Thursday, November 21, 2024
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राजा दशरथ की रानियाँ

प्राणमय, अन्नमय ओर मनोमय कोश की प्रतीक हैं राजा दशरथ की रानियाँ !

विभिन्न पुराणों में आई हुई कथाओं में वर्णित ईक्ष्वाकु वंशी राजाओं को मानव देह धारी होने के साथ-साथ प्राकृतिक शक्तियों के रूप में देखा जाता है। उदाहरण के लिए राजा सगर के साठ हजार पुत्रों की कथा, राजा धुंधुमार द्वारा धुंधु राक्षस के संहार की कथा, राजा भगीरथ द्वारा गंगाजी को धरती पर लाकर समुद्र को जल से भरने की कथा। ये सब कथाएं धरती पर होने वाली विशाल प्राकृतिक घटनाओं की ओर संकेत करती हैं।

इसी तरह ईक्ष्वाकु वंशी राजा दशरथ की तीनों रानियों को कुछ दार्शनिकों ने प्राणमय, अन्नमय और मनोमय कोश का प्रतीक सिद्ध करने का प्रयास किया है। इन प्रतीकों के विस्तार में जाने से  पहले हमें उन पांच कोषों के बारे में जानना होगा जिनके भीतर प्रत्येक प्राणी निवास करता है।

जब माया के प्रेरणा से आत्मा परमात्मा से अलग होकर शरीर धारण करती है तो उसे सबसे पहले माया द्वारा निर्मित आनंदमय कोष रूपी शरीर की प्राप्ति होती है। जब आनंदमय कोष में रहने वाला आत्मा माया के प्रभाव से कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो उसे एक नया शरीर प्राप्त होता है जिसे विज्ञानमय कोष कहते हैं।

विज्ञानमय कोष आनंदमयकोष के ऊपर लिपट जाता है। इस विज्ञानमय कोष को जब माया के प्रभाव से सुख-दुख की अनुभूति होने लगती है तो उसे एक नया शरीर प्राप्त होता है जिसे मनोमय कोष कहते हैं। यह मनोमय कोष विज्ञानमय कोष के चारों ओर लिटप जाता है।

जब माया के प्रभाव से मनोमय कोष में सुख और दुख की अनुभूतियों का विस्तार होता है तो प्राणमय कोष की रचना होती है तथा यह प्राणमय कोष मनोमय कोष के चारों ओर लिटप जाता है। जब माया की इच्छा से प्राणमय कोष को भोग करने की इच्छा होती है तो उसे एक नया शरीर प्राप्त होता है जिसे अन्नमय कोष कहते हैं। यह प्रत्येक प्राणी का सबसे बाहरी शरीर होता है जिसका निर्माण अन्न से होता है।

पूरे आलेख के लिए देखिए यह वी-ब्लॉग-

इस प्रकार हमारे बाहरी शरीर अर्थात् अन्नमय कोष के भीतर प्राणमय कोष, प्राणमय कोष के भीतर मनोमय कोष, मनोमय कोष के भीतर विज्ञानमय कोष एवं विज्ञानमय कोष के भीतर आनंदमय कोष स्थित होता है।

इस प्रकार परमात्मा के अंश के रूप में विलग हुए आत्मा पर माया का आवरण चढ़ता चला जाता है तथा वह परमात्मा को पूरी तरह भूलकर इन पांचों कोषों के माध्यम से ना-ना प्रकार के भोग विलास करने में जुटा रहता है।

जब जीवात्मा अपने समस्त बाह्याडम्बरों का विनाश करके परमात्मा में विलीन होता है तो उसके पांचों शरीरों को एक एक करके मरना पड़ता है। सबसे पहले अन्नमय कोष मरता है। उसके बाद प्राणमय कोष मरता है। उसके बाद मनोमय कोष मरता है और उसके बाद विज्ञानमय कोष मरता है और सबसे अंत में मनुष्य का सबसे सूक्ष्म शरीर अर्थात् आनंद कोष नष्ट होता है, इसके बाद आत्मा पुनः परमात्मा में मिल जाता है।

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विभिन्न दार्शनिकों द्वारा प्रस्तुत दार्शनिक विवेचनाओं के अनुसार राजा दशरथ भोग में लिप्त जीवात्मा के प्रतीक हैं। इसलिए रामचरित मानव में सुमंतजी जब राजा दशरथ को प्रणाम करते हैं तो जयजीव कहकर शीश झुकाते हैं। प्रत्येक मनुष्य की दस इन्द्रियां होती हैं- पांच ज्ञानेन्द्रियां तथा पांच कर्मेन्द्रियां। आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा को ज्ञानेन्द्रियां कहा जाता है। तथा हाथ, पैर, मुंह, गुदा और लिंग को कर्मेन्द्रिय कहा जाता है। इन दस इंद्रियों को समुच्चय को ही दशरथ कहा गया है। इन दस रथों पर सवार जीवात्मा अर्थात् दशरथ भोग विलास करता है।

दार्शनिकों के अनुसार महारानी कौसल्या दशरथ रूपी जीवात्मा की ज्ञान-शक्ति की प्रतीक हैं एवं उनका वर्ण क्षत्रिय है। वे हानि-लाभ की चिंता नहीं करती, केवल कर्त्तव्य निर्वहन ही उनका अभीष्ट है। रानी कैकेयी इच्छा-शक्ति की प्रतीक है, उसका वर्ण वैश्य है, इस कारण वह हानि-लाभ की चिंता करती है। रानी सुमित्रा राजा दशरथ रूपी जीवात्मा की की क्रिया-शक्ति का प्रतीक है, उसका वर्ण शूद्र है।

शूद्र अन्नमय कोश का, वैश्य प्राणमय कोश का और क्षत्रिय मनोमय कोश का प्रतीक है। इन तीनों कोषों के भीतर छिपकर राजा दशरथ रूपी विज्ञानमय कोष एवं आनंदमय कोष निवास करता है।

राजा दशरथ को कैकेयी सबसे अधिक प्रिय है क्योंकि प्राणमय कोश मनोमय और अन्नमय दोनों कोषों का भरण-पोषण करता है। प्राणमय कोष के बिना मनोमय कोष और अन्नमय कोष जीवित नहीं रह सकते। दशरथ रूपी विज्ञानमय कोश ऊर्ध्वमुखी होकर, शुद्ध ब्रह्म रूपी आनंदमय कोष को अर्थात् श्रीराम को सिंहासन पर आसीन करना चाहता है, कौसल्या रूपी मनोमय कोष इस कार्य में विज्ञानमय कोष की सहायता करता है तथा सुमित्रा रूपी अन्नमय कोष इस कार्य की मौन स्वीकृति देता है किन्तु प्राणमय कोश रूपी कैकेयी जिसके पास मन्थर गति से चलने वाली मन्थरा दासी रूपी बुद्धि है, इस कार्य में विघ्न उत्पन्न करती है क्योंकि कैकेयी मन के एकाङ्गी विकास को स्वीकार नहीं करती, अपितु चाहती है कि परब्रह्म रूपी राम का लाभ सारे जगत् को मिले।

प्राणमय कोष की प्रतीक रानी कैकेयी को कैकेयी नाम देना सार्थक ही है। संस्कृत साहित्य में ध्वनि के एक विशेष प्रकार को ‘केकय’ कहा जाता है। यह ध्वनि समस्त ध्वनियों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। मन में अनेक प्रकार की इच्छा रूपी ध्वनियां उत्पन्न होती हैं किंतु रानी कैकेई ने राजा राजा दशरथ रूपी विज्ञानमय कोष और कौसल्या रूपी मनोमय कोष के भीतर विशेष ध्वनि उत्पन्न की कि रामजी को अयोध्या के सिंहासन पर बैठने के स्थान पर जगत् के कल्याण के लिए वन-गमन करना चाहिए ताकि असुरों का नाश हो सके।

पुराणों में रानी कैकेयी को अश्वपति की कन्या भी कहा गया है। यहाँ अश्वपति से तात्पर्य इन्द्रिय रूपी अश्वों के स्वामी अर्थात् मन से है।

व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास को चाहने वाली शक्ति अर्थात् कैकेयी के साथ सदैव विद्यमान रहने वाली व्यक्तित्व-विकास की स्मृति को ही कथा में मन्थरा नाम दिया गया है। चूंकि यह स्मृति शिथिल रूप में विद्यमान रहती है और केवल परिस्थिति विशेष अर्थात् आत्मज्ञान के अनुचित विनियोग अर्थात् राम के राज्याभिषेक को देखकर ही प्रकट होती है। इसलिए इस शिथिलता अथवा मन्दता के कारण इसे मन्थरा कहा गया है।

भले ही कुछ दार्शनिकों ने दशरथ को दस इन्द्रियों का प्रतीक; रानियों को प्राणमय, मनोमय एवं अन्नमय कोषों का प्रतीक एवं मंथरा को बुद्धि विशेष का प्रती बनाकर यह सुंदर रूपक खड़ा कर दिया है किंतु हमारी दृष्टि में दार्शनिक आधार पर  की गई यह विवेचना भारतीय जन मानस में प्रचलित धारणा से मेल नहीं खाती। भारतीय जन मानस में राजा दशरथ एवं माता कौसल्या को श्रीराम के प्रेम का प्रतीक माना गया है जो एक क्षण के लिए भी श्रीराम को अपनी आंखों से दूर नहीं करना चाहते एवं कैकेई तथा मंथरा को दुर्बुद्धि का प्रतीक माना गया है जो रामजी को राजतिलक से वंचित करके उन्हें वन में भेजने का षड़यंत्र करती हैं। यही कारण है कि सदियों से भारत में कोई भी व्यक्ति अपनी पुत्रियों के नाम कैकेई अथवा मंथरा नहीं रखता।

हम यह भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि आत्मा के पांच कोषों में निवास करने एवं इन पांचों कोषों को त्यागकर परमपिता परमात्मा में विलीन हो जाने की अवधारणा को हम गलत नहीं ठहरा रहे। हम तो केवल इतना कह रहे हैं कि महारानी कौशल्या, सुमित्रा एवं कैकई को इन कोषों के रूप में देखने का जो दार्शनिक रूपक खड़ा किया गया है, वह उचित नहीं जान पड़ता। यह तो ऐसा ही प्रयास है जैसे किसी का नाम पर्वतसिंह रख दिया जाए और फिर कहा जाए कि उसका नाम पर्वतसिंह इसलिए रखा गया क्योंकि वह वास्तव में एक विशाल पहाड़ था।

गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी राम चरित मानस में रानी कैकेई और दासी मंथरा के कृत्य को निंदनीय ही माना है तथा उन्हें अपयश की पिटारी कहा है।

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