खड़े रहकर उसके लौटने की प्रतीक्षा करने लगे।

मध्याह्नकाल में वह क्रूरकर्मा राक्षस हजारों प्राणियों का बोझा लिए हुए अपने नगर के द्वार पर आया। उसने इक्ष्वाकु राजकुमार शत्रुघ्नजी को अस्त्र-शस्त्र लिए हुए वहाँ खड़े देखा। उन्हें देखते ही वह राक्षस अत्यंत क्रोधित हुआ।

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लवणासुर ने कहा- ‘हे नराधम! इन छोटे से हथियारों से तू मेरा क्या बिगाड़ लेगा! मैं तेरे जैसे हजारों अस्त्र-शस्त्र धारी मनुष्यों को रोष में भरकर खा चुका हूँ। जान पड़ता है कि काल तेरे सिर पर नाच रहा है। अच्छा हुआ कि तू इस समय मुझे मिल गया क्योंकि मेरा आज का आहार पूरा नहीं हुआ है। तू स्वयं ही मेरे मुंह में आ पड़ा!’

वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि लवणासुर अपनी बात कहते हुए बार-बार हँस रहा था जबकि शत्रुघ्नजी को उसकी बातें सुनकर इतना क्रोध आ रहा था कि उनके नेत्रों से आंसू टपकने लगे।

रोष से कांपते हुए शत्रुघ्नजी ने लवणासुर से कहा- ‘दुष्ट दुर्बुद्धि मैं तेरे साथ द्वंद्वयुद्ध करना चाहता हूँ। मैं महाराज दशरथ का पुत्र और परम बुद्धिमान् राजा श्रीराम का अनुज हूँ। तू समस्त प्राणियों का शत्रु है, इसलिए मैं तेरा वध करने आया हूँ।’

इस पर लवणासुर ने कहा- ‘तेरे भाई राम ने जिस रावण की हत्या की है, वह मेरी मौसी शूर्पनखा का भाई था किंतु मैंने राम को छोड़ दिया क्योंकि वह मुझसे युद्ध करने के लिए नहीं आया था किंतु जो कोई भी मुझसे युद्ध करने के लिए आया है, या भविष्य में आएगा, उसे मैं अवश्य ही मार डालूंगा। तू दो घड़ी ठहर जा, मैं तुझे युद्ध का अवसर अवश्य दूंगा किंतु पहले मैं अपना अस्त्र तो ले आऊं!’

इस पर शत्रुघ्नजी ने कहा- ‘हे राक्षस अब तू मुझसे बच कर नहीं जा सकता! किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति को अपने सामने आए हुए शत्रु को नहीं छोड़ना चाहिए! अतः अब तू इस जीव-जगत् को अच्छी तरह देख ले, मैं तुझे तीखे बाणों द्वारा अभी यमराज के घर भेज रहा हूँ क्योंकि तू तीनों लोकों का और श्रीरघुनाथजी का भी शत्रु है।’

शत्रुघ्नजी के इतना कहते ही लवणासुर ‘खड़ा रह, खड़ा रह’ कहता हुआ हाथ पर हाथ रगड़ने लगा और दांत कटकटाने लगा। लवणासुर ने अपने हाथों में पकड़े हुए वन्यपशु धरती पर रख दिए तथा शत्रुघ्नजी पर प्रहार करने के लिए तैयार हो गया।

शत्रुघ्नजी ने कहा- ‘जैसे देवताओं ने रावण को धराशायी हुए हुए देखा था, उसी तरह सभी विद्वान् ब्राह्मण और ऋषिगण आज मेरे द्वारा मारे जा रहे दुराचारी लवणासुर को भी देख लें।’

शस्त्रहीन लवणासुर वृक्षों को उखाड़कर शत्रुघ्नजी पर फैंकने लगा। शत्रुघ्नजी ने अपनी ओर आते हुए उन वृक्षों को टुकड़ों में काट दिया। शत्रुघ्नजी ने लवणासुर पर अपने बाणों की झड़ी लगा दी किंतु लवणासुर पर उनका कोई असर नहीं हुआ। इस पर लवणासुर ने एक विशाल वृक्ष उखाड़कर शत्रुघ्नजी के सिर पर दे मारा जिससे शत्रुघ्नजी मूर्च्छित हो गए। लवणासुर ने समझा कि शत्रुघ्नजी मर गए। इस पर वह धरती पर झुककर उन पशुओं को एकत्रित करने लगा जिन्हें वह जंगल से मारकर लाया था।

दो घड़ी में ही शत्रुघ्नजी की चेतना पुनः लौट आई। उन्होंने भगवान विष्णु का तेजोमय सनातन बाण हाथ में लिया। श्री हरि विष्णु ने इस बाण का निर्माण मधु-कैटभ नामक राक्षसों का संहार करने के लिए किया था। बाण के तेज से सम्पूर्ण सृष्टि में खलबली मच गई। देवताओं ने घबराकर ब्रह्माजी की शरण ली। उन्हें लगा कि इस बाण से सम्पूर्ण सृष्टि नष्ट होने वाली है।

ब्रह्माजी देवताओं से कहा- ‘निर्भय होकर लवणासुर और शत्रुघ्नजी का युद्ध देखो।’

जब शत्रुघ्नजी ने आकाश को देवताओं से भरे हुए देखा तो उन्होंने वह दिव्य बाण अपने धनुष पर चढ़ा लिया। लवणासुर ने शत्रुघ्नजी को पुनः युद्ध के लिए तत्पर देखा तो लवणासुर अपने हाथों में पकड़े हुए पशुओं को छोड़कर पुनः युद्ध करने के लिए आया।

शत्रुघ्नजी ने धनुष की प्रत्यंचा को कान तक खींचकर बाण छोड़ दिया। वह दिव्य बाण लवणासुर का वक्षस्थल भेदकर रसातल में चला गया और वहाँ से पुनः शत्रुघ्नजी के पास आ गया।

लवणासुर धरती पर गिर गया और भगवान शिव का दिव्य त्रिशूल भगवान शिव के पास लौट गया। देवताओं, अप्सराओं, गंधर्वों, ब्राह्मणों एवं ऋषियों ने इक्ष्वाकु राजकुमार शत्रुघ्नजी की प्रशंसा की। इस प्रकार राम ने महाराज अनरण्य के हत्यारे रावण को और शत्रुघ्नजी ने महाराज मांधाता के हत्यारे लवणासुर का संहार करके अपने पूर्वजों का ऋण चुकाया।

राजा दशरथ के पुत्रों की कथा के साथ ही इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की श्रेष्ठ परम्परा अपने चरम पर पहुंच जाती है। राजा दशरथ के चारों पुत्रों के दो-दो पुत्र हुए जिनका उल्लेख पुराणों में मिलता है। उनकी कथाएं चमत्कारों एवं दिव्य शक्तियों से मुक्त हैं। फिर भी इस राजवंश के राजा अपने शील, शौर्य एवं सत्यनिष्ठा के लिए युगों तक जाने गए। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक भी भारत में कुछ राजवंश अपना सम्बन्ध रघुवंशी इक्ष्वाकुओं से बताते थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि उन राजवंशों में भी इक्ष्वाकुओं की उज्जवल परम्पराएं विद्यमान थीं तथा आज भी सम्पूर्ण हिन्दू जाति इक्ष्वाकुओं द्वारा स्थापित जीवन के उच्च मानदण्डों का अनुसरण करने का प्रयास करती है। भारत भूमि इक्ष्वाकुओं की चिरकाल तक ऋणी रहेगी।

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