Friday, November 22, 2024
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अध्याय – 37 : मुगलों की जागीरदारी प्रथा

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राज्य कर्मचारियों को वेतन के बदले जो भूमि दी जाती थी उसे जागीर कहते थे। मुगलकाल से पहले भी इसी प्रकार से वेतन भुगतान की पद्धति के प्रमाण मिलते हैं परन्तु मुगलकाल में यह व्यवस्था अत्यधिक व्यापक थी।

जागीरों के प्रकार

मुगलकाल में कई प्रकार की जागीरें प्रचलन में थीं। यहाँ तक कि मुगलों के राजस्व अभिलेखों में जोधपुर, जयपुर आदि राज्यों के राजाओं को भी जागीरदार कहकर सम्बोधित किया गया है। प्रमुख जागीरों के प्रकार इस प्रकार से थे-

(1.) तनख्वाह जागीर: जब जागीर वेतन के बदले दी जाती थी तो उसे तनख्वाह जागीर कहा जाता था।

(2.) मशरूत जागीर: जब किसी पद प्राप्ति के कारण जागीर प्रदान की जाती थी तो उसे मशरूत जागीर कहा जाता था।

(3.) इनाम जागीर: 1672 ई. में मुहम्मद अमीन खाँ की गुजरात की सूबेदारी के पद पर नियुक्ति के समय पाटन और बैरम गाँव की जागीर उसके पद के साथ मिला दी गई। ऐसी जागीर जिसके लिए कोई अनुबन्ध नहीं होता था, इनाम कही जाती थी।

(4.) वतन जागीर: अकबर ने भारतीय शासकों और जमींदारों को मनसबदार नियुक्त करने की नीति अपनाई थी। उन्हें अपने अधिकार क्षेत्र के जमा (मालगुजारी) के बराबर मनसब मिलता था। इसके लिए आवश्यक था कि इस वर्ग के पास जितनी भूमि है उसकी आय का अनुमान लगाया जाये। क्योंकि इन क्षेत्रों के सही आँकड़े उपलब्ध नहीं थे, इसलिए केवल अनुमान के आधार पर इनको निश्चित कर दिया गया। यह जागीर वतन जागीर कहलाती थी।

(5.) तनख्वाह जागीर: मनदसबदार को मनसबदार के रूप में जो जागीर प्रदान की जाती थी वह तनख्वाह जागीर के नाम से सम्बोधित की जाती थी। जोधपुर के महाराजा जसवन्तसिंह को इसी आधार पर मारवाड़ वतन जागीर के रूप में और हिसार तनख्वाह जागीर के रूप में दिया गया था।

(6.) अल-तमगा जागीर: जहाँगीर ने अल-तमगा नामक नई जागीर व्यवस्था आरम्भ की। इस प्रकार की जागीर की स्वीकृति के फरमान पर बादशाह की मोहर लगाई जाती थी, जो सोने के पानी की होती थी। अल-तमगा जागीर का उद्देश्य तथा स्वरूप जहाँगीर ने स्वयं स्पष्ट किया है- ‘यह मेरी इच्छा थी कि अनेक पदाधिकारी अपनी इच्छाओं को पूर्ण होते देख सकें। मैनें बख्शियों को आदेश दिया कि यदि कोई अपनी मातृभूमि को जागीर के रूप में प्राप्त करना चाहे तो वह इसके लिए निवेदन करे जिससे कि चंगेज के नियमों के अनुसार अल-तमगा के अन्तर्गत उसकी जागीर की सम्पत्ति में परिणत कर दिया जाये जिससे कि वह जागीर तबादले की आशंका से मुक्त हो जाये।’ जहाँगीर की इच्छा थी कि यदि वह किन्हीं अधिकारियों को विशेष रूप से अनुग्रहित करना चाहे तो ऐसा करने में कोई असुविधा न हो। मुगलकाल में अल-तमगा जागीर के छुटपुट प्रमाण ही मिलते हैं।

उत्तराधिकार का नियम

मुगल शासक जागीर के सम्बन्ध में पैतृक उत्तराधिकारी को मानते थे परन्तु उसके बाद भी यह उनका अधिकार था कि वे उत्तराधिकारी को चुनें। 1679 ई. में औरंगजेब ने महाराजा जसवन्तसिंह की मृत्यु होने पर जोधपुर की वतन जागीर को खालसा घोषित कर दिया तो परम्परा के विरुद्ध होने के कारण इसका जबरदस्त विरोध हुआ।

जागीरों का प्रबंधन

जागीरदारी प्रथा से किसानों के अधिकारों पर किसी प्रकार की आँच नहीं आती थी और न ही जमींदार किसी प्रकार से इससे प्रभावित होता था। जागीर का पट्टा मिलने पर स्वयं जागीरदार का यह उत्तरदायित्व था कि वह अपनी जागीर से राजस्व एकत्रित करने का प्रबन्ध करे। बड़े-बडे़ जागीरदार इस कार्य के लिए आमिल, अमीन, कानूनगो आदि रखते थे और उन्हीं के द्वारा वे अपनी जागीर से राजस्व एकत्रित करवा लिया करते थे।

इजारेदारी: छोेटे-छोटे जागीरदारों के लिए जागीर के प्रबंधन के लिये विभिन्न कर्मचारियों की नियुक्ति करना कठिन था। इसलिये वे अपनी जागीर इजारे पर देते थे और इजारेदारों से एक निश्चित धनराशि लेते थे। जब जागीरदार की नियुक्ति ऐसे स्थान पर हो जाती थी जो उनकी जागीर से दूर होता था तब जागीर की समुचित व्यवस्था करना सम्भव नहीं होता था। तब भी जागीर इजारे पर दी जाती थी।

पायबाकी: जब कभी एक जागीरदार का निधन हो जाता था अथवा उसकी जागीर की बदली होती थी तो जागीर को तब तक के लिये पुरानी जागीर के दीवान के अधिकार में पायबाकी के रूप में रख दिया जाता था जब तक कि वह दूसरे जागीरदार को न दे दी जाती। इस पायबाकी में से राज्य के अधिकारियों को उस समय कुछ जागीर दे दी जाती थी, जब वे किसी विशेष काम के लिए नियुक्त किये गये हों। ऐसी जागीर को मशरूत जागीर के नाम से पुकारा जाता था।

जागीरदारों पर नियंत्रण

जागीरदार का स्थानांतरण

अकबर के आरम्भिक वर्षों में जागीरदार स्वयं को जागीर का स्थायी स्वामी समझ बैठे थे। अतः अकबर ने उनकी शक्ति कम करने के लिए जागीरदारों को एक जागीर से दूसरी जागीर में स्थानांतरित करने की नीति बनाई किन्तु जागीर के बदलने के कारण जमा (लगान) की राशि में कमी या अधिकता आ जाती थी। इसलिए उसने जागीर से राजस्व वसूल करने का काम सरकारी कर्मचारियों के हाथों में सौंप दिया। 1581-82 ई. में पुनः नकद वेतन देने की प्रथा भी चलाई परन्तु इसका अत्यधिक विरोध हुआ। अतः जागीर व्यवस्था को पुनः लागू कर दिया गया। इसका लाभ यह हुआ कि अब जागीरदार सतर्क हो गये।

जागीरदारों पर अंकुश

मुगल काल में जागीरदार का अपनी जागीर पर पूर्ण अधिकार नहीं होता था। बादशाह का ही उस पर नियंत्रण रहता था। कानूनगो, चौधरी तथा प्रशासन के दूसरे सहयोगी लगान सम्बन्धी नियमों को लागू करते थे तथा फौजदार जागीर में शान्ति व्यवस्था का कार्य करते थे। बादशाह से जागीर की दुर्व्यवस्था के सम्बन्ध में शिकायत की जा सकती थी और ऐसी स्थिति में जागीरदार को दण्डित भी किया जा सकता था। जागीरदार अपनी उन्नति तथा आर्थिक अस्तित्त्व के लिए बादशाह पर निर्भर रहते थे। बादशाह अधिकतर अपने सम्बन्धी या उच्च कुल के लोगों को जागीर देते थे परन्तु नीचे के वंश वालों को जागीर देने पर प्रतिबन्ध नहीं था। इसलिए जागीरदार को यह भय लगा रहता था कि यदि बादशाह ने उनके समक्ष किसी नीचे के वंश वाले को जागीरदार बना दिया तो यह उनके लिए असम्मानजनक होगा।

औरंगजेब के समय जागीर प्रथा में एक नया संकट आ गया। इस समय तक इतनी जागीरें दी गईं कि राज्य में जागीर देने के लिए भूमि शेष नहीं बची। जागीर मिलने में इतनी देर हो जाया करती थी कि यह कहा जाने लगा कि मनसब मिलने तथा उससे सम्बन्धित जागीर प्राप्त करने में एक नौजवान के बाल सफेद हो जाते थे। ऐसी स्थिति में जागीर का तबादला होना तो और भी अधिक दुःखदायी था। जागीरदार यह नहीं जानते थे कि एक बार जागीर हाथ से निकल जाने पर उन्हें दूसरी जगह जागीर प्राप्त करने में सफलता मिलेगी या नहीं। अतः वे भयभीत रहते थे।

मदद-ए-माश

इस्लामिक प्रथा के अनुसार मुगल शासक भी धार्मिक लोगों, विद्वानों, शेखों, सैयदों आदि को करमुक्त भूमि का अनुदान देते थे जिसे मदद-ए-माश कहा जाता था। अबुल फजल के अनुसार चार वर्गाें के लोगों को मदद-ए-माश भूमि के अनुदान योग्य माना गया था- (1.) पहला वर्ग उन लोगों का था जिन्होंने दुनियादारी का परित्याग कर सत्य की खोज में स्वयं को खपा दिया हो। (2.) दूसरा वर्ग धार्मिक सन्तों का था। (3.) तीसरे वर्ग में वे लोग आते थे जो किसी कारणवश शारीरिक अथवा भौतिक जीविका चलाने में असमर्थ थे। (4.) चौथे वर्ग में वे लोग थे जो कुलीन वंश के थे परन्तु किसी व्यापार अथवा व्यवसाय को करना अपनी मर्यादा के खिलाफ समझते थे।

मदद-ए-माश के प्राप्तकर्त्ताओं को यह अधिकार था कि वे अपनी भूमि किसानों को ठेके पर दे दें अथवा बेच दें अथवा दान में दे दें। अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के समय में ऐसे अनुदान को बेचने या हस्तांतरण करने का अधिकार प्राप्तकर्त्ता को था या नहीं, निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता परन्तु औरंगजेब और उसके उत्तराधिकारियों के समय में यह प्रथा मौजूद थी। मदद-ए-माश की संस्था को मुगलकालीन सामाजिक एवं कृषि व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। सामाजिक रूप से इस संस्था ने ग्रामीण जनता में धार्मिक सहिष्णुता की चेतना विकसित करने में सहयोग दिया।

संस्थाओं को जागीर

व्यक्तियों के साथ-साथ संस्थाओं को भी इस प्रकार का अनुदान दिया जाता था। अनुदान देने तथा उनके पुनर्ग्रहण करने के समस्त अधिकार बादशाह में निहित थे। भू-स्वामित्व का अधिकार वंशानुगत दिया जाता था परन्तु उत्तराधिकारियों को आवधिक सत्यापन कराना आवश्यक था। ऐसे अनुदान अधिकतर भू-राजस्व तथा अन्य करों से मुक्त रहते थे किन्तु ऐसी भूमि पर कर निर्धारण की सम्भावना को पूरी तरह से अस्वीकार नहीं किया जा सकता। शाहजहाँ ने 1648-49 ई. में बेगम बिरलास के अनुदान पर कर लगाया था। इसी प्रकार शाहजहाँ के काल में ही भूसरा तथा हैबतपुर गाँवों की अयम्मा भूमि पर भी कर का निर्धारण कर दिया।

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